आत्म−निर्माण का सरल मार्ग

April 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)

मानव जीवन का सदुपयोग दो प्रकार से किया जा सकता है (1) आत्म−निर्माण द्वारा (2) राष्ट्र निर्माण द्वारा। इससे प्रथम साधन अर्थात् आत्मनिर्माण पर विचार करें तो विदित होता है कि आत्म−निर्माण निम्न साधनों से संभव है:—

(1) शरीर रक्षा से

(2) भावनाओं पर विजय प्राप्त करने से

(3) बुद्धि विकास से

(4) आत्मज्ञान से

शरीर सम्पदा

आत्मनिर्माण का प्रथम साधन मानव का शरीर है। शरीर वह यंत्र है, जिसकी सहायता से मानव संसार में कर्म पथ पर अग्रसर होता है, नाना कर्त्तव्यों का पालन करता है, तथा संसार, समाज देश और विश्व की प्रगति समझता है। संसार कैसा हैं? उसमें कितनी प्रगति हो रही है? किस दिशा में हो रही है? कितनी अच्छाई या बुराई है, यह मानव के शरीर पर अवलम्बित है। जिस प्रकार सावन के अंधे को सर्वत्र हरा ही हरा दृष्टिगोचर होता, उसी प्रकार रोगी शरीर वाले को सम्पूर्ण संसार रोग से आक्रान्त डूबता हुआ, नष्ट होकर काल कलवित होता हुआ प्रतीत होता है अस्वास्थ्यकर स्थानों, निंद्य पेशा करते हुए व्यक्ति यों को संसार में भोग−विलास, शृंगार उत्तेजक पदार्थ, इत्यादि के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जिसने अपने शरीर को मद्य, तम्बाकू, चरस, पोस, इत्यादि उत्तेजक पदार्थों पर पाला है, वह व्यक्ति पशुत्व की श्रेणी में पड़ा पड़ा नारकीय कीट पतंगों का जीवन व्यतीत करता है।

अस्वस्थ रोगी, मनुष्य के विचार भी अस्वास्थ्यकर अनिष्ट ही होते हैं। यह संसार को अहंकार की संकीर्णता में बंधा हुआ देखता है। रोगी शरीर तो अपना क्या भला कर सकता है, तथा दूसरों का क्या कल्याण कर सकता है। उसके विचार बासी, योजनाएं रोगी, कल्पनाएं दूषित, वासनाएं प्रदीप्त, इच्छाएं अनिष्ट कर ही रहेंगी।

आत्म−निर्माण के इच्छुकों! नीरोग और स्वस्थ शरीर बनाओ, जिससे तुम स्वयं अनिष्टकर चिन्तन से बच सको, तथा अहितकर कल्पनाओं से बच कर अपना जीवन दिव्य प्रबन्ध से सुव्यवस्थित कर सको। तुम्हें वही ग्रहण करना चाहिये जो शुभ हो। स्वास्थ्य, पवित्र भोजन, सात्त्विक वस्तुओं के भोजन पर निर्भर है। तुम जो भोजन करते हो, उसी के अनुसार तुम्हारी भावनाओं का निर्माण होता है। सात्त्विक वस्तुओं−गेहूँ, चावल, फल, तरकारियाँ, दूध, मेवे, इत्यादि पर बना हुआ स्वस्थ मनुष्य आत्म निर्माण सरलता से कर सकता है। उसकी भावनाएं तामसी वस्तुओं की ओर आकृष्ट न होंगी। वह दूसरों के प्रति कभी घृणा−द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध की भावनाएं नहीं ले जायगा। इसके विपरीत माँस, मादक द्रव्य, तामसी उत्तेजक पदार्थों, मद्य इत्यादि के बल पर स्वस्थ शरीर अन्दर से खोखला रहेगा। वह उस रेत की दीवार की भाँति है, जो जरा से धक्के से धराशायी हो सकता है। नींद परिश्रम, श्वास−प्रश्वास के व्यायाम, दूध छाछ, फलों के रस ये सभी तत्व शरीर की रक्षा के लिये अमूल्य हैं। उपवास द्वारा रोग से भक्ति तथा अंतरंग शुद्धि करते रहना अनिवार्य है।

