पवित्र जीवन की ओर

March 1953

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बसताँ ना पवित्रः सन् वाह्यतोऽभ्यन्तरस्तथा। यतः पवित्रतायाँ हि राजतेऽति प्रसन्नता॥

अर्थ- मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है।

पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता, शीलता, शान्ति निश्चिन्ता, प्रतिष्ठा और सफाई छिपी रहती है। कूड़ा करकट, मैल, विकार, पाप, गन्दगी, दुर्गन्ध, सड़न, अव्यवस्था एवं घिचपिच से मनुष्य की आन्तरिक निकृष्टता प्रतीत होती है। इस निकृष्टता से विरत करके महान पवित्रता में मनुष्य को संलग्न करना ही गायत्री के बारहवें अक्षर ‘दे’ का उद्देश्य है।

आलस्य और दरिद्र, पाप और पतन जहाँ रहते हैं वहीं मलीनता या गन्दगी का निवास रहता है, जो इस प्रकृति के हैं, उनके वस्त्र, घर, सामान, शरीर मन, व्यवहार, वचन, लेन देन, सब में गन्दगी और अव्यवस्था भरी रहती है। इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता, जागरुकता, सुरुचि, सात्विकता होगी वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जायगा। सफाई, सादगी एवं सुव्यवस्था में ही सौंदर्य है। इसी को पवित्रता कहते हैं।

गन्दे खाद से गुलाब से सुन्दर पुष्प पैदा होते हैं, जिसे मलीनता को साफ करने में हिचक न होगी वही सौंदर्य का सच्चा उपासक कहा जायगा। मलीनता से घृणा होनी चाहिये पर उसे घटाने या हटाने में रुचि होनी आवश्यक है। जो पवित्रता से प्रेम करता है उसे गन्दगी को हटाने में तत्परता प्रकट करके ही अपने प्रेम की परीक्षा देनी पड़ती है। आलसी लोग अक्सर फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर पर्दा डालते हैं।

पवित्रता एक अध्यात्मिक गुण है। आत्मा स्वभावतः पवित्र एवं सुन्दर है। इसलिए आत्म परायण व्यक्ति के विचार व्यवहार और पदार्थ भी सदा स्वच्छ एवं सुँदर रहते हैं। गन्दगी उसे आँखों देखी नहीं सुहाती गन्दगी में उसकी साँस घुटती है। इसलिए वह सफाई के लिए दूसरों का सहारा नहीं टटोलता। अपनी सभी वस्तुओं को स्वच्छ बनाने के लिए वह सबसे पहले, सब कामों को छोड़कर अवकाश निकालता है। क्योंकि वह भली प्रकार समझता है कि पवित्रता मानव जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता एवं प्रतिष्ठा है।

पवित्रता जीवन के सभी क्षेत्रों में आवश्यक है शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, व्यावहारिक आध्यात्मिक, पवित्रताएँ हर गायत्री उपासक के जीवन व्यवहार में ओत प्रोत होनी चाहिए। शरीर और वस्त्रों की सफाई के बिना शरीर का निरोग रहना कठिन है। विचार और भावनाएँ जब तक शुद्ध न हों तब तक किसी व्यक्ति की मानसिक अशांति तथा उद्विग्नता दूर नहीं हो सकती। आर्थिक पवित्रता का अर्थ है व्यवस्थित आजीविका तथा साफ लेन देन। जिसकी आजीविका की ठीक व्यवस्था न होगी तथा जो उधार के लेन देन में गन्दगी रखेगा, ऋण के फेर में पड़ेगा। उसकी आर्थिक गंदगी अनेक उलझनें तथा पेचीदगियां सामने उपस्थित करती रहेंगी। सामाजिक पवित्रता का तात्पर्य है- सामाजिक संगठन के नैतिक नियमों का पालन तथा पारस्परिक सहयोग के लिये उदारता पूर्ण व्यवहार। इस मार्ग पर चलने से मनुष्य जाति पारस्परिक कलह से बचकर सुख, शान्ति पूर्वक जीवन यापन कर सकती है। व्यावहारिक पवित्रता में शिष्टाचार, नम्रता, मधुर भाषण, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, परिश्रम शीलता, मितव्ययता, नियमितता, निरालस्य, कर्तव्य निष्ठा आती हैं। आध्यात्मिक पवित्रता में सचाई, संयम, आत्मनिष्ठा, त्याग, सेवा, सात्विकता तथा आस्तिकता का समावेश है। इन छहों पवित्रताओं की समुचित रक्षा, व्यवस्था एवं अभिवृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना गायत्री उपासक का परम पुनीत कर्त्तव्य है।

