कर्म करने का कौशल

March 1953

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(श्री आचार्य बिनोवा भावे)

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ बतलाये गये हैं। इनमें से मोक्ष और काम परस्पर विरोधी सिरों पर स्थित हैं। प्रकृति और पुरुष या शरीर और आत्माओं में अनादि काल से संघर्ष चला आ रहा है। वेदों में जो वृत्र और इन्द्र के युद्ध का वर्णन है वह इसी सनातन युद्ध का वर्णन है। ‘वृत्र’ का अर्थ है ज्ञान को ढ़क देने वाली शक्ति। ‘इन्द्र’ संज्ञा परोक्ष संकेत की द्योतक है और उस अर्थ को सूचित करने के ही लिए खासकर गढ़ी गई है। ‘इदम्’- ‘द्र’ या ‘विश्वद्रष्टा’ ‘इन्द्र’ शब्द का प्रत्यक्ष अर्थ है। यह है उसका स्पष्टीकरण। ज्ञान को ढांकने की कोशिश करने वाली और ज्ञान का दर्शन करने की चेष्टा करने वाली, इन दो शक्तियों का अर्थ क्रमशः जड़, शरीरात्मक, भौतिक शक्ति और चेतन, ज्ञानमय, आत्मिक शक्ति है। इन दोनों में सदा संघर्ष होता रहता है और मनुष्य का जीवन इस संघर्ष में फंसा हुआ है। ये दोनों परस्पर-विरोधी तत्व एक ही व्यक्ति में काम करते हैं, इसलिये मनुष्य का हृदय इनके युद्ध का धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र हो गया है आत्मा को मोक्ष-पुरुषार्थ की अभिलाषा होती है, शरीर को काम-पुरुषार्थ प्रिय हैं। दोनों एक-दूसरे को नाश करने की ताक में हैं।

मोक्ष कहता है-काम आत्मा की जान लेने पर तुला हुआ उसका कट्टर बैरी है। उसे मार डालों निष्काम बनो। यह बड़ा मायावी और स्नेही मालूम होता है। लेकिन इसके प्रेम के स्वाँग पर मोहित होकर धोखा न खाना। यह जितना कोमल दीखता है उतना ही क्रूर है। इसके दिखाने के दाँत प्रेममय हैं पर खाने के दाँत क्रोध से भरे हुए। ऊपर-ऊपर से यह चैतन्य रस से परिपूर्ण बालकों को जन्म देता हुआ दिखाई देता है। लेकिन यह वास्तविक नहीं है। यह बूढ़ी महतारी अब तक मरती क्यों नहीं, इसी की इसे हमेशा फिक्र रहती है। याद रहे कि लड़के को जन्म देने का अर्थ हैं पिता की मृत्यु की तैयारी करना। अगर आपकी यह इच्छा होती कि आपके बाप-दादा, आपके पुरखे जीवित रहें, तो क्या आप लड़के और नाती-पोते पैदा करते ? क्या आपको पता नहीं कि इतने आदमियों का प्रचण्ड लोक संग्रह या मनुष्यों का ढेर पृथ्वी सम्भाल नहीं सकती? आप इतना भी नहीं जानते? माँ तो मरने ही वाली है, वह हमारे वश की बात नहीं यह कह देने से काम नहीं चलेगा। हम यह नहीं भुला सकते कि माता की मृत्यु की अवश्यम्भाविता स्वीकार करके ही पुत्र का उत्पादन किया जाता है। इसीलिए तो जन्म का भी ‘सूतक’ (जनना शौच) रखना पड़ता है। चैतन्य रस से भरे बालक को उत्पन्न करने का श्रेय अगर आपको देना हो, तो उसी रस से ओत-प्रोत माता को मार डालने का पातक भी उसी के मत्थे होगा। उत्पत्ति और संहार, काम और क्रोध, एक ही छड़ी के दो सिरे हैं। ‘काम’ कहते ही उसमें ‘क्रोध’ का अन्तर्भाव हो जाता है इसीलिए अहिंसक वृत्ति वाले सत्पुरुष संहार-क्रिया की तरह उत्पत्ति की क्रिया में भी हाथ नहीं बटाते। सच तो यह है कि बालक का चैतन्य रस काम का पैदा किया हुआ होता ही नहीं। जिस गन्दे अंग रस से मलिन होने में माँ-बाप अपने-आपको धन्य मानते हैं वह रजो रस इसका पैदा किया हुआ होता है। कारण, इसका अपना जन्म ही रजोगुण की धूल (रज) से हुआ है। आप अगर इसके मनोरथ पूरे करने के फेर में पड़ेंगे तो यह कभी अघाएगा ही नहीं, इतना बड़ा पेटू है। जिस-जिसने इसे तृप्त करने का प्रयोग किया वे सभी असफल हुए। उन सबको यही अनुभव हुआ कि काम की तृप्ति कामोपभोग द्वारा करने का यत्न स्वयं क्षत्रिय बनकर पृथ्वी को निःक्षत्र करने के प्रयास की तरह व्याघातात्मक या असंगत है। इसे चाहे जितना भोग लगाइए, आग में घी डालने-जैसा ही होता है। इसकी भूख बढ़ती ही जाती है। अन्नदाता ही इसका सबसे बड़ा खाद्य है और उसे खाने में इसे निःसंदेह भस्मासुर से भी बढ़कर सफलता मिलती है। इसलिए इस कामासुर को वरदान देने की गलती न कीजिए।

