प्राणायाम की आवश्यकता

March 1953

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(श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती)

भारत के सार्वजनिक जीवन में प्राणायाम का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मध्यान्ह और सायंकाल किसी भी ब्रह्मचारी और गृहस्थ को नित्य पूजन के समय संध्योपरान्त प्राणायाम करना पड़ता है। अतः यह कहा जा सकता है कि हिन्दुओं के सभी कार्यों का आरम्भ प्राणायाम के उपरान्त ही किया जाता है। आपने देखा होगा कि खाते पीते अथवा कुछ और कार्य करते समय भारतीय लोग तीन बार आचमन कर, पुनः संकल्प करते हुए, प्राणायाम का अभ्यास करते हैं। प्राणायाम को सब कार्यों से पहले करने से यह तात्पर्य है कि प्राणायाम करने से मन एकाग्र और विचारशील होकर कार्य परायण होगा, जिसके फलस्वरूप निर्धारित कार्य में सफलता मिलेगी।

प्राणायाम करने से सफलता क्यों मिलती है? किसी भी कार्य में एकाग्रता, तन्मयता, विचार परायणता निर्णय बुद्धि उस कार्य के साफल्य की जननी है और प्राणायाम इस सफलता के कारणों को प्रौढ़ तथा विकसित करने का साधन है। मन की एकाग्रता का सम्बंध केवल मस्तिष्क से ही नहीं होता, किंतु पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के संस्पर्श से भी एकाग्रता का परिचय मिलता है। एकाग्रता स्पर्श ज्ञान पर, अनुभूत ज्ञान पर, दृक्श्रुत तथा रसात्मक- ज्ञान पर, अपने ज्ञानतन्तुओं की विभिन्न रुपात्मकता का परिचय पाती है, जो सचमुच एक ही केन्द्र से परिवृत हैं। परन्तु ज्ञानेन्द्रियों के रूप गुणों के भेद-विपर्यय से तत्कथित अनुभवों के रूप गुणों में विकल्पाभास लाते दीखते हैं। वास्तव में, जो कुछ आप देखते हो वह उसी शक्ति का कार्य है, जो शक्ति आपके ही द्वारा सुनती या स्पर्श करती या रस का अनुभव करती है चूँकि इस एक ही शक्ति के बाहरी द्वार कई ओर से खुले हैं, अर्थात् बहिर्मुख हुए हैं। हमें ऐसा परिचय होता है कि हम देख रहे हैं या सुन रहे हैं अथवा स्पर्श कर रहे हैं और सोच रहे हैं।

परन्तु जैसा इनका बाहरी रूप है, वैसा ही अपूर्व इनका आन्तरिक स्वरूप भी है। ये ज्ञानेन्द्रियाँ जब अन्तर्मुख होती हैं तो इनमें बाहरी शक्ति परायणता का केन्द्रियकरण होता है। जिस प्रकार चार भाई अलग-अलग 1-1 लाख की सम्पत्ति का संचय कर केवल मात्र 1-1 लाख के ही अधिपति माने जाते हैं, उसी प्रकार हमारी इन्द्रियों और उनके कार्य भी अपने-अपने रूप गुणों के अनुकूल ही परिचित हुआ करते हैं। और जिस प्रकार वे चार भाई 1-1 लाख की सम्पत्ति को विदेश से लौटकर अपने सम्मिलित परिवार के अर्पण करते हैं, तो उनकी शक्ति 1-1 लाख में नहीं, अपितु 4 लाख में मानी जाती है और लोग कहते हैं कि उनके पास 4 लाख रुपया है, उस परिवार में 4 लाख रुपये हैं..., ठीक इसी प्रकार जब इन्द्रियों का अन्तर्मुख करण होता है, जब उनकी वृत्तियाँ बाहर की ओर जाने के स्थान पर अन्दर की ओर पलटी जाती हैं, तो उन इन्द्रियों के अधिष्ठानभूत मन की शक्ति प्रबल और सर्वगुण अनुभवात्मक हो जाती है। वह बिना कान के भी सुनता और बिना आँख के देखने की क्षमता रखता है, क्योंकि उसके तत्तद्गुणात्मक-उपकरण ने अपनी शक्ति उसी से केन्द्रित कर दी है। यही कारण है कि अन्धों की दृष्टि-शक्ति का केंद्रियकरण मन से होने के साथ, बौद्धिकता में विकास लाता है और वह अन्धा आँखों के न होने पर भी उसका ज्ञान अपनी मानसिक-परिचय शक्ति द्वारा उसी रूप में कर लेता है, और उसे वस्तु ज्ञान के लिए कभी-कभी स्पर्श की आवश्यकता भी नहीं रहती।

