बोलचाल में इन बातों का ध्यान रखिए।

September 1952

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(पं. माधव राव सप्रे, बी. ए.)

सम्भाषण में सबसे बड़ा अवगुण पर-निन्दा करना है। परनिन्दक मनुष्यों की दशा ठीक उस पागल मनुष्य की तरह होती है जिसके हाथ में एक तलवार दे दी जाती है और जो किसी भी मनुष्य को मारने में नहीं हिचकता। निन्दा करने वाले प्रत्येक मनुष्य में कुछ भी नैतिक साहस नहीं रहता। वह प्रत्यक्ष में कुछ कहने की हिम्मत नहीं रखता। वह उस कायर शत्रु के समान है जो छिपकर वार करना चाहता है। सिवा इसके दूसरों की निन्दा करने में यह भी एक नुकसान है कि वह मनुष्य, जिसकी निन्दा की जाती है अपना दुश्मन बन बैठता है। जो मनुष्य यह समझते है कि हम जब दूसरों की जब निन्दा किया करते हैं तब वह बात उसके कानों तक नहीं पहुँचती, वे बड़े मूर्ख हैं। ऐसा होना असम्भव है। दूसरों की तुम हजार तारीफ करो, परन्तु यह बात उसके कानों तक नहीं पहुँचेगी, परन्तु जब तुमने किसी की निन्दा की तब याद रखो यह बात उसे हवा के द्वारा मालूम हो जायगी। इस तरह से जिन-जिन मनुष्यों की निन्दा की जाती है वे सब दुश्मन बन जाते हैं और अन्त में निन्दा करने वाले मनुष्य की दशा ठीक वैसी ही हो जाती है जैसी कि किसी फुटबाल की जो कि एक जगह से लात खाकर दूसरी, और दूसरी से तीसरी जगह चली जाती है। इसलिए पर-अवगुण-अन्वेषण करते रहने और दूसरों को तीर के समान तीखी बातों के मारने से चुप रहना अच्छा है। जहाँ तक हो सके मुँह की अपेक्षा, आँखों से, अधिक काम लेना चाहिए।

समयानुकूल बात करना और सम्भाषण चातुरी का होना भी परमावश्यक है। जो काम अधिक द्रव्य से या शक्ति प्रयोग से भी नहीं हो सकता, वह काम मौके की बात कहने से सहज ही में हो जाता है। पाठकों को मालूम होगा कि अकबर का मन्त्री बीरबल अपनी सभा चातुरी के कारण कैसे-कैसे अनहोने तथा कष्टसाध्य कामों को क्षणभर में कर सकता था।

(1) जिस तरह से तुम अच्छी किताबों को केवल अपने लाभ के लिए चुनते हो उसी तरह से साथी या समाज भी ऐसा चुनो जिससे कि तुम्हें कुछ लाभ हो। सबसे अच्छी किताब और अच्छा मित्र वही है कि जिससे अपना किसी तरह से सुधार हो अथवा आनन्द की वृद्धि हो। यदि उन साथियों से तुम्हें कुछ लाभ नहीं हो सकता तो तुम उनके आनन्द और सुधार की वृद्धि करने का प्रयत्न करो। और यदि उन साथियों से तुम कुछ लाभ नहीं उठा सकते या उनको तुम स्वयं कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकते तो तुम तुरन्त उनका साथ छोड़ दो।

(2) अपने साथियों के स्वभाव का पूरा ज्ञान प्राप्त करो। यदि वे तुम से बड़े हैं तो तुम उनसे कुछ न कुछ पूछो और वे जो कुछ कहें उसे ध्यानपूर्वक सुनो। यदि छोटे हैं तो तुम उनको कुछ लाभ पहुँचाओ।

(3) जब परस्पर की बातचीत नीरस हो रही हो तो तुम कोई ऐसा विषय छेड़ दो जिस पर सभी कुछ न कुछ बोल सकें और जिससे सभी मनुष्यों की आनन्द वृद्धि हो। परन्तु तब तक ऐसा करने के अधिकारी नहीं हो जब तक तुमने नया विषय आरम्भ करने के पहले कुछ न कुछ नए विषय का ज्ञान न प्राप्त कर लिया हो।

(4) जब कुछ नयी महत्वपूर्ण अथवा शिक्षाप्रद बात कही जाय तब उसे अपनी नोटबुक में दर्ज कर लो उसका सार अंश रखो और कूड़ा कचरा फेंक दो।

(5) तुम किसी भी समाज में अथवा साथियों के संग आते-जाते समय पूरे मौनव्रती मत बनो। दूसरों को खुश करने का और उनको शिक्षा देने का प्रयत्न अवश्य करो। बहुत सम्भव है कि तुमको भी बदले में कुछ आनन्दवर्धक अथवा शिक्षाप्रद सामग्री अवश्य मिल जायगी। जब कोई कुछ बोलता हो तो तुम आवश्यकता पड़ने पर भले ही चुप रहा करो परन्तु जब सब लोग चुप हो जाते हैं तब तुम सबों की शून्यता को भंग करो। सब तुम्हारे कृतज्ञ होंगे।

(6) किसी बात का निर्णय जल्दी में मत करो, पहले उसके दोनों पक्षों का मनन कर लो। किसी भी बात को बार-बार मत कहो।

(7) इस बात को अच्छी तरह से याद रक्खो कि तुम दूसरों की त्रुटियों-दोषों को जिस दृष्टि से देखते हो वे भी उसको उसी दृष्टि से नहीं देखते। इसलिए समाज के सम्मुख किसी मनुष्य के दोषों पर स्वतन्त्रतापूर्ण आक्षेप, कटाक्ष अथवा टीका-टिप्पणी करने का तुमको सदैव अधिकार नहीं है।

(8) यदि अहंकारपूर्ण, आत्मप्रशंसक अथवा शेखचिल्ली मनुष्यों से काम पड़ जाय तो उनको तुम कुछ कड़े शब्दों में समझा सकते हो। इससे यदि वे न मानें तो चुप रहो। यदि इसका भी कुछ असर न हो तो उनसे दूर हट जाओ।

(9) बातचीत करते समय अपनी बुद्धिमत्ता दिखाने का व्यर्थ प्रयत्न मत करो। यदि तुम बुद्धिमान् हो तो तुम्हारी, बातों से मालूम हो सकता है। यदि तुम प्रयत्न करके हमेशा अपनी बुद्धिमानी प्रकट करना चाहोगे तो सम्भवतः तुम्हारी बुद्धिहीनता अधिकाधिक प्रकट होती जायगी।

(10) किसी की बात यदि तुम्हें अपमानजनक या किसी तरह से गुस्ताखी की मालूम हो तो भी कुछ देर तक चुप रहने का प्रयत्न करो। ऐसा भी हो सकता है कि वह बात तुम्हारे स्वभाव के कारण तुम्हें खराब मालूम हो, परन्तु सब लोगों को अच्छी मालूम हो। और यदि बात ऐसी ही हुई तो तुम्हें कुछ देर तक चुप रहने के लिए कभी भी पछताना नहीं पड़ेगा, बल्कि तुम धैर्य का एक नया पाठ सीखते जाओगे।

(11) तुम स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक तथा सरलतापूर्वक बातचीत करो और दूसरों को भी ऐसा ही करने दो। अमूल्य शिक्षा को अल्प समय में प्राप्त करने का इससे बढ़कर साधन संसार में नहीं है।

(12) बातचीत करने का सबसे अधिक महत्वपूर्ण नियम यह है कि सदैव बोलने का प्रयत्न करो और जो कुछ बोलो उसे शान्त और नम्रता के साथ। मृदु भाषण में जादू की शक्ति होती है।

अब हम अपने प्रिय पाठकों को उसी कही हुई बात को एक बार फिर भी बतला देना चाहते हैं, कि सम्भाषण-शक्ति ईश्वर की एक अमूल्य देन है, जिसका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करने के अधिकारी और जिम्मेदार हमीं हैं। इसी शक्ति के सदुपयोग से हमारे जीवन की आँशिक सार्थकता है। अतएव हमें सदैव इस शक्ति को स्वस्थ तथा मार्जित अवस्था में रखने का प्रयत्न करना चाहिये।


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