इसकी ठीक उल्टी बात काम कहता है। वह भी उतनी ही गम्भीरता से कहता है- “मोक्ष के चक्र में में आओगे तो नाहक अपना कृपालु-मोक्ष (कपाल-क्रिया) करा लोगे। याद रखो, वेदान्त की ही बदौलत हिन्दुस्तान चौपट हुआ है। यह तुम्हें स्वर्ग−सुख और आत्म-साक्षात्कार की मीठी-मीठी बातें सुनाकर भुलावे में डालेगा। लेकिन यह इसकी खालिस दगाबाजी है। ऐसे काल्पनिक कल्याण के पीछे पड़कर ऐहिक सुख को तिलाँजलि देना बुद्धिमानी की बात नहीं है। ‘तत्वमसि’ आदि महावाक्यों की चर्चा यदि कोई घड़ी भर मनोविनोद के लिए भोजन के अनन्तर नींद आने से पहले या नींद आने के लिए करे तो उसकी वह क्रीड़ा क्षम्य मानी जा सकती है। परन्तु, यदि कोई खाली पेट यह चर्चा करने का हौसला करेगा, तो वह याद रक्खे कि उसे व्यावहारिक ‘तत्वमसि’ (पैसे) की ही शरण लेनी होगी। चाँदनी बिलकुल आटे-जैसी सफेद भले ही हो, परन्तु उसकी रोटियाँ नहीं बनती और तो कुछ नहीं, मोक्ष की चिन्ता की बदौलत जीवन का आनन्द खो बैठोगे। इस विश्व के विविध विषयों का आस्वाद लेने के लिए तुम्हें इन्द्रियाँ दी गई हैं। लेकिन यदि तुम ‘जगन्मिथ्या’ मानकर इन्द्रियों को मारने का उद्योग करते रहोगे तो आत्मवंचना करोगे और आखिर तुम्हें पछताना पड़ेगा। पहले तो जो आँखों को साफ-साफ नजर आता है उस संसार को मिथ्या मानों और फिर जिसके आस्तित्व के विषय में बड़े बड़े दार्शनिक भी सशंक हैं, वैसी ‘आत्मा’ नामक किसी वस्तु की कल्पना करो, इसका क्या अर्थ हैं? वेदों ने भी कहा है, ‘कामस्तदग्रे समवर्तत’ -सृष्टि की उत्पत्ति काम से हुई और इसका अनुभव तो सभी को है। यदि दरअसल ईश्वर जैसी वस्तु हो तो भी कल यदि सभी लोग निष्काम होकर ब्रह्मचर्य का पालन करने लगें, तो जिस सृष्टि को उत्पन्न होने से बचाने के लिए यही परमेश्वर समय-समय पर अवतार धारण करता है उसका पूरा-पूरा विध्वंस हुए न रहेगा। ‘मोक्ष’ के माने अगर आत्यान्तिक सुख हो तो सरल भाषा में उसका अर्थ चिरन्तन कामोपभोग ही हो सकता है।

यह है काम की अपील।

सम्पूर्ण त्याग और सम्पूर्ण भोग, ये परस्पर विरोधी दो ध्रुव है। एक कहता है शरीर मिथ्या है दूसरा कहता है आत्मा झूठी है। दोनों को एक दूसरे की परवाह नहीं, दोनों पूरे स्वार्थी हैं। लेकिन आत्मा और शरीर दोनों का मिलन मनुष्य में हुआ है। इसलिए इस तरह दोनों पक्ष में अपने ही सगे-सम्बन्धी देखकर अर्जुन के लिए आत्म निर्णय कराना असम्भव हो गया उसी तरह कर्मयोग के धर्मक्षेत्र में अपने स्नेही-सम्बन्धियों को दोनों विषयों से संलग्न देखकर मनुष्य के किसी भी एक पक्ष के अनुकूल स्थायी और निश्चित निर्णय देना कठिन हो जाता है। मन की द्विधा स्थिति हो जाती है और एक मन शरीर का पक्ष लेता है, दूसरा आत्मा की हिमायत करता है। मनुष्य का जीवन अ-शरीर आत्मा और आत्महीन शरीर की संधि पर आश्रित है, इसलिए उसे शुद्ध आत्मवाद या मोक्ष-पूजा पचती नहीं, और शुद्ध जड़वाद या कामोपासना भी रुचती नहीं। इन दोनों मार्गों में अद्वैत कायम करना, या उनका सामंजस्य करना बड़े कौशल का काम है। यह कर्म करने की चतुराई या ‘कौशल’ ही जीवन का रहस्य है।


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