स्वामी विवेकानन्द का आत्म चिन्तन।

April 1955

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मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि संसार में उन्नति करने के लिये सुशील होना कितना अच्छा है।... मैं प्रायः प्रत्येक कार्य को इस दृष्टि से करता भी हूँ। परन्तु जब कभी ऐसा अवसर उपस्थित होता है कि यथार्थ से इसमें विरोध की आशंका होने लगती है, उसी क्षण मैं रुक जाता हूँ। सुशील होना अच्छा है, पर अतिशय नम्रता में मैं विश्वास नहीं करता। मेरा आदर्श है समदर्शिता। जिसमें हर किसी के साथ समान बर्ताव करने की शिक्षा दी जाती है। साधारण मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने स्वामी समाज के आदेशों का पालन करे। परन्तु सत्य के पुत्र इस नियम से बाध्य नहीं होते। यह एक सनातन मर्यादा चली आ रही है कि हर एक को यहाँ अपनी परिस्थिति के अनुसार वातावरण और समाज की प्रगति देख कर चलना पड़ता है। इसके लिये समाज उसे हर तरह की सुविधाएँ देने को तैयार है। परन्तु सत्य का पथिक इसके विपरीत अकेला खड़ा होकर समाज की गति−विधि का निरीक्षण किया करता है। यों तो समाज का दास बन कर मनुष्य को जीवन के सभी प्रकार के आनन्द भोगने को मिल सकते हैं, और समाज के प्रतिकूल चलने वालों का जीवन नितान्त कष्टमय व्यतीत होता है, पर अन्तिम सत्य यह नहीं है। समष्टि की पूजा करने वाले क्षण में विलीन हो जाते हैं, सत्य के पुजारी संसार में अमर होकर रहते हैं।

मैं यहाँ की तुलना जला कर राख कर देने वाली शक्ति से करूंगा। जहाँ कहीं वह प्रवेश करती है, सब मिलकर स्वाहा हो जाता है। कोमल पदार्थों पर उसका प्रभाव शीघ्र पड़ता है, ठोस पदार्थ तनिक देर में पिघलते हैं। परन्तु वह शक्ति प्रत्येक दशा में अपना काम करती अवश्य है। इसे समझो। यौवन और सौंदर्य के मोह क्षणिक है, जीवन और सम्पत्ति नाशवान्, नाम और यश स्थायी नहीं हो सकते, यहाँ तक कि पर्वत भी धूल में मिल जाते हैं। मित्रता और प्रेम का भी विनाश होकर रहेगा। केवल सत्य का सम्बन्ध सनातन से है। हे मेरे सत्य देवता! तुम्हीं मेरा पथ निर्दिष्ट करना। मैं अब अपने को दूध और शहद में परिणत नहीं कर सकता। मुझे वैसा ही बना रहने दो जैसा कि मैं हूँ। निर्भय होकर, बिना क्रय−विक्रय करते हुए मैत्री और वैर की भावना छोड़ कर, हे संन्यासी! सत्य का पल्ला पकड़ और इसी क्षण से संसार से अपने को मुक्त हुआ जान। भविष्य की चिन्ता क्यों करता है? क्योंकि साँसारिक लिप्सा तुझे नहीं छोड़ती? सत्य! तू ही मेरा पथ−निर्देशक बन। मुझे धन, यश और नाम से कोई प्रयोजन नहीं है। मेरे लिये ये धूलि के समान हैं। मैं केवल अपने भाइयों की सहायता करने आया हूँ।

मनु के शब्दों में संन्यासी का कर्त्तव्य है, “अकेले रहो और बिना साथी के चला करो।” सारी मैत्री और सम्पूर्ण प्रेम बन्धन है। महर्षियों! तुम्हारे विचार कितने सन्तुलित और ध्रुव थे। सत्य के देवता की सेवा करने का अधिकारी वह व्यक्ति नहीं है,जो दूसरे का आश्रय ढूँढ़ता है। मेरे अन्तर! शान्त हो जा। अकेला विहार करना सीखो। ईश्वर तेरा साथी है। केवल ईश्वर की व्यापक सत्ता का ही अनुभव हमें चारों ओर होता है। मन, तू निर्भय क्यों नहीं होता? स्वच्छन्द होकर विचरण कर। लोगों को चीखने चिल्लाने दिया करो। मेरी उनके विषय में भर्तृहरि के शब्दों में यही धारणा बनी हुई है कि—संन्यासी तू! अपने मार्ग पर चलता जा। कोई तुझको पागल कहेंगे, कोई चाण्डाल कह कर घृणा करेंगे। ऐसे लोग भी होंगे, जो तुझे ऋषि मानकर तेरी बातें बड़े ध्यान से सुनेंगे। साँसारिक जन की बातों का बुरा न मान। हाथी के पीछे कितने ही कुत्ते भौंकते रह जाते हैं। वह सीधा अपने मार्ग पर चला जाता है। जब कोई महान् आत्मा पृथ्वी पर जन्म लेता है, तो उस पर भौंकने वाले लोगों का अभाव नहीं रहता।

