मनःसंयम के सिद्धान्त

September 1952

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री स्वामी शिवानन्द जी, सरस्वती)

आपको अपने दोष जानने के लिये अन्तर्मुखी वृत्ति और सूक्ष्म बुद्धि रखनी चाहिये। शान्तिपूर्वक सुनसान कमरे में आँख मींचकर बैठ जाओ और मन की क्रियाओं को देखते रहो। अपने दोषों को दूर करने का ठीक उपाय जानना चाहिये। सदा मन को काम में लगाये रहिये। बराबर साधन करते रहिये। समय-समय पर जैसे सप्ताह में एक बार या महीने में एक बार अपनी उन्नति देखते रहना चाहिए और इसका ब्यौरा रखिये। यदि एक उपाय सरल नहीं हो तो दो उपायों को मिलाकर काम में लाना होगा।

सन्तोष, लगन, श्रद्धा, दृढ़ निश्चय की साधना में आवश्यकता होती है। इन सद्गुणों को पैदा करके बढ़ाना होगा। तभी सफलता हो सकती है। मार्ग में जो-जो कठिनाइयाँ आ जाती हैं उन्हें देखिये। इसलिये आध्यात्मिक मार्ग कठिन है। हजारों मनुष्यों में से एक ही इस मार्ग का अनुकरण करता है। यत्न करने वालों में बहुत कम ही सफल होते हैं। बहुत से मनुष्य आधे मार्ग में ही साधन छोड़ देते हैं क्योंकि आगे चलना उन्हें कठिन मालूम होता है। धैर्य और उत्साह युक्त साधक ही सच्चिदानन्द अवस्था को प्राप्त करते हैं, ऐसी आत्माओं को धन्य है।

जो काम नहीं पसन्द करता उसके करने की आज्ञा मन को दी जावे तो विद्रोह करने लगता है। प्यार से बहलाकर यदि समझाया जाय तो यह फौरन मान लेता है।

मन के साथ खींचातानी मत करो। इससे शक्ति क्षीण होती है। सत्य में रहो। विचार, ब्रह्म भावना और निदिध्यासन के द्वारा आत्मा में रहो। सारी बाधाएँ स्वयं ही नष्ट हो जावेंगी। विचार-उपाय की उपयोगिता इसके अभ्यास द्वारा समझ लो।

अपने मन और इन्द्रियों पर विश्वास मत करो। स्वयं अपने अंतर्जगत में खूब छान-बीन करो। स्त्री और धन आपके शत्रु हैं। ध्यान से देखो कि आप अध्यात्म मार्ग में उन्नति कर रहे हो, जहाँ थे वहाँ ही हो या पीछे हट रहे हो, आपका मन एकाग्र है या व्यस्त है। यदि मन में व्यग्रता है तो धैर्यपूर्वक उपयुक्त प्रयत्नों से इस व्यग्रता के कारणों को एक-एक करके दूर करना होगा।

जब कभी आपको बड़ी चिन्ता हो, मन में गिरावट हो, बड़ा दुःख हो तो विचार करो कि आप आनन्द के भण्डार आत्म स्वरूप हो। मन को संसारी वस्तुओं और विचारों से हटाकर आत्मा पर लगा दो। एकान्त स्थान में जाकर कहो ‘मैं आनन्दमय आत्मा हूँ। मुझे दुःख कैसे हो सकता है। दुःख तो मन का लक्षण है। मैं तो मन से ऊपर हूँ। आत्मा, आनन्द, शक्ति और ज्ञान का भण्डार है। मैं अनुभव करता हूँ कि मैं शुद्ध चैतन्य, व्यापक चेतना हूँ जो इन सब रूपों के पीछे छिपी हुई हैं। मैं आत्मा हूँ। मैं आनन्द ही आनन्द हूँ।’ इस अभ्यास से आपको असीम आनन्द और बल प्राप्त होगा।

मन के स्वभाव को देखो इसका विश्लेषण करो। मन के तीनों दोष मल, विक्षेप और आवरण को दूर हटाओ। मन को पवित्र बनाकर स्थिर करो। इसे ईश्वर पर लगा दो। निरन्तर तीव्र विचार के अभ्यास से मन को ईश्वर में भुला दो। मनोनाश के साधन का अभ्यास करो। मन के भुलावे और लालच से ऊंचे उठ जाओ। यह आपका धर्म है। आपका जन्म ही इसके लिये हुआ है। और सारे धर्म तो अविद्या के कारण आपने स्वयं ही अपने ऊपर डाल लिये हैं।

तृष्णा को सन्तोष, उदासीनता और दान के द्वारा नाश करो। आशाएँ मत बनाओ। आपको कभी खेद नहीं होगा। मोक्ष राज्य के चार पहरेदारों में से एक सन्तोष है। सन्तोषी मन सदा तृप्त रहता है। यदि आपको सन्तोष होगा तो दूसरे तीन पहरेदार भी आपकी सहायता करेंगे। इन चारों की सहायता से आप ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकते हो।

इन तीन शब्दों को याद रखो :—

(1)पवित्र करना (2) एकाग्र करना और (3) मग्न कर देना-काम और क्रोधादि मलों से मन को शुद्ध कर लो। इच्छा रहित निःस्वार्थ बुद्धि से कर्म करो। इससे मन निर्मल हो जायगा। उपासना, प्राणायाम, त्राटक और चित्त वृत्ति-निरोध का अभ्यास करो। इससे मन को एकाग्र करने में सहायता मिलेगी। फिर निरन्तर गम्भीर ध्यान का अभ्यास करो। आखिर में मन मग्न हो जावेगा।

जल में शीतलता, अग्नि में तेज और वायु में गति किसने प्रदान की। यह इनके स्वभाव हैं। ऐसे ही मन का स्वभाव है वस्तुओं की ओर दौड़ना, बुद्धि का स्वभाव निश्चय करना, अहंकार का स्वभाव आत्मसंवेदन, चित्त का स्वभाव स्मृति है। जब आप अपनी छाया पर मिट्टी डालकर उसे दबाना चाहते हो तो छाया हमेशा ऊपर ही रहती है। इसी प्रकार जब आप संकल्पों को विवेक वृत्ति से नाश करने का यत्न करते हो तो वे बार-बार प्रकट हो जाते हैं। मन को वस्तुओं की ओर से हटा लो और अपने गुरु के वचनों के अनुसार चलो। मन को शुद्ध करके चिदाकाश में स्थिर करो। समय पाकर मन का क्षय हो जावेगा इसमें सन्देह नहीं है।

मोक्ष का अर्थ यह नहीं है कि समस्त संसारी कार्यों से भौतिक वियोग कर लिया जावे किन्तु इसका अर्थ ऐसी मानसिक स्थिति है जो सारी मलिन वासनाओं से राहत होकर संसारी वस्तुओं में सामान्य रूप से कार्य करता रहे। संसार में रहते हुये संसार के द्वारा ही ईश्वर प्राप्ति करनी चाहिये। गीता और योग वशिष्ठ का मुख्य उपदेश यही है।

मन की रुचि जिस वस्तु में विशेष हो उसे ही त्यागना चाहिये। यदि आप बैंगन या सेब ज्यादा पसन्द करते हैं तो पहले उनको ही छोड़ दो। आपको बहुत शान्ति, इच्छाशक्ति और मन का निग्रह प्राप्त होगा।

मन के सारे सुख केन्द्र नष्ट कर दो जैसे स्वादु वस्तुओं का बार-बार भोजन, ज्यादा गप-शप करना, सैर करना, गाना सुनना और स्त्रियों की संगति में रहना-इन सबको धीरे-धीरे सावधानी से छोड़ते चले जाओ, केवल तीन सात्विक सुख-केन्द्र बचाये रखो—आत्म ज्ञान सम्बन्धी पुस्तकों का स्वाध्याय, ध्यान और मनुष्य जाति की सेवा। जब ध्यान में उन्नति हो जाय तो सेवा और स्वाध्याय को भी कुछ काल के लिये छोड़ दो। जब निर्विकल्प अवस्था में पहुँच जाओ तो गीता का ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ करो अर्थात् दिव्य ज्ञान का उपदेश करो इसी का प्रचार करो और उसके लिये ही कार्य करो।

मन जिस काम को करना नहीं चाहता वही करो। मन जिस काम को करना चाहता हो उसे नहीं करो। मन के निग्रह और इच्छाशक्ति को बढ़ाने का एक उपाय यह है।

