धन के प्रति गलत दृष्टिकोण

March 1953

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(श्री हरिनारायण मलतारें बी. ए., साहित्य-रत्न)

भ्रमवश हम रुपये पैसे को धन समझ बैठे, स्थावर सम्पत्ति का नाम करण, हमने धन के रूप में कर डाला, और हमारे जीवन का केन्द्र, बिन्दु आनन्द का स्त्रोत इस जड़ स्थावर जंगम के रूप में सामने आया। हमारा प्रवाह गलत मार्ग पर चल पड़ा।

क्या हमारे अमूल्य श्वांस प्रवास की कुछ क्रियाओं की तुलना या मूल्याँकन क्या त्रैलोक्य की सम्पूर्ण सम्पत्ति से की जा सकती है? करूं का सारा खजाना जीवन रूपी धन की चरण रज से भी अल्प क्यों न माना जाय? सच्चा धन हमारा स्वास्थ्य है विश्व की सम्पूर्ण उपलब्ध सामग्री का अस्तित्व जीवन धन की योग्य शक्ति पर अवलम्बित है। मानव अप्राप्त के लिए चिंतित तथा प्राप्त के प्रति उदासीन है, हमारे पास क्या है? इसके लिए वह सुख का श्वांस नहीं लेता, संतोष नहीं करता, वरन् क्या नहीं हैं इसके लिए वह चिंतित दुःखी व परेशान है। मानव स्वभाव की अनेक दुर्बलताओं में प्राप्त के प्रति असंतोषी रहना सहज ही स्वभाव जन्य पद्धति मानी गई -स्वयं का मूल्याँकन करने में।

मानव आदि काल से ही मस्तिष्क का दिवा लिया रहा। देखिये न, एक दिन हृष्ट-पुष्ट भिक्षुक, जिसका स्वस्थ शरीर सबल अभिव्यक्ति का प्रतीक था, एक गृहस्थ ज्ञानी के द्वार पर आकर अपनी दरिद्रता का, अपनी अपूर्णता का बड़े जोरदार शब्दों में वर्णन सुना रहा था, जिससे पता चलता था कि वह व्यक्ति महान निर्धन है, और इसके लिए वह विश्व निर्माता ईश्वर को अपराधी करार दे रहा था, अचानक ज्ञानी गृहस्थी ने कहा भाई हमें अपने छोटे भाई के हेतु आँख की पुतली की दरकार हैं। 100 रु. लेकर आप हमें देवें। भिक्षुक ने लपक से नकारात्मक उत्तर दिया कि वह दस हजार रुपये तक भी अपने इस बहुमूल्य शरीर के अवयवों को देने को तैयार नहीं। कुछ क्षण बाद पुनः ज्ञानी गृहस्थ ने कहा-मेरे पुत्र का मोटर दुर्घटना में बाँया पाँव टूट चुका है, अतः 21 हजार रु. आप नकद लेकर आज ही अस्पताल चलकर अपना पैर देवेंगे तो बड़ी कृपा होगी। इस प्रश्न पर वह भिक्षुक अत्यन्त ही क्रोधित मुद्रा में होकर बोला 20 हजार तो दर किनारे रहे, एक लाख क्या दस लाख तक मैं अपने बहुमूल्य अवयवों को नहीं देऊंगा और रुष्ट होकर जाने लगा। गम्भीरता के साथ ज्ञानी ने रोककर कहा-भाई तुम तो बड़े ही धनी हो जब तुम्हारे दो अवयवों का मूल्य लगभग 50 हजार रुपये का होता है, भला सम्पूर्ण देह का मूल्य तो अरबों रुपये तक होगा। तुम तो अपनी दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते हो, अरे लाखों को ठोकर मार रहे हो, अतः जीवन धन अमूल्य है।

हम अपना दृष्टिकोण ठीक बनावें। मिट्टी के ढेलों को जड़ वस्तु को धन की उपमा देकर उसकी रक्षा के लिए संतरी तैनात किए, विशाल तिजोरियों के अन्दर सुरक्षित किया। चोरों से, डाकुओं से किसी भी मूल्य पर हमने उसे बचाया, परन्तु प्रतिदिन नष्ट होने वाले प्रत्येक हमारी दैनिक, अशोच्य क्रियाओं द्वारा घुल घुलकर मिटने वाला यह जीवन दीप, बिना तेल के बुझ जायेगा। ‘निर्वाण दीपे किम् तैल्य दानम्’ फिर क्या होने वाला है। जबकि दीपक बुझ जाय, हमें आलस्य, अकर्मण्यता आदि स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली दैनिक क्रियाओं द्वारा इस जीवन धन की रक्षा करनी होगी। व्यसन, व्यभिचार, संयम हीनता, के डाकू कहीं लूट न लें। सतर्कता के साथ जागरुक रहना होगा। रुग्ण शैया पर पड़े रोम के अन्तिम सम्राट को राजवैद्य द्वारा अन्तिम निराशाजनक सूचना पाने पर कि वह केवल कुछ क्षणों के ही मेहमान हैं आस पास के मंत्रियों से साम्राज्ञी ने कई मिन्नतें कीं कि वे साम्राज्य के कोष का आधा भाग वैद्य के चरणों में भेंट करने को तैयार है अगर उन्हें वे दो घण्टे जीवित और रखें। उत्तर था- “त्रैलोक्य की सम्पूर्ण राज्य लक्ष्मी भी सम्राट को निश्चित क्षण से एक श्वांस प्रवास भी देने में असमर्थ है।” क्या हमारी आँखों के पर्दे ज्ञान की ज्योति जो बुझ चुकी है क्या उपरोक्त कथन से स्पष्ट नहीं होता है कि जीवन धन अमूल्य है बहुमूल्य है, तथा अखिल ब्रह्माण्ड की किसी भी वस्तु की तुलना में वह महान है?

अरे मानव! तू क्यों अपने को नहीं पहचान पाया। आदि काल से ‘जीवन धन’ तेरे को सरलता से मिला, भला बिया प्रयत्न किये, कठिनाई बिना मिलने वाली वस्तु का तू मूल्य आँक भी कैसे सकता है, और इसी कारण तू इसकी उपेक्षा करता रहा, लेकिन याद रख जब इस देह को आत्मा छोड़ेगी, तू अजीब प्राणी प्रेत नाम को ही सार्थक कर सकेगा। प्रेत के बनने के पूर्व इस देह से इस जीवन धन के मुकाबले में तू अमूल्य निधि क्यों नहीं प्राप्त करता? साधारण नमक तेल बेचने वाले व्यापारी भी अपनी वस्तु के क्रय-विक्रय के समय मूल्याँकन में, आदान-प्रदान में हानि नहीं उठाते। मूढ़ तू इससे भी गया बीता है। जीवन धन को देकर भी तू इसके बदले में दुनिया को प्रेत दे गया, सदेह स्वर्ग जाने के सिद्धाँत को तूने गलत सिद्ध कर दिया। पूर्वजों की अर्जित कीर्ति को तूने अपने कारनामों से कलंकित कर डाला।

गई सो गई इस क्षण से जीवन धन की रक्षा में तत्पर हो जा। तत्परता के लगने पर तू अपना जीवन सफल अवश्य बना सकेगा और सच्चे धन को प्राप्त कर सच्चे अर्थों में धनवान बन सकेगा।


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