विशद् गायत्री महायज्ञ:—

महायज्ञ का कार्यक्रम निर्धारित संकल्प एवं कार्यक्रम के अनुसार बड़े ही सुव्यवस्थित ढंग से चल रहा है। तपोभूमि में निवास करने वाले याज्ञिक लोगों की दिनचर्या ऐसी रहती है जिससे उन्हें आध्यात्मिक साधना एवं शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त के लिए समुचित अवसर मिलता है। सायंकाल के 4 बजे से नियमित रूप से शास्त्रीय शिक्षा की कक्षा आरंभ हो जाती है। संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् ब्रह्मचारी जगतनारायणजी एवं आचार्य जी इन कथाओं का अध्यापन करते हैं। अतः सायं विधिवत् वेद मन्त्रों से गायत्री माता की पूजा अर्चा सामूहिक रूप से बड़े ही हृदयग्राही रूप से की जाती है। अब तक प्रातःकाल में अध्ययन काल तक गायत्री मन्त्र से हवन करने का काम क्रम चल रहा है। नवरात्रि बाद वेद पारायण यज्ञ तथा अन्यान्य यज्ञों का कार्यक्रम आरंभ किया जायगा। अब तक देश के सुदूर प्रान्तों से आ आकर अनेक नैष्ठिक गायत्री उपासक मथुरा महायज्ञ में भाग ले चुके हैं। अपने−अपने स्थानों पर तो बड़ी संस्था में लोग भाग ले रहे हैं। यज्ञ के अन्त तक भागीदारों की निर्धारित संख्या पूर्ण हो जायगी ऐसी आशा की जाती है। संरक्षण व्यवस्था में जो अपूर्णता है वह भी धीरे−धीरे पूरी होती जा रही है।

नवरात्रि:—

चैत्र की नवरात्रि में देश भर में गायत्री उपासना का आयोजन हो रहा है। इस पुण्य पर्व पर सर्वत्र 24 हजार जप के अनुष्ठान किये जा रहे है। गायत्री तपोभूमि में भी बड़ी संख्या में उपासक लोग आये हुए हैं और परम सात्विक वातावरण में अपनी तपश्चर्या कर रहे हैं। इन दिनों गायत्री तपोभूमि में प्राचीन काल के ऋषि आश्रमों का दृश्य उपस्थित है। यज्ञ धूम्र और वेद ध्वनि में यहाँ का वातावरण स्वर्गीय शान्ति प्रदान करने वाला दृष्टिगोचर होता है। नियन्त्रित कार्यक्रम के अनुसार इन दिनों गायत्री महापुरश्चरण, यज्ञ, तीर्थयात्रा, प्रचलन आदि भली प्रकार चल रहे हैं, उनका सचित्र विवरण पाठकों को अखंड−ज्योति के पृष्ठों पर पढ़ने को मिलता रहेगा।

सरस्वती यज्ञः—

ज्येष्ठ सुदी 1 से ज्येष्ठ सुदी 10 तदनुसार ता॰ 22 मई से 31 मई तक 10 दिन का सरस्वती यज्ञ गत वर्ष की भाँति होगा। इसमें बुद्धिवर्धक सरस्वती मन्त्रों से आहुतियाँ दी जाएंगी तथा ब्रह्मी, वच, शतावरि, गोरखमुण्डी, अष्टवर्ग गुरुच कमल पुष्प आदि बुद्धिवर्धक औषधियों का ही हवन किया जायेगा। साथ ही मानसिक, आतंक, चारित्र्यक उत्कर्ष करने वाले प्रवचनों की व्याख्यान माला इन 10 दिनों में पूर्ण की जायगी। समीपवर्ती तीर्थयात्रा का भी शिक्षाप्रद कार्यक्रम रहेगा तथा अनेक सुविज्ञ व्यक्ति यों के प्रवचन होंगे। विद्यार्थियों एवं बुद्धि जीवियों के लिये यह अवसर बहुत ही लाभप्रद है। स्कूलों की इन दिनों छुट्टियाँ भी रहती हैं। जो लोग इस यज्ञ में आना चाहें वे पहले से ही स्वीकृति प्राप्त कर लें, क्योंकि यहाँ स्थान थोड़ा होने से सीमित संख्या में ही स्वीकृति दी जाती है। बुद्धि−वृद्धि, मानसिक शक्ति यों का विकास एवं चित्त की उद्विग्नता को शान्त करने के लिए सरस्वती यज्ञ में भाग लेना निश्चय ही बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।

साँस्कृतिक पुनर्निर्माण की शिक्षा:—

भारतीय समाज को प्राचीन साँस्कृतिक आधार पर पुनर्निर्माण करने के लिए गायत्री तपोभूमि में अनेक प्रकार के छात्रों की सांगोपांग शिक्षा पद्धति, षाडस संस्कार, पर्व, व्रत त्यौहार आदि का शास्त्रोक्त रीति में करने की व्यवस्थित शिक्षा देने की व्यवस्था की गई है। उनके लिए ऐसे छात्रों की आवश्यकता है जो संस्कृत जानते हों तथा दूसरों को प्रभावित करने एवं पथ प्रदर्शन करने की योग्यता रखते हैं। इस शिक्षा के लिए 18 वर्ष से कम की आयु न होनी चाहिए। अब तक कई व्यक्ति यों को संस्कृत ज्ञान के अभाव तथा दुर्बल व्यक्ति त्व के कारण अस्वीकृत करना पड़ा है। चूँकि यह शिक्षा राष्ट्र का साँस्कृतिक पुनर्निर्माण करने वाले कार्यकर्ता तैयार करने की दृष्टि से आरंभ किया है इसलिए है लोग इसके उपयुक्त हों वे ही प्रार्थना−पत्र भेजें।


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