गौएँ अनेक रंग, शक्ल-सूरत की होती हैं परन्तु दूध वैसा ही होता है। यदि रीति, आचार, वेशभूषा और भोजन के भेद को निकाल दिया जाय तो संसार में सारे मनुष्य समान हैं। उसके भाव और भावनाएँ संसार भर में समान ही होती हैं। अनेकों देशों में भाषा की भिन्नता होती है परन्तु इन भाषाओं के पीछे छिपा हुआ विचार एक ही समान होती है। यदि भिन्नता, द्वैत और अनेकता में एकत्व है। निद्रा में एक रस होता है जिसका अनुभव सब समान रूप से करते हैं। निद्रा में नाना भाव नहीं होता। इसी प्रकार पदार्थों के पीछे भी एक ही सजातीय तत्व-आत्मा या ब्रह्म है यही आपका सच्चा स्वरूप है।

संसार की किसी वस्तु में भी सुख नहीं है। यह अज्ञान का विचार है कि हमको विषय पदार्थों से अथवा मन से सुख प्राप्त होता है। जब कभी हमें वासना तृप्ति का अनुभव होता है तो हम देखते हैं कि मन अपने अधिष्ठान आत्मा में लौट जाता है और आत्म सुख का आनन्द लेता है। इष्ट वस्तु की प्राप्ति करके मन अन्तर्मुख हो जाता है और आत्मानन्द प्राप्त कर लेता है।

अनेक प्रकार के घृणा और वैरभाव से दोष निकालना, चिढ़ाना, निरादर करना, असंगत आलोचना, बुरा बताना, झूठे किस्से फैलाना, पीछे निन्दा करना, छोटे से दोष को भी बहुत बढ़ा करके बताना और शिकायत करना—ये सब बातें निकलने लगती हैं। इसी से मनुष्य के मन की तुच्छता का पता लगता है। इन बातों को दूर कर देना चाहिये।

सदा प्रसन्न रहो। हँसते और मुस्कराते रहो। उदास मन ईश्वर का विचार ही कैसे कर सकता है। आपका स्वभाव ही प्रसन्नता है। इसे अनवसाद कहते है। सब साधकों को यह प्रसन्नता का स्वभाव बना लेना चाहिये।

मन में हर्ष का अतिरेक मत होने दो। जैसा पहले बता चुके हैं मन सदा सीमा का उल्लंघन करता है यह तो असीम उदासी या असीम प्रसन्नता ग्रहण करता है। ज्यादा खुशी में मन कभी शान्त नहीं हो सकता। मन को प्रसन्न और शान्त रहने दो। हर्ष और शोक के अतिरेक से ठेस लगने पर मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।

गुरु वस्तुतः अपनी आध्यात्मिक शक्ति शिष्य को प्रदान करता है। एक विशेष आध्यात्मिक स्पन्दन गुरु की ओर से शिष्य के मन की ओर जाता है। श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति यथार्थ में स्वामी विवेकानन्द को दे दी थी। ईसामसीह ने भी अपने शिष्यों के साथ ऐसा ही किया था। समर्थ रामदास ने एक वेश्या पुत्री को जो उन पर मोहित हो रही थी इसी प्रकार शक्ति प्रदान की थी। उस पर दृष्टि जमा कर समाधि प्राप्त करा दी। उसकी कामवासना जाती रही। वह बहुत धार्मिक बन गई। एक महाराष्ट्र सन्त मुकुन्दराय ने बादशाह को समाधि प्राप्त करा दी थी।

बाह्य पदार्थों से मिलने वाला सुख क्षणभंगुर होता है। यह केवल नाड़ी संचालन और मानसिक भ्रम होता है। शरीर दुःख और रोग का स्थान है। धन उपार्जन करने और उसकी रक्षा करने में बड़ा कष्ट होता है। प्रत्येक संसर्ग से दुःख निकलता है। स्त्रियाँ निरन्तर चिन्ता देने वाली होती हैं। खेद है फिर भी मनुष्य आध्यात्मिक आनन्द-पथ को छोड़ कर संसार के दुःख-पथ पर जाना पसन्द करते हैं।

आप चाहे जिस योगमार्ग का अभ्यास करो आपको राग, द्वेष, अहंकारादि से रहित इंद्रिय-दमन करना चाहिये। चित्त शुद्धि और यम-नियम का पालन सारे योगों में समान रूप से आवश्यक है। कर्मयोग में मनुष्य क्या कर सकता है? यदि उसको आत्मसंयम नहीं है और वह अत्यन्त स्वार्थी है। यदि आप हर एक चीज अपने ही वास्ते चाहते हो तो आप दूसरों के लिए कोई चीज कैसे त्याग कर सकते हो। आप विश्व के साथ प्रेम, निःस्वार्थ सेवा और दान के द्वारा ही मिल सकते हो।