आत्मनिर्माण की दूसरी साधना है भावनाओं पर विजय। गन्दी वासनायें दग्ध की जाएं, तथा दैवी सम्पदाओं का विकास किया जाय तो उत्तरोत्तर आत्मविकास हो सकता है। कुत्सित भावनाओं में क्रोध, घृणा, द्वेष, लोभ और अभिमान, निर्दयता, निराशा अनिष्ट भाव प्रमुख हैं। धीरे धीरे इनका मूलोच्छेदन कर देना चाहिए। इनसे मुक्ति पाने का एक यह भी उपाय है कि इनके विपरीत गुणों, धैर्य, उत्साह, प्रेम, उदारता, दानशीलता, उपकार, नम्रता, न्याय, सत्यवचन, दिव्य भावों का विकास किया जाय। ज्यों−ज्यों ये दैवी गुण विकसित होंगे, दुर्गुण स्वयं दग्ध होते जायेंगे। दुर्गुणों से मुक्ति पाने का यही एक मार्ग है। आप प्रेम का द्वार खोल दीजिए, प्राणिमात्र को अपना समझिये, समस्त कीट पतंग−पशु पक्षियों को अपना ही समझा कीजिए। संसार से प्रेम कीजिए। आपके शत्रु स्वयं दब जायेंगे मित्रता की अभिवृद्धि होगी। इसी प्रकार धैर्य, उदारता, उपकार इत्यादि गुणों का विकास प्रारम्भ कीजिए। इन गुणों की ज्योति में आपके शरीर में कोई कुत्सित भावना शेष न रह जायगी।

अनिष्ट भाव से स्वयं दूसरे की ही हानि नहीं होती किन्तु तुम्हारी स्वयं की भी हानि होती है। उसकी हानिकारक तरंगें विश्व में व्याप्त होकर वातावरण को दूषित करती हैं महायुद्ध होते हैं जिसमें असंख्य व्यक्ति यों का संहार होता है।

आत्मनिर्माण का तृतीय साधन है—बुद्धि विकास। इससे सत्कर्म तथा दुष्कर्म का विवेक जागृत होता है। शुभ क्या है? अशुभ किसे कहते हैं? किसमें अधिक से अधिक व्यक्ति यों का भला है? इत्यादि का ज्ञान मनुष्य को बुद्धि के विकास द्वारा ही प्राप्त होता है बुद्धि विकास के चार मुख्य साधन हैं—सत्संग, अध्ययन, विचार और भूल।

सत्संग से कुटुम्ब और समाज का कल्याण होता है। जिन अध्यात्मवादियों, ऋषि−महात्माओं, विद्वानों या विचारकों ने संसार में आध्यात्मिक उन्नति की है, उनके संपर्क में आने से मनुष्य को संसार विषमताओं से बचने के अनेक साधन प्राप्त होते हैं, अपनी समस्याओं का हल निकलता है, आगे आने वाली कठिनाइयों से युक्ति के साधन एकत्र करने में सहायता प्राप्त होती है।

अध्ययन से मनुष्य महापुरुषों का सत्संग प्राप्त करता है। पुस्तक का अर्थ है किसी विद्वान का सर्वदा सोते जागते पुस्तक के पृष्ठों के रूप में आपके समक्ष रहना। पुस्तकों से ऐसे महापुरुषों से संपर्क स्थापित हो सकता है, जो इस संसार में नहीं हैं, किन्तु मानव जगत् में अपनी छाप छोड़ गये हैं। नैतिक, मानसिक, आध्यात्मिक विकास के हेतु उत्तमोत्तम धार्मिक ग्रंथों का नियमित स्वाध्याय अतीव आवश्यक है। घर में उत्तम ग्रंथों का संकलन रखने से घर का वातावरण शुद्ध होता है। शुभ विचार की लहरें सर्वत्र व्याप्त हो जाती हैं। सद्विचार से रमण करने में बुद्धि विकास का क्रम उचित दिशा में होता है। सद्विचार मन में शिव भावना, सत्य भावना, और दिव्य भावना जाग्रत रखता है। स्मरण रखिये, “जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा है, जहाँ परमात्मा है, वहाँ आप हैं” आपका जीवन और व्यवहार दिव्य प्रबन्ध से सुव्यवस्थित है। परमात्मा आपसे प्रेम करता है और सदैव आपका सहायक है। आप कभी दुःखी, भ्रान्त या निराश नहीं हो सकते क्योंकि आपका संचालक परमात्मा है। संसार के सब प्राणी आपके आत्म−बंधु हैं, आपका शरीर परमात्मा का निवासस्थान है। इस प्रकार की दिव्यभावना में अपना जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति सफलता से आत्मनिर्माण कर सकता है।

भूल से बुद्धि−विकास होता है, एक भूल का अर्थ है आगे के लिए अकलमन्दी। संसार के अनेक पशु भूल से विवेक सीखते हैं लेकिन मनुष्य उनसे बहुत जल्दी सीखता है। भूल का अर्थ है कि भविष्य में आप अपनी गलती नहीं दोहरायेंगे। भूल से अनुभव बढ़ता है। संसार में व्यक्ति के अनुभव का ही महत्व है। अनुभव अनेक भूलों द्वारा अर्जित सद्ज्ञान है। भूल यदि दोहराई न जाय, तो बुद्धि−विकास में बहुत सहायता करती है। महापुरुषों के जीवन में अनेक क्षण ऐसे आये हैं जब वे भूलों के बल पर महान बने हैं।

