व्यावहारिक अध्यात्मवाद

March 1953

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(श्री सत्यदेव ओझा, एम. ए. यिदनापुर)

हमें पग-पग पर सुख और दुःख की अनुभूति होती रहती है और हम ऐसा समझते हैं कि यदि अमुक्त -अमुक्त वस्तुएँ हमें मिल जायं तो हम बहुत ही संतुष्ट हो जायेंगे, परन्तु जैसे ही वह वस्तु हमें मिल जाती है, हम उसके सुख का अनुभव न कर उसकी रक्षा की चिन्ता में दुखी होने लगते हैं। यह डर बना रहता है कि कहीं वह चीच खो न जाय। इस प्रकार एक-न-एक भय आजीवन बना रहता है और साथ ही साथ एक-न-एक लोभ भी लगा ही रहता है। हम स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी-न-किसी के पास हाथ पसारा करते हैं। अपनी लोलूपता का प्रदर्शन करते हैं और जब कोई हमारी ओर पूरा-पूरा ध्यान नहीं देता, तो हमें ऐसा लगता है कि हमारी अवहेलना हो रही है, हमारी मानहानि हो रही है। हमें प्रशंसा की भूख रहती है। हमारे अन्दर लोभ और मोह व्याप्त रहते हैं। फल यह होता है कि जो शक्ति हमारे उद्धार के लिए मिली है, जो शक्ति हमें परमेश्वर-प्रदर्शन के लिए मिली है उसका दुरुपयोग होता है और हम दिन-रात इस शक्ति का अपव्यय कर अन्त में देखते हैं, तो हाथ कुछ नहीं आता। जैसे -जैसे हम वृद्धावस्था के निकट पहुँचते हैं, तो हमारे दोषों का बोझ बढ़ता जाता है और फल यहीं होता है कि हम अत्यन्त मानसिक उद्वेग का अनुभव करने लगते हैं।

शक्ति के अपव्यय से बचने का उपाय होना आवश्यक है। पहले तो हम यह समझें कि संसार की क्षुद्र बातों से ऊपर उठे बिना हमारा कल्याण नहीं। मानसिक कल्याण और बोध तभी प्राप्त हो सकता है जब हमारे अन्दर से विरक्ति की भावनाएँ उठें। हम ऊपरी रुप से साधु फकीर का वेश बनाये रह सकते हैं, परन्तु यदि भीतर से मन का सहयोग विरक्ति की ओर न हो, तो हमें बार-बार लोभ और मोह के झकोरों से अस्त-व्यस्त होना पड़ेगा और तब हम देखेंगे कि हमारे लिए सुख शान्ति नाम की कोई चीज नहीं। अतः भोगों से उपरामता प्राप्त करने के लिए अन्दर का मैल साफ कर लेना परमावश्यक है। ऐसा कर लेने से बाकी का काम आसान हो जायगा।

जब हमें अपनी मृत्यु का ध्यान बराबर बना रहेगा और हममें क्षणभंगुरता की याद ताजी बनी रहेगी तो हमसे धीरे-धीरे मोह-निशा दूर हटती जायगी, ज्ञान की प्राप्ति होगी। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा। हम जिस जगह पर हैं उसी जगह पर रहते हुए ऐसा कर सकते हैं। तब हम शारीरिक मृत्यु और आत्मा की अमरता का ध्यान बराबर बनाये रहेंगे, तो हमें घबराहट की ज्वाला में नहीं जलना पड़ेगा और हम भोगों की ज्वाला से भी अपने को बचा सकेंगे। जो हो, हमें निरन्तर आत्मा और शरीर को अलग-अलग देखते रहने का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार से सोचते रहने पर हममें ऐसी बाते अवश्य ही आ जायगी।

हमें संसार के कामों में लगे रहना चाहिए। हमारे जिम्मे जो भी काम आ जाएं, उन्हें सहर्ष करना चाहिये। यदि सभी लोग काम छोड़ना प्रारम्भ कर दें, तो फिर कैसे होगा। अतः हमें प्रवाह प्राप्त जो काम हैं, उन्हें तो करना ही है और जब वे काम करें तो ठीक से करें, परन्तु मन की चिन्तनधारा को सबल अन्तर्मुखी करते जाएं, ऐसा करते हुए हम बहुत कुछ आत्म कल्याण कर सकेंगे। काम करते हमारे अन्दर दोष भी प्रकट होंगे, तो हमें उनको सामने आने देना चाहिए तभी दूर हो सकेंगे।