सच्चा त्याग मन के संयम में है। इसमें सारी कामनाओं और अहंकार का त्याग करना होता है संसार की सत्ता का नहीं। तब जीवन में अमृतत्व या अहंकार से रहित ब्रह्म में सबकी एकता पर स्थिर जीवन का असीम आनन्द प्राप्त होगा। केवल चित्त त्याग ही सबका त्याग कहलाता है। मन ही सब कुछ है और इसके संयम से सबका त्याग हो जाता है। इस प्रकार के मानसिक त्याग के द्वारा आप सारे दुःखों से मुक्त हो जाओगे।

संन्यास केवल मानसिक दशा है। वास्तव में तो मन को गेरुआ रंगने की आवश्यकता है, कपड़ों को नहीं। जो अहंकार और वासनाओं से रहित है जिसमें सारे सात्विक सद्गुण हैं वह यद्यपि संसार में परिवार के साथ भी रहता है तो भी वह सच्चा संन्यासी है। रानी चूणाला एक संन्यासिनी रानी थी यद्यपि वह राज्य का कार्य-भार सम्भालती थी। जो संन्यासी जंगल में रह कर भी वासनाओं से भरा हुआ है वह गृहस्थी और संसारी मूर्ख से भी गया बीता है। चाहे शिखिध्वज बरसों तक जंगल में नंगा रहता रहे तो भी वह संसारी ही बना रहेगा। बहुत से मनुष्यों ने सच्चे त्याग का मतलब नहीं समझा है। सारी वासनाओं अहंकार और काम का त्याग ही सच्चा त्याग है। यदि आपका मन निर्मल है आशक्ति, वासना और अहंकार से रहित है तो चाहे आप जंगल में रहें या शहर में, श्वेत वस्त्र पहनें या गेरुआ, सिर मुंड़वा लें या जटा बढ़ा लें आप संन्यासी ही हो।

मन की शुद्धि तब होगी जब सारी कामनाओं से हीन होकर सुख और दुःख में उदासीन रहें और कोई वस्तु इसको आकृष्ट न कर सके तब ही यह माया के फन्दे से दूर हो जायेगा। जैसे पिंजरे से निकला हुआ पक्षी जो इच्छानुसार आकाश में घूमता है। जब मन में वैराग्य उत्पन्न होता है तो ईश्वरीय ज्ञान के लिये द्वार खुल जाता है।

संसारी वस्तुओं के भोग से सच्ची स्थायी तृप्ति नहीं मिलती। यह जानकर भी कि संसारी पदार्थ अनित्य हैं और संसार दुःखपूर्ण है मनुष्य संसारी पदार्थों की ओर ही दौड़ते हैं। यही माया है। जब मन आत्मा में स्थिर हो जायगा तब ही नित्य तृप्ति मिलेगी क्योंकि आत्मा परिपूर्ण है। आत्मा में आपको सब कुछ मिल जाता है, आत्म साक्षात्कार से सारी इच्छाएँ तृप्त हो जाती हैं।

इस विद्रोही मन के निग्रह के सिवाय इस संसार में और कोई नौका नहीं है जिसके द्वारा जन्म-मरण के सागर को पार किया जा सके। जिन्होंने वासनाओं और कामनाओं से पूर्ण, मनरूपी सर्प का निग्रह कर लिया है केवल वही मोक्ष प्राप्त करेंगे।

विवेक की बुद्धि करके एकाग्र मन के द्वारा चंचल मन के भ्रमजाल का नाश कर दो जैसे लोहे से लोहा काटा जाता है। बुद्धिमान पुरुष मैले वस्त्र को मिट्टी से ही साफ करता है। घातक अग्नि अस्त्र का प्रति-घात वरुणास्त्र से होता है। सर्पदंश का विष दूसरे विष के इन्जेक्शन से ही दूर होता है। यही बात जीव के लिये भी सत्य है।

जो आपको ईश्वर से जुदा करता है वह मन है। इसको ॐकार चिन्तन या भक्ति के द्वारा हटा दो तो आपको ईश्वर का दर्शन हो जायगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118