स्थूल जगत में जो जीवनी-शक्ति प्रत्येक वस्तु का परिचालन करती दीखती है और जो मानसिक जगत में विचरण करती है, उसी का नाम प्राण है। प्राणायाम के अर्थ होते हैं कि जो जीवनी शक्ति को नियमित, संचालित, यमित रखे। जो जीवनी-शक्ति निरंतरतः मनुष्य की स्नायुओं से निकला करती है, बहुमुखी होती है, केन्द्र से विकेन्द्रित होती है उसको अधिकार में लाने की जो क्रिया है, उसी का नाम प्राणायाम है। यही प्राणशक्ति भौतिक शरीर का भी परिचालन करती है और दृश्य रूप का अनुभव भी करती है। जिस अनुभव के बल पर प्रत्येक शरीर उन अनुभवों को स्वयं करता है और इसी पर आभ्यन्तरिक विचार भी अधिष्ठित हैं। यह शक्ति इस तरह की है कि हम इसे पाशविक शरीर का शक्ति सार कह सकते हैं। प्राणायाम द्वारा इसी शक्ति पर अधिकार करना योगियों का लक्ष्य होता है, जिसकी प्राप्ति किसी निश्चित अनुपात तक प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर होती है। जो इन शक्तियों को अपने अधिकार में कर लेता है, वह स्थूल और सूक्ष्म जगत् में अपनी स्थिति पर ही नहीं बल्कि अधिवैश्रुतिक स्थिति पर आधारित हुए जीवात्मक तत्व का अधिकार भी प्राप्त कर लेता है।

इस शक्ति द्वारा विश्व परिचालित होता है और किसी अवस्था में विश्व की नसों में प्रवाहित होने वाली नसों की परिचालिका शक्ति कोई और भिन्न नहीं है। इसलिए इसके द्वारा शरीर-विजय पाने का अर्थ होता है कि प्रकृति की शक्ति के ऊपर अधिकार करना अथवा भौतिक स्तर से ऊपर उठना।

हिन्दू दर्शनशास्त्र के विशेष अंगानुसार सारी प्रकृति दो मुख्य पदार्थों से बनी है, एक है आकाश और दूसरा है प्राण -अर्थात् परिचालक स्फुरण। यही आजकल के वैज्ञानिकों के मैटर और फोर्स होने चाहिए, क्योंकि इस विश्व में जिस किसी का आकार है, भौतिक-स्थिति है, वह सर्वव्यापक और अनन्त आकाश से ही उत्पन्न हुआ है। गैस, तरल तथा ठोस रूप में सारा विश्व, जिसमें सारा सौर जगत् तथा अन्य ऐसे ही असंख्य सौर जगत ही नहीं, अपितु सृष्टि-शब्द के अंतर्गत सब कुछ इसी सूक्ष्म और अव्यक्त आकाश से उत्पन्न हैं और अन्त में इसी आकाश में लीन हो जायगा।

इसी प्रकार प्रकृति की शक्ति जितने नामों से मनुष्य को ज्ञात है, जैसे गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश, तेज विद्युत, आकर्षण आदि जो कुछ भी उत्पादक शक्ति स्थूल सृष्टि, स्नायु-तरंगें, पाशविक बल, विचार तथा अन्य मानसिक शक्तियाँ, जो अधिक से अधिक मनुष्य द्वारा जानी गयी हैं, इसी विश्वप्राण के भिन्न भिन्न रूप हैं। किसी भी पदार्थ का पूर्ण ज्ञान होने से आपको विश्वस्तः यही पता चलेगा कि उस पदार्थ की सत्ता में से इस प्राण को घटा दिया जाय तो जो कुछ शेष रहेगा, वह उस पदार्थ का जीव हीन रूप ही रहेगा, जिसमें न रूप होगा, न गुण और न अन्य कुछ। अतः पदार्थ और उक्ति का संचय प्रकृति के दो मूल नियम हैं।

सृष्टि के अन्त में शक्ति के भिन्न-भिन्न रूप अव्यक्त हो जाते हैं। किन्तु नवीन सृष्टि उत्पन्न होते ही शक्ति का पुनः प्रस्फुरण होता है और आकाश में चालित होते ही पिघलाकर आकृतियों की सृष्टि होने लगती है जिस तरह आकाश के परिवर्तन होते ही, प्राण भी घटता और बढ़ता है। योगशास्त्र के अनुसार यह शरीर सूक्ष्म-जगत् है, जिसमें ज्ञानेन्द्रियाँ ही सूक्ष्म-आकाश और स्नायुमण्डल ही विचार-तरंग और स्फुरण ही प्राण है। अतः उनके परिचालन के रहस्य का ज्ञान और उनका नियन्त्रण ही विश्वविजय की प्राप्ति करना है।