अपनी शक्ति का सदुपयोग हो इसके लिए तटस्थ भाव से साँसारिक कर्मों के करने की चेष्टा करें। ऐसा यदि हम करें तो कर्म का बोझ हम पर नहीं पड़ेगा और हम संसार के होकर उसमें फंसने से बच जायेंगे। बिनोवा जी कहते हैं कि समुद्र के किनारे खड़े रह कर ही हम समुद्र की लहरों का दृश्य देख सकते हैं। जो व्यक्ति उन लहरों में डूब रहा है, वह उस दृश्य को किस भाँति देख सकेगा। उसी भाँति हमें भी अभ्यास और विरक्ति के द्वारा धीरे धीरे मन को शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। फलस्वरूप हम अपनी शक्ति का क्षय रोक सकेंगे। इसलिए अनुभवी संतों ने इस बात पर बार-बार जोर दिया है कि इस संसार को नश्वर समझो अपने शरीर को नश्वर समझो, अपनी मृत्यु को सदा सामने रखो, तब तुम निश्चिन्त भाव से काम कर सकोगे और संसार में फंसने से बच जाओगे।

हम जो प्रवाह-प्राप्त कर्म पायें उसमें अपना संतोष मानें और उसको ठीक-ठीक करने का अभ्यास करें, उसे करते हुए अपने अन्दर चिन्तन करते रहें और इस बात का ध्यान रखें कि हमारे चिन्तन में आध्यात्मिकता की बातें ही बार-बार आयें। यों तो मन बहुत ही चंचल है, यह हमें वहाँ से यहाँ उठाता-बैठता और फेंकता रहता है, अतः धीरे धीरे ही इसको वश में किया जा सकता है। अस्तु, हमें सतत इस ओर प्रवृत्त रहने की चेष्टा करनी चाहिए। यदि कोई चीज हमारे मन के अनुकूल न हो, तो हमें उस समय क्रोध अथवा क्षोभ दिखलाने की आवश्यकता नहीं। हम उन्हें रोकें और समझें कि दैनिक जीवन में सभी को इस प्रकार की आशा निराशा और सुख-दुःख का अनुभव करना पड़ना है। कोई भी इससे बचा नहीं रह सकता। इसलिए सुख-दुख में जीवन से ऊपर उठने की कला सीख लेनी आवश्यक हैं।

हमें जो भी प्राप्त है, उसमें सुख मानें और समझें कि भगवान की बहुत भारी दया है कि उसने मुझे इन वस्तुओं का अधिकारी बनाया। हम अपने से ऊपर वालों की ओर नहीं, नीचे वालों की ओर देखें, तब हमें आसानी से पता चलेगा कि हमसे भी कम सुविधा प्राप्त करके वे अपना जीवन यापन कर रहे हैं। हम तो उनसे अधिक भाग्यशाली हैं। परमेश्वर से यदि माँगना ही है तो यह माँगे कि हे भगवान्! हमें यह शक्ति दो कि हम सुख दुःख दोनों को धैर्यपूर्वक झेल सकें और जो कुछ हमें प्राप्त है, उसमें संतोष मानकर बढ़ते चलें। इस प्रकार शक्ति की याचना से हम आन्तरिक शान्ति प्राप्त करेंगे और उद्विग्नता से अपनी रक्षा कर सकेंगे।

यदि सभी प्रकार की योग्यता प्राप्त कर चुके और अपने को बहुत शक्तिशाली, पटु और योग्यता सम्पन्न समझने का अहंकार आ गया तो पुनः एक एक करके हमारे अन्दर दुर्गुण का प्रवेश होगा, हमारी शक्ति का क्षय होगा और हम सब अशान्त होने लगेंगे। इस प्रकार की परिस्थिति से अलग रहना और अपने भीतर नम्रता का विकास करना परमावश्यक है। ऐसा करने से हम अपने को अधिक शान्त रख सकेंगे, और सज्जनों के निकट बैठकर उनकी शिक्षा को आसानी से हृदयंगम कर सकेंगे। अतः नम्रता की प्राप्ति के बाद हम सुरक्षित रहने की कला अपने आप सीख लेंगे और अपनी शक्ति का संरक्षण करते हुए इस संसार-यात्रा को सानन्द तय कर सकेंगे। तब हमें दिन पर दिन अत्यधिक शान्ति और आनन्द का अनुभव होगा और यदि हमें घबराहट कभी उद्वेलित भी करेगी तो उस पर शीघ्र काबू पा सकेंगे।


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