स्वास्थ्य की रक्षा कीजिए।

March 1953

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(श्री रामस्वरुप वर्मा, बी. ए. टेढ़ा)

दुर्बलता महान पातक है। कहावत है कि ‘दैवोऽपि दुर्बल घातकः’ अर्थात् दैव भी दुर्बल का काल होता है) भौतिक शास्त्र के अनुसार इस विश्व में निर्बल का जीवित रहना ही संभव नहीं है, विश्व का प्रत्येक प्राणी, अणु-परमाणु तक एक पारस्परिक विकास-साध्य संघर्ष में लीन दिखाई पड़ता है। जीवन की पुकार अनन्त भूमि तक गूँज रही है, जहाँ प्रतिद्वन्द्विता का अखाड़ा लगा हुआ है, जहाँ प्रत्येक प्राणी अपने विकास मार्ग को प्रशस्त करने के लिए, दूसरों के विनाश की किंचित मात्र भी चिन्ता न करता हुआ अपने साधन में तत्पर है, वहाँ यदि उपरोक्त सिद्धान्त (दैवोऽपि दुर्बल घातकः) चरितार्थ न हो तो और कहाँ होगा।

स्वास्थ्य सुखों का मूल है, अतएव सर्वोपरि है। जो व्यक्ति प्रकृति के क्रीड़ा से स्वस्थता का अभय वरदान लेकर उत्पन्न हुआ है वही वास्तव में सुखी है वही सर्व-श्री का अधिकारी है। रोगी जीवन मृत्यु से भी अधिक कष्टदायी है। वस्तुतः रुग्ण शरीर लेकर जीवित रहना नर्क की यातनाओं से भी अधिक है। वे व्यक्ति सचमुच भाग्यशाली हैं, जो स्वास्थ्य धन के स्वामी हैं। वही सचमुच जीवन का आनन्द उठा पाते हैं। एक अनुभूत कहावत है कि ‘स्वस्थ शरीर ही में स्वस्थ मन होता है।’ फिर भला अस्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन कैसे रह सकता है जब मन भी अस्वस्थ हो गया तो हम अपनी मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करते हुए जीवन सफल की कल्पना कैसे कर सकते हैं? अतएव हमें संसारी व्यक्ति होने के नाते सर्व-प्रथम स्वास्थ्य सम्पन्न बनना परमावश्यक है। शास्त्रों में भी शारीरिक -स्वास्थ्य द्वारा ही धर्मार्थ कार्य एवं मोक्ष का सिद्ध होना माना गया है।

“धर्मार्थ काम मोक्षाणाम् शरीरमेव साधनं”

अच्छे स्वास्थ्य का साधारण चिह्न यह है कि व्यक्ति अधिक आयु पा जाने पर भी कम आयु का प्रतीत हो। मुख पर बालकों का जैसा सलोनापन भोलापन एवं आकर्षण हो। आंखें स्वच्छ एवं आकर्षक हों तथा शारीरिक कान्ति एवं स्फूर्ति सर्वत्र व्याप्त हो।

अब हम विषय विस्तार को उचित न समझकर स्वस्थ रहने एवं स्वास्थ्य-प्राप्ति के साधारण अत्यन्त ही उपयोगी नियमों पर साधारण प्रकाश डालेंगे।

प्रकृति के अनुसार जीवन व्यतीत करना।

सूर्योदय के चार घड़ी पूर्व उठकर बैठ जाना और आधे घण्टे तक ईश्वर स्मरण करना।

ऊषा-पान।

नित्य कर्म से निवृत्त होना।

भ्रमण अथवा साधारण व्यायाम।

प्रभात रश्मि-स्नान।

अपने वैयक्तिक कार्य विवरण का निवारण करना तथा तद्नुसार कार्य-व्यस्त होना।

घर्षण-स्नान।

संतुलित भोजन।

सदाचार।

वीर्य-धारण।

मनुष्य अपने जीवन को जितना ही कृत्रिमता से दूर एवं प्रकृत्यानुकूल रखेगा उतना ही अधिक स्वस्थ रहेगा। प्राकृतिक आहार विहार ही दीर्घ जीवन की कुँजी है। स्वाद और सजावट में फंसकर मनुष्य ज्यों-ज्यों प्रकृति से दूर होता जाता है, त्यों-त्यों वह प्रकृति के सामुख्य में अपने शरीर को अशक्त बनाता जाता है। वर्तमान युग मनुष्य को जीवन की प्रतिकूल दिशा की ओर मोड़ रहा है। अतः स्वास्थ्य प्रेमियों को प्रकृति के अनुकूल ही अपने जीवन को बनाना चाहिए। इसके लिए आहार विहार तथा रहन-सहन पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

स्मरण रखिए प्रकृति की दया पर हमारा जीवन निर्भर है। उससे शत्रुता करके हमारा कल्याण भय से रिक्त नहीं है। प्रकृति अपने नियम की कठोर शासिका है। यह दूसरों से भी ऐसी ही आशा रखती है। अनियमित जीवन-यापन के परिणाम स्वरूप ही हम प्रायः रुग्ण हो जाते हैं। यदि हम अपना आहार-विहार ठीक रखें, प्रकृति के नियमों के अनुसार आचरण करें तो निस्संदेह निरोग दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकते हैं।


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