ज्योतिषशास्त्र कहता है, प्रत्येक विशालतम ग्रह का मनुष्य के इस शरीर में तदात्मक स्थान है सूर्य, चन्द्रादि ग्रहों का प्रभावोत्पादक-दर्पण भी अपने सूक्ष्म अथवा शरीरात्मक रूप में विद्यमान रहता है और क्रमशः अथवा विधितया उन विशाल ग्रहों की क्रिया अथवा उनके पद-चिह्न भी मनुष्य के इस शरीर में प्रतिक्रियात्मक होते रहते हैं और उनकी प्रत्येक प्रगति हमारे जीवन के सुख और दुःख का निर्णय करती है। जिस प्रकार आधुनिक टेलीविजन यन्त्र द्वारा निश्चित अथवा निर्धारित अथवा इच्छित सम्भव दृश्य का आप दर्शन कर लेते हैं, अर्थात् जिस प्रकार टेलीविजन यन्त्र पर किसी दूर में होने वाले रूप की प्रतिक्रिया होती है, क्योंकि उस टेलीविजन यन्त्र में तत्तद्रुप रूपात्मक प्रभाव ग्राही तन्तुओं का समावेश किया है...ठीक उसी प्रकार आपके इस यन्त्र में भी दूर होने वाले कार्य की प्रगति का स्फुरण भी होता रहता है।

इससे यही अर्थ स्पष्ट हुआ कि हमारे शरीर में विश्व के विशाल कलेवर का व्यष्टि रूप है। यह अखिल-विश्व का एक नमूना है, जिसमें प्रत्येक कार्य विश्व विधान के अनुकूल ही होते आ रहे हैं और जिनका विशालतम रूप सृष्टि-क्रम है। जिस प्रकार मनुष्य जीवित होता, विकास को प्राप्त करता और पुनः अदृश्य हो जाता है उसी प्रकार उसके विशाल रूप अखिल-विश्व को जानो। जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड में यह सिद्ध है कि शक्ति ही सर्वव्यापक और नियन्ता है, उसी प्रकार हमारे शरीर में भी उसी शक्ति का तादात्म्यक रूप अथवा गुण अथवा प्रगति है। अतः तदनुसार ही उस शक्ति का नियंत्रण अथवा संचालन किया जाय, जो हमारे दैनिक जीवन को स्थिर रख सके, जो हमारे वैज्ञानिक जीवन, मनोवैज्ञानिक जीवन, आध्यात्मिक जीवन अतिचेतनात्मक जीवन तथा जीवन सम्बन्धी और सभी प्रगतियों में विषमता का परिहार कर, संतुलन का अवतरण करे।

इस तरह प्राणायाम, जिसके अर्थ हैं प्राण पर अधिकार करना (अतः उसका संचालन करना भी) वह साधन है (1) जिसके द्वारा साधारण मनुष्य इसी छोटे से शरीर में विश्व जीवन का अनुभव करता है और विश्व की सभी शक्तियों का परिचय पाता हुआ उन पर पूर्ण विजय का प्रयत्न करता है तथा, (2) योगी इस छोटे से मन में ही विश्वचेतना का अनुभव करता हुआ, विश्व की सभी चेतन शक्तियों को अधिकृत करता हुआ उन पर पूर्ण विजय का प्रयत्न करता है, (3) आज का वैज्ञानिक इसी छोटे से भौतिक-वर्ग में ही सभी शक्तियों को केन्द्रीभूत देख उन पर पूर्ण विजय कर, उनका उपयोग करता है तथा, (4) एक आध्यात्मिक साधक, इसी सत्संकल्पात्मक आत्म जगत में, विश्वजीवन की अनन्तसूत्रत्मिक-शृंखला के दर्शन करता हुआ, उनको अधिकृत कर, उनका सत्याधिकार धारण कर लेता है। इसी छोटे से शरीरात्मक स्थान पर ही यह विशाल प्रयत्न हो रहा है- (अ) भौतिक, (ब) मानसिक, (स) मनोवैज्ञानिक और (द) आध्यात्मिक

अतः विलम्ब की आवश्यकता नहीं विश्वास के लिए तर्क और विवाद उचित नहीं। प्रकृति के विशाल युगों का समय हमें अपने जीवन में संप्रवर्तित करना है तथा विचारशक्ति और क्रिया के बल शारीरिक साधना द्वारा शीघ्र ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति मनुष्य के जीवन में सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि मनुष्य प्राणायाम के द्वारा ही तो जीवित रहता हैं और इसी प्राणायाम के साधारण स्तर को विकास की और ले जाने से हम अवश्यमेव मनुष्य जीवन की अवधि को भी विकास के पद चिह्नों को अनुगामी बना सकते हैं। जिस प्रकार साधारण प्राणायाम करने से आप जीवन धारण करते हैं उसी प्रकार तदधिक प्राणायाम करने से आप चिरायु भी रह सकेंगे।


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