देवता स्वच्छता प्रेमी होते हैं और असुर मलीनता प्रेमी। जिस व्यक्ति का शरीर अशुद्ध रक्त से अशुद्ध मलों से भरा हुआ है, जो शरीरगत अशुद्धियों की भरमार में रोज ही बीमार पड़ता है, जिसके नाक, दाँत, मुख से दुर्गन्धि आती है, जिसके कपड़े गन्दे रहते हैं। व्यवहार का सामान, मकान आदि में अव्यवस्था एवं गन्दगी का साम्राज्य छाया रहता है उसे देवत्व से दूर, एवं असुरता के समीप ही समझना चाहिए। ऐसे लोग देवशक्तियों को न तो अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं न उनकी कृपा का लाभ उठा सकते हैं।

इसी प्रकार जिनके विचारों में, भावनाओं में, छल कपट, अहंकार, अपहरण, पाप, द्वेष, विषय विकार, क्रोध, लोभ, मोह, स्वार्थपरता आदि का साम्राज्य छाया हुआ है तब तक उनके मन में देवत्व का आविर्भाव होना किस प्रकार सम्भव हो सकता है? जिनकी आजीविका गन्दी हैं-जो रिश्वत खोरी, चोर बाजारी, बेईमानी, चोरी, दगाबाजी एवं अनीति से पैसा कमाते हैं, ऋण के अभ्यस्त हैं, देने और लेने में सफाई नहीं रखते, अपने वचन का जिन्हें ध्यान नहीं ऐसे लोग साधारणतः अर्थ चिन्ता से ऐसे मलिन रहते हैं कि देवत्व की उपासना के लिए उनकी सच्ची अभिरुचि ही उत्पन्न नहीं हो पाती। किसी देवी देवता से मुफ्त में माल झटक लेने के लिए पूजा पत्री का चालाकी भरा फंदा वे फेंकते हैं तो वह भी प्रायः सफल नहीं होता। क्योंकि आर्थिक पवित्रता से रहित, अर्थ सिद्धान्तों का स्वच्छता पूर्वक पालन न करने वाला मनुष्य अपनी अर्थ मलीनता के कारण सच्ची उपासना की स्थिति में ही नहीं होता। फिर उसकी उपासना सफल हो तो हो कैसे?

सामाजिक गन्दगी भी एक ऐसी असुरता है जिससे दैवीशक्तियाँ सदा रुष्ट और प्रतिकूल रहती हैं धार्मिक कानून, सामाजिक कानून, राजकीय कानून इसलिए बने हुए हैं कि उनका पालन करते हुए एक मनुष्य का स्वार्थ किसी दूसरे के स्वार्थ से न टकराये। चोरी, जुआ, व्यभिचार, कर्कशता, निष्ठुरता, अनुदाता, स्वार्थपरता, धूर्तता आदि के द्वारा दूसरों को कष्ट पहुँचाना ही उन कानूनों को तोड़ना है। इससे मनुष्य समाज में परस्पर दुर्भाव एवं द्वेष की वृद्धि होती है। इसलिए सामाजिक स्वच्छता उन बातों में मानी जाती है जिसमें मनुष्य स्वयं तो किसी को अनुचित हानि न पहुँचावे वरन् अपने लाभ एवं अधिकार को भी उदारता पूर्वक अपने से दुर्बलों के लिए दान कर दे। ऐसे सेवा भावी, संयमशील व्यक्ति ही धर्मात्मा, लोक सेवी या देशभक्त कहे जा सकते हैं। व्यावहारिक पवित्रता भी सामाजिक पवित्रता का ही एक अंग है। परिश्रम शीलता, निरालस्यता, शिष्टाचार, सद्व्यवहार, मितव्ययता, समय का सदुपयोग, कृतज्ञता, प्रत्युपकार तथा कर्त्तव्यनिष्ठा के सद्गुणों को अपनाने वाला व्यक्ति अपने तथा अपने निकटवर्ती लोगों की उन्नति, शान्ति, सुविधा एवं प्रसन्नता में सहज ही अभिवृद्धि कर सकता है। ऐसी सामाजिक एवं व्यावहारिक पवित्रता को अपनाने वाले मनुष्य सहज ही दैवी शक्तियों के कृपा पात्र बन सकते हैं।