आत्मनिर्माण का अन्तिम साधन है आत्म−भाव का विस्तार। साधक की दृष्टि से विकास का सबसे उच्च स्तर यही है। इस स्तर पर पहुँचने से साधक सर्वत्र आत्मभाव का दर्शन करता है। प्रत्येक व्यक्ति , वस्तु तथा जगत् को वह ब्रह्म रूप देखता है। अपने शरीर को वह परमात्मा का ग्रह समझता है। वह जिस वस्तु को देखता है वे सब उसकी आत्मा के अंग प्रत्यंग हैं। उसकी आत्मा का दायरा सुविस्तृत होता है, जिसमें शत्रु मित्र सभी सम्मिलित रहते हैं। वह जो देखता है, स्पर्श करता है, भाषण करता है, उसमें आत्मा का अस्तित्व है। जो भोजन करता है, श्वास लेता है सब ब्रह्मरूप चेतन अमृत है।

ऐसा साधक अपने आपको शरीर नहीं, आत्मा समझता है। वह देश, जाति, वर्ण की संकुचित भूमि से उठ कर सब मनुष्यों में एक रस बहने वाली आत्मा को ही देखता है। संसार की वासनाओं की तरंगें उसे दुखी नहीं करतीं, क्योंकि वह तो स्थिर वस्तु आत्मा में ही विश्वास करता है। वह देहपूजा में रत नहीं रहता, वरन् आत्मा की आराधना करता है।

उसकी आत्मिक दृढ़ता से टकरा कर सुख दुःख, जय पराजय हानि लाभ, मान−अपमान, प्रिय−अप्रिय प्रसंग टूक−टूक हो जाते हैं। उसे आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं दीख पड़ता। एक दिव्य आयोजन का दर्शन वह सर्वत्र करता है। उसके लिए कोई स्थान आत्मा से खाली नहीं है।

सच्चा ज्ञान मनुष्य को अपनी आत्मा से ही मिलता है। इस स्तर पर मनुष्य इतना ऊँचा उठता है कि उसे साँसारिक मोह, माया, त्रुटियाँ, आलोचनाएं नहीं सतातीं। उसका मन पवित्र और निर्भय हो जाता हैं। इस आत्मदृष्टि के पाने से रोग, दुःख शोक आदि पास नहीं फटक सकते। आत्मा के ज्ञान से क्या नहीं जाना जा सकता? सच्ची शान्ति, सच्चा सुख, सच्ची ज्योति आत्मा में ही प्राप्त है।

आत्मदृष्टि वाला व्यक्ति संसार के प्राणिमात्र को अपना आत्मबन्धु मानता है। “मैं” के स्थान पर “हम सब” की भावनाएं रखता है। युधिष्ठिर की भाँति वह कुत्ते जैसी घृणित चीज को भी अपने साथ रखना चाहता है। सभी की उन्नति हो, सभी आगे बढ़ें, जितना मिले सभी बाँट कर खायें खुश रहें सामूहिक रूप से मिलकर संसार का आनन्द लें− ऐसे विचारों में मस्त रहने के कारण उसके आत्मभाव का दायरा खूब बढ़ता है और उसमें जनसमाज के अतिरिक्त पशु पक्षी कीट पतंग जलचर थलचर तथा अन्य छोटे जीवों को भी बराबर का स्थान प्राप्त होता है।

संकीर्णता आत्मा में नहीं है आत्मा का विस्तार अनन्त है। विश्वात्मा में सभी कुछ सम्मिलित है। परमात्मा नहीं चाहता कि उसके पुत्रों में खुदगर्जी की विषैली अग्नि प्रज्ज्वलित हो। वह अकेला खाने की दुष्प्रकृति को मानव−समाज से दूर करना चाहता है। उसके राज्य में सबक पास बराबर का हिस्सा है, प्रेम, सौजन्य, सहानुभूति, सहायता—यही आत्मभाव के नाना उपकरण हैं। शास्त्रों में अनेकों स्थानों पर कहा गया है,” जो अकेला खाता है, वह पाप कमाता है, जो अपने लिए सोचता है, वह नर्क की बात सोचता है।”

आत्मभाव का दायरा विस्तृत कीजिए, सामूहिक उन्नति की बात सोचिये। सबको आत्मा मानकर सबकी उन्नति, सबके कल्याण की बात सोचें और इसी योजना को कार्यान्वित करें, तो राष्ट्रनिर्माण हो सकता है। व्यक्ति गत उन्नति से अधिक लाभ नहीं है। सब की उन्नति में अपनी उन्नति सोचने से आत्मा का विस्तार होता है।

“मैं आरोग्यता, प्रेम, और भ्रातृभाव के विचारों की लहरें समस्त विश्व के प्राणिमात्र को भेजता हूँ। संसार में मेरा कोई भी द्वेषी नहीं है। मैं सब मनुष्यों में परमात्मा का दर्शन करता हूँ। सब लोग सुखी हों, अभय हों, रोगरहित हों, सबका कल्याण हो। मैं प्राणिमात्र को क्षमा करता हूँ, वे मुझे क्षमा करे”—ऐसी भावनायें प्रत्येक अध्यात्मवादी को मन में रखनी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: