कर्म योगी बनिए

April 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(स्वामी शिवानन्दजी महाराज)

अपना कर्त्तव्य पालन करता हुआ एक भंगी भी ईश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, यदि वह फल की इच्छा न रखता हुआ कर्तापन के अभिमानरहित होकर अपने सारे कार्य और उनके फल ईश्वरार्पण कर देता है। जीवन के किसी भी आश्रम में हर एक मनुष्य को ईश्वर−प्राप्ति सम्भव है। हिन्दू धर्म में यही सौंदर्य है।

जो मनुष्य संकल्पों और राग द्वेष से मुक्त है और जिसको आत्मज्ञान है वह निष्कर्म अवस्था को प्राप्त हुआ कहा जा सकता है। यदि कोई परमात्मा के लिये कर्म करता है तो उसके लिये कर्म−बन्धन नहीं है, ईश्वर−बुद्धि से कर्म करते रहने से उसका चित्त शुद्ध हो जाता है।

जो डाक्टर अस्पताल में काम करता है, उसे समझना चाहिये कि सारे रोगी एक भगवान् ही के अनेक रूप हैं, उसे सोचना चाहिये कि यह शरीर परमात्मा का चलता फिरता मन्दिर है और अस्पताल बड़ा मन्दिर वृन्दावन या अयोध्या है। उसे समझना चाहिये कि मैं अपने सारे कार्य अपने प्रभु की प्रसन्नता के लिये कर रहा हूँ, अपने अपने अधिकारियों की प्रसन्नता के लिये नहीं। अपने भले−बुरे सारे कार्य ईश्वर के चरणों में अर्पण करके, ‘ॐ तत्सत् कृष्णार्पणमस्तु’ या ‘ॐ तत्सत् ब्रह्मार्पणमस्तु’ कार्य के अन्त में और सोते समय कहना चाहिये, यही ज्ञानाग्नि है जो कर्मों के फल को भस्म करके चित्त−शुद्धि, आत्म ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करा देती है, उसे स्वप्न में भी यह नहीं सोचना चाहिये कि मैंने अमुक सत्कर्म किया है मुझे स्वर्ग में उच्च पद प्राप्त होगा। या अगले जन्म में धनवान बनूँगा। इस प्रकार के निरन्तर अभ्यास से वह धीरे−धीरे अनासक्ति योग को प्राप्त कर लेगा, अपने गृहस्थ−कार्य करती हुई स्त्री को भी यही मानसिक भावना रखनी चाहिए। इस प्रकार से सारे कार्य अभ्यास रूप बनाये जा सकते हैं। ये सब देव−पूजा बन जाते हैं, यदि ठीक−ठीक मानसिक भावना से कार्य करे तो हर एक मनुष्य जीवन की किसी भी अवस्था में ईश्वर−प्राप्ति कर सकता है। ऐसा हरगिज न सोचो कि मैंने उस मनुष्य की सहायता की है। यही सोचो कि उस मनुष्य ने मुझे सेवा करने का अवसर दिया है और सेवा ने मेरी चित्त−शुद्धि में सहायता की है, मैं उस मनुष्य का आभारी हूँ। कुंभक करके दो घण्टे तक श्वास रोक लेना, चौबीस घण्टे माला फिराना, जबान का तन्तु कटवा कर खेचरी मुद्रा कर के जमीन के नीचे कोठरी में बिना भोजन किये चालीस दिन तक समाधि में बैठ जाना, गर्मी के जलते हुये सूरज में एक टाँग से खड़े रहना, दोपहर के सूर्य की ओर त्राटक करना, सुनसान अकेले जंगलों में ‘ॐ ॐ’ चिल्लाना, संकीर्तन करते हुये आँसुओं का समुद्र बहाना, इन सब बातों से कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक सारे जीवों में परमात्मा के लिये तड़पाता हुआ प्रेम न हो और सारे जीवों में ईश्वर−सेवा करने की अधिक चाहना न हो। आजकल के साधक इन दो आवश्यक गुणों में शून्य पाये जाते हैं और यही कारण है कि वे एकान्त में ध्यान करके भी उन्नति प्राप्त नहीं करते। मैंने अपने इस जीवन के अनुभव में अनेकों भक्तों को देखा है, जिनके गले में और कलाइयों पर छह माला के कण्ठे पड़े रहते हैं, और हाथ में लम्बी जप माला होती है और दिन−रात ‘हरे राम हरे कृष्ण’ कहते रहते हैं। ये भक्त मरते हुए रोगी के निकट कभी नहीं जायेंगे, उसको एक बून्द पानी या दूध नहीं देंगे, उसको कभी नहीं पूछेंगे कि भाई तुम क्या चाहते हो, मैं तुम्हारी सेवा किस प्रकार कर सकता हूँ। तमाशा देखने के लिये दूर से खड़े हुए उसको देखते रहेंगे। क्या आप इन लोगों को सच्चे भक्त और वैष्णव कह सकते हैं, क्या उनके भजन और ध्यान से जरा−सा भी लाभ हो सकता है। वह ईश्वर−प्राप्ति की आशा कैसे कर सकते हैं, जब सारे जीवों में परमात्मा को देखने के लिये उनकी आँखें खुली हैं, और इन सारे रूपों में उसकी सेवा करने के लिये उसके हृदय में भाव नहीं है। हर एक की अनन्त प्रेम से सेवा करो, कर्तापन का अभिमान न करो और फल की इच्छा न करो, आप ईश्वर की सेवा है। काम पवित्र है, कर्म की दृष्टि से कोई काम नीच नहीं है। टट्टी साफ करने का भी काम यदि ठीक−ठीक मानसिक भाव से किया जावे तो वह भी ईश्वर−प्राप्ति के लिये योग−क्रिया बन जायगा।

जिस मनुष्य की बुद्धि में भ्रम हो जाता है, अहंकार से वह आत्मा को अपना शरीर मन प्राण और इन्द्रियाँ समझ लेता है और शरीर इन्द्रियों के सारे गुण आत्मा में आरोप करता है। इसलिये वह अज्ञान से समझता है कि मैं करता हूँ। असल में प्रकृति के गुण सारे कार्य करते हैं।

जो मनुष्य समाज की सेवा करता है वह असल अपनी ही सेवा करता है। जो मनुष्य दूसरों की सहायता करता है वह असल में अपनी सेवा करता है, यही बड़ी जरूरी बात है। जो मनुष्य आपको सेवा के लिये अवसर देता है उसका बड़ा अहसान मानो।

जब आप दूसरों की सेवा करो तो बड़बड़ाओ मत बल्कि सेवा करके प्रसन्न हो सेवा के लिये तैयार रहो। सेवा के लिये अवसर ढूंढ़ो और एक भी अवसर न खोओ। अवसर बनाओ और अच्छी सेवा के लिये क्षेत्र बनाओ। दो घण्टे रोज निष्काम भाव से किसी भी ढंग से सेवा करो। इससे आपका चित्त शुद्ध होगा। याद रक्खो परमात्मा समाज का श्रोता है। सारा संसार विराट् रूप परमात्मा की लीला है। जब आप किसी मित्र से मिल कर उसकी ओर मुसकाते हो तो बदले में मुसकान की आशा रखते हो, जब आप किसी को एक गिलास पानी देते हो तब किसी चीज की बदले में आशा रखते हो। संसार मनुष्य का यह जन्म−सिद्ध स्वभाव है। आशा रहित कार्य करने के लिये आपको अपने मन को कुशलता से धैर्य से साधना होगा, क्योंकि संसारी मनुष्यों के मन मलीन होते हैं इसलिए वह निष्काम कर्म के सच्चे भाव को नहीं समझ सकते। कुछ समय तक तीव्र सेवा करो तब आपको निष्काम कर्म−योग का भाव समझ में आवेगा। यदि आप में सच्ची लगन है और नित्य अपने लक्ष्य को सामने रख कर दृढ़ प्रयत्न करते हो तो लक्ष्य को प्राप्त करने का समय दूर नहीं है।

नया साधक समझता है कि मेरे गुरु ने मुझको नौकर या चपरासी जान रक्खा है। वह मुझसे छोटे−छोटे काम कराते हैं। जिसे मनुष्य ने कर्म योग के महत्त्व को समझ लिया है वह हर एक कार्य को योग−क्रिया या भगवत् पूजा ही समझेगा। उसकी दृष्टि में कोई काम नीच नहीं है। हर एक काम नारायण−सेवा के लिये ही है। कर्म योगी की दृष्टि में सारे कार्य पवित्र हैं। जो साधक संसारी मनुष्यों से अपने को नीच समझते हुए कार्य करने में प्रसन्न होता है, वही शक्ति शाली योगी बनेगा, वह अहंकार और अभिमान से मुक्त रहेगा, उसका पतन नहीं होगा, उसको अभिमान का काँटा नहीं लग सकता।

कर्म योग मन को ज्ञान−प्राप्ति के योग्य बना देता है यह दृष्टिकोण को विशाल करता है और एकता के मार्ग में सारी बाधाओं को दूर कर देता है। चित्त शुद्धि के लिये कर्मयोग बड़ा प्रभावशाली साधन है।

जब दूसरों की भलाई करना मनुष्य−जीवन का अंग बन जाता है तब उसमें जरा−सी भी स्वार्थभावना नहीं रहती वह दूसरों की सेवा और भलाई करके बड़ा प्रसन्न होता है। निःस्वार्थ कर्म करने से उसको आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। स्वार्थरहित सेवा करने से आपका चित्त शुद्ध होता है। अहंकार, घृणा, वैर, ऊँचेपन का भाव और इनके ही समान दूसरे दुर्गुण दूर हो जायेंगे। आप में नम्रता, शुद्ध प्रेम, सहानुभूति, सहनशीलता और दया आ जायगी। जुदाई का भाव जाता रहेगा, स्वार्थ भी दूर हो जायगा। आपका दृष्टिकोण विशाल हो जायगा, आप एकता का अनुभव करने लगेंगे। अन्त में आप आत्म−ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, आप सब में एक और एक में सबका अनुभव करेंगे।

प्रायः लोग अधीर हो जाते हैं, और थोड़ी सी सेवा करने के बाद सिद्धियों की आशा करने लगते हैं। सच्चा कर्मयोगी जो विनय और आत्मभाव सहित सबकी सेवा करता है वह संसार का सच्चा स्वामी बन जाता है, सब उसका आदर और सम्मान करते हैं। जितनी अधिक सेवा आत्मभाव सहित आप करोगे उतनी ही अधिक और सामर्थ्य आपको प्राप्त होगी। इसका अभ्यास करो और अनुभव कर लो।

यदि आप इस आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति करना चाहते हो तो आपको जीवन पर्यन्त नित्य सब प्रकार की सेवा अवश्य करनी चाहिए तभी आप सुरक्षित रह सकोगे। प्रसिद्ध योगी बन जाने पर भी सेवा करनी न छोड़ो। आपके शरीर की प्रत्येक हड्डी, नस और रोम−रोम में सेवा का भाव भर जाना चाहिए। तभी आप सच्चे कर्मशील वेदान्ती बन जाओगे। क्या भगवान् बुद्ध से बढ़ कर भी कोई वेदान्ती या कर्मयोगी हो सकता है। वह निश्चय ही अद्वितीय आत्मा है। यदि ठीक−ठीक मानसिक भाव से दृढ़ परिश्रम से निस्वार्थ सेवा करो तो आप भी गौतम बुद्ध बन सकते हो।

निष्काम कर्मयोग के अभ्यास में प्रयास निष्फल नहीं होता। कोई हानि भी नहीं होती। पीछे को लौटना भी नहीं पड़ता। इसका थोड़ा−सा भी अभ्यास जन्म−मरण के महान भय से बचाता है। कर्मयोग का फल ज्ञान रूप में आपको मिलेगा और आत्मा का सच्चा सुख मिलेगा।

निरन्तर निष्काम सेवा के अभ्यास में आपका चित्त शुद्ध हो जाय। आप संसार में सुख−शान्ति और आनन्द का विस्तार करने वाले शक्ति शाली योगी बन जाओ। समस्त जीवों के कल्याण में आपको आनन्द मिले। जब कि आप मनुष्य−समाज की सेवा कर रहे हो आपका मन परमात्मा में लगा रहे। आप कर्मयोग की कला और विज्ञान को समझो। आपके सारे कार्य प्रभु की पूजा बनें। कर्मयोग के अभ्यास से इसी जन्म में आप सबको कैवल्य−मोक्ष प्राप्त होवे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118