आध्यात्मिक पवित्रता-सत्यनिष्ठा, प्राणिमात्र के प्रति आत्मीयता, सद्भावना, सात्विकता और दिव्य विचार, गुण, स्वभाव, एवं कार्यों में अगाध निष्ठा को कहते हैं। जिसका आत्मा इनके विपरीत तत्वों से आच्छादित है उसे अनात्मवादी असुर ही कहा जायगा चाहे वह रावण की तरह पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन करने वाला ही क्यों न हो। रावण अपनी असुरता के कारण जीवन भर दिव्यसत्ता का प्रिय पात्र न बन सका उसके विपरीत शबरी, निषाद, सुदामा, विदुर, नरसी, रैदास आदि साधारण योग्यता के व्यक्ति अपनी आत्मिक पवित्रता के कारण धन्य हो गये।

सर्वांगीण पवित्रता, जीवन को सुख शान्तिमय बनाने की सीधी पगडण्डी है। देवता की पूजा प्रतिष्ठा के लिए स्थान शुद्धि की आवश्यकता होती है गायत्री दैवीसत्ता को जो मनुष्य अपने अंदर प्रतिष्ठापित करना चाहते हैं उनके लिए यह आवश्यक है कि सब ओर से सफाई कर डालें। कूड़े कचरे को झाड़ बुहार कर बाहर फेंक दें। बुरे विचार, बुरे गुण, बुरे स्वभाव, बुरे कार्य इनकी जो आदतें पड़ गई हैं उनको हटाना चाहिये। इन गन्दगी के हटने पर ही वह स्वच्छता हो सकेगी जिस पर दैवी तत्वों की स्थापना होती है। गायत्री महान शक्ति शाली है, उसकी आराधना से सब कुछ मिल सकता है, लोक और परलोक में सब प्रकार आनन्ददायक परिस्थिति प्राप्त हो सकती है, पर वह सब सम्भव तभी है जब माता की आज्ञाओं और शिक्षाओं पर भी ध्यान दें। उनके आदेशों को पालन करके जो लोग अपने आपको सच्चा मातृभक्त सिद्ध करते हैं वे ही उसकी गोदी में चढ़ने का, पयपान करने का तथा अंचल की शीतल छाया का सुख लाभ करते हैं। माता के आदेशों का हर घड़ी तिरस्कार करने वाले लोग केवल चन्द मिनट पूजा पाठ करके अभीष्ट लाभ प्राप्त करना चाहें तो यह कठिन ही है।

गायत्री महामंत्र का बारहवां अक्षर ‘दे’ यही आदेश देता है कि हम भीतर और बाहर से सब प्रकार पवित्र बनें। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व्यावहारिक, आर्थिक और आध्यात्मिक पवित्रता की रक्षा करने और बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहें। इस आदेश को शिरोधार्य करने वाला साधक अपनी साधना का फल तत्काल प्राप्त करता है। इस नीति, एवं कार्य पद्धति को अपनाते ही उसकी अनेकों उलझनें सुलझ जाती हैं और तत्काल अभीष्ट शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।


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