गायत्री उपनिषद्

September 1952

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(गताँक से आगे)

किसी मनुष्य पर परमात्मा की कृपा है या नहीं, इसकी पहिचान करनी हो तो वह इस प्रकार हो सकती है कि वह मनुष्य उत्साहपूर्वक, तन्मयतापूर्वक श्रम, जागरुकता और रुचि के साथ काम करता है या नहीं। जिनका स्वभाव इस प्रकार का है, समझना चाहिए कि इनको विकसित करने के लिये परमात्मा ने इन्हें ‘धी’ तत्व प्रदान किया है।

कितने व्यक्ति आलसी, निकम्मे, हरामखोर होते हैं, निराशा उन्हें घेरे रहती है, काम को आधे मन से अरुचिपूर्वक, बेगार भुगतने की तरह करते हैं, जरा सा काम उन्हें पहाड़ मालूम होता है, थोड़े से श्रम में भारी थकान अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को ‘धी’ तत्व से रहित समझना चाहिये, यह प्रत्यक्ष है कि वे ईश्वर के अकृपा पात्र हैं, कर्म प्रेरक बुद्धि के अभाव में वे दुर्भाग्य ग्रस्त ही रहेंगे।

मौद्गल्य का उपरोक्त कथन कितना गम्भीर और सत्य है इसके बारे में दो मत नहीं हो सकते। भाग्य का रोना रोने वाले, तकदीर को ठोकने वाले, अपनी त्रुटि का दोष किसी दूसरे ज्ञात-अज्ञात पर थोप कर झूठा मनः सन्तोष भले ही कर लें, पर वस्तुस्थिति यही है कि उन्होंने ईश्वर की कृपा को प्राप्त नहीं किया। यह कृपा हर किसी के लिए सुलभ है हर किसी के अपने हाथ में है। धी तत्व को—कर्मशीलता को-अपनाकर हर कोई ईश्वरीय कृपा और उन्नति का अधिकारी बन सकता है। परमात्मा अपनी कृपा से किसी को वंचित नहीं रखता मनुष्य ही अपनी दुर्बुद्धि के कारण उसका परित्याग कर देता है।

मन एव सविता वाक् सावित्री यत्रह्मेव मनस्तद्वाक।

यत्र वै वाक् तन्मन इति एते द्वे योनि एकं मिथुनम्॥

मन सोचता है वाक् सावित्री जहाँ मन वहाँ वाक् है, जहाँ वाक् है वहाँ मन ये दोनों एक योनि और एक मिथुन हैं।

अग्निरेव सविता पृथ्वी सावित्री यत्र ह्येवाग्निरतत्पृथ्वी

यत्र वै पृथ्वी तदन्निरिति एते द्वैयोनि एकं मिथुनम्॥

अग्नि सविता है, पृथ्वी सावित्री, जहाँ अग्नि है वहाँ पृथ्वी है जहाँ पृथ्वी है वहाँ अग्नि है दो योनि तथा एक मिथुन हैं॥ 2॥

वायुरेव सविता अन्तरिक्ष सावित्री, यत्र ह्मेव वायुस्तदन्तरिक्षम्। यत्र वा अन्तरिक्षं तद्वायुरिति एते द्वे योनि एकं मिथुनम्॥ 3॥

वायु सविता है अन्तरिक्ष सावित्री है, जहाँ वायु है वहाँ अन्तरिक्ष है जहाँ अन्तरिक्ष है वहाँ वायु है। ये दो योनि और एक मिथुन हैं॥ 3॥

आदित्य एव सविता द्यौः सावित्री यत्र ह्येवादित्यस्तद् द्यौः यत्र वै द्यौ इतदादित्य इति। एते द्वे योनि एकं मिथुनम्॥ 4॥

आदित्य सविता है, द्यौ सावित्री। जहाँ आदित्य है वहाँ द्यौ है, जहाँ द्यौ है वहाँ आदित्य है। ये दो योनि और एक मिथुन है॥ 4॥

चन्द्रमा एव सविता नक्षत्राणि सावित्री यत्र ह्मेव चन्द्रमा स्तन्नक्षत्राणि। यत्र वैं नक्षत्राणि तच्चन्द्रमा इति। एते द्वे योनी एकं मिथुनम्॥ 5॥

चन्द्रमा सविता है नक्षत्र सावित्री है, जहाँ चन्द्रमा है वहाँ नक्षत्र हैं जहाँ नक्षत्र हैं वहाँ चन्द्रमा है। यह दो योनि और एक मिथुन है॥ 5॥

अरेव सविता रात्रिः सावित्री यत्र ह्येवाहस्तद्रात्रिः।

यत्र वै रात्रि स्तदहरिति एते द्वेयोनि एकं मिथुनम्॥ 6॥

दिन सविता है रात्रि सावित्री है जहाँ दिन है वहाँ रात्रि है। जहाँ रात्रि है वहाँ दिन है। यह दो योनि और एक मिथुन है॥ 6॥

उष्णमेव सविता शीतं सावित्री यत्र ह्येवोष्णं तच्छीतं।

यत्र वैशीतं तदुष्णमिति एते द्वे योनि एकं मिथुनम्॥7॥

उष्ण सविता है, शीत सावित्री है, जहाँ उष्ण है वहाँ शीत है जहाँ शीत है वहाँ उष्ण है। ये दोनों योनि और एक मिथुन है॥ 7॥

अभ्रमेव सविता वर्ष सावित्री यत्र ह्येवाभ्रं तर्द्वष, यत्र

वै वर्ष तदभ्रमिति एते द्वै योनी एकं मिथुनम्॥ 8॥

बादल सविता है वर्षण सावित्री। जहाँ बादल हैं वहाँ वर्षण है, जहाँ वर्षण है वहाँ बादल हैं। ये दोनों योनी तथा एक मिथुन है॥ 8॥

विद्यु देव सविता स्तनयित्नुः सावित्री। यत्र ह्येव विद्युत्त त्स्तनतित्नुः यत्र वस्तनयित्नुस्तद्विद्युदित्ति। एते द्वेयोनी एकं मिथुनम्॥ 9॥

विद्युत सविता है और उसकी तड़क सावित्री, जहाँ बिजली है वहाँ उसकी तड़क है जहाँ तड़क है वहाँ बिजली है। ये दोनों योनी और एक मिथुन है॥ 9॥

प्राण एव सविता अन्नं सावित्री यत्र ह्येव प्राणस्तदन्नम्। यत्र वा अन्नं तत्प्राण इति। एते द्वे योनी एकं मिथुनम्॥ 10॥

प्राण सविता है अन्न सावित्री। जहाँ प्राण है वहाँ अन्न है जहाँ अन्न है वहाँ प्राण है। यह दो योनि तथा एक मिथुन है॥ 10॥

वेद एव सविता छन्दाँसि सावित्री यत्र ह्येव वेदास्तच्छन्दाँसि यत्र वै छन्दाँसि तद्वेदा इति द्वे योनी एकं मिथुनम्॥ 11॥

वेद सविता है छन्द सावित्री। जहाँ वेद हैं वहाँ छन्द हैं जहाँ छन्द हैं वहाँ वेद हैं। ये दो योनी और एक मिथुन हैं॥ 11॥

यज्ञ एव सविता दक्षिणा सावित्री यज्ञ ह्येव यज्ञस्त दक्षिणा। यत्र वैदक्षिणाः तद्यज्ञ इति एते द्वे योनी एकं मिथुनम्॥ 12॥

यज्ञ सविता है और दक्षिणा सावित्री। जहाँ यज्ञ है वहाँ दक्षिणा है जहाँ दक्षिणा है वहाँ यज्ञ है ये दोनों योनी तथा एक मिथुन है॥ 12॥

एतद्धस्मैतद्विद्वाँसमोपकारी मासःतुर्ब्रह्मचारी ते संस्थित इति।

विद्वान तथा परोपकारी महाराज! आपकी सेवा में यह ब्रह्मचारी आया है।

अथैव आसस्तुरा चित इव चितो बभूव अथोत्थाय प्रावाजीदिति।

यह ब्रह्मचारी आपके यहाँ आकर ज्ञान से परिपूर्ण हो गया है। इसके बाद वे वहाँ से चले गये। एतद्वा अहं वेदनी तासु ताम योनिध्वितएतेभ्यो वा मिथुनेभ्यः संभतोब्रह्मचारी मम परायुषः प्रेयादिति।

और उन्होंने कहा कि अब मैं इसे जान गया हूँ इन योनियों अथवा इन मिथुनों में आया हुआ मेरा कोई ब्रह्मचारी अल्पायु नहीं होगा।

अब प्रश्न होता है कि सविता क्या है? और सावित्री क्या है? गायत्री का देवता सविता माना गया है। प्रत्येक मन्त्र का एक देवता होता है; जिससे पता चलता है कि इस मन्त्र का क्या विषय है। गायत्री का देवता सविता होने से यह प्रकट है कि इस मन्त्र का विषय सविता है। सविता की प्रधानता होने के कारण गायत्री का दूसरा नाम सावित्री भी है।

मैत्रेय पूछते हैं—भगवन्! सविता क्या है? और यह सावित्री क्या है? महर्षि मौद्गल्य उन्हें उत्तर देते है कि सविता और सावित्री का अविछल सम्बन्ध है, जो एक है वही दूसरा है। दोनों का मिलकर एक जोड़ा बनता है, एक केन्द्र है दूसरा उसकी शक्ति है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

शक्ति मार्ग का महत्व उसकी शक्ति के विस्तार से है। यों तो प्रत्येक परमाणु अनन्त शक्ति का पुञ्ज है। एक परमाणु के विस्फोट से प्रलय उपस्थित हो जाती है। पर इस प्रकार की गतिविधि होती तभी है जब उस शक्ति का विस्तार एवं प्रकटीकरण होता है। यदि यह प्रकटीकरण न हो तो अनन्त शक्तिशाली पदार्थ का भी कोई अस्तित्व नहीं, उसे कोई जानता तक नहीं। सविता कहते हैं—तेजस्वी परमात्मा को और सावित्री कहते हैं—उसकी शक्ति को। सावित्री, सविता से भिन्न नहीं, वरन् उसकी पूरक है, उसका मिथुन अर्थात् जोड़ा है। सावित्री द्वारा ही अचेतन, अज्ञेय, निराकार एवं निर्लिप्त परमात्मा इस योग्य होता है कि उससे कोई लाभ उठाया जा सके।

यह बात बहुत सूक्ष्म और गम्भीर विचार के उपरान्त समझ में आने वाली है। इसलिये उपनिषद्कार उसे उदाहरण दे देकर सुबोध बनाते हैं और इस गूढ़ तत्व को इस प्रकार उपस्थित करते हैं कि हर कोई आसानी से समझ सके। वे कहते हैं—

मन सविता है, वाक् सावित्री है, जहाँ मन है वहाँ वाक् है, जहाँ वाक् है वहाँ मन है। ये दो योनियाँ हैं। एक मिथुन है। इसी प्रकार अग्नि और पृथ्वी का, वायु और अन्तरिक्ष का, आदित्य और द्यौ का, चन्द्रमा और नक्षत्रों का, दिन और रात्रि का, उष्ण और शीत का, अग्नि और वरुण का, विद्युत और तड़क का, प्राण और अन्न का, वेद और छन्द का, यज्ञ और दक्षिणा का मिथुन बताया गया है। यह तो थोड़े से उदाहरण मात्र हैं, यह उदाहरण बताकर उपनिषद्कार ने यह बताया है कि अकेली कोई वस्तु प्रकट नहीं हो सकती, प्रकाश में नहीं आ सकती, विस्तार नहीं कर सकती। अव्यक्त पदार्थ तभी व्यक्त होता है जब उसकी शक्ति का प्रकटीकरण होता है। केवल परमात्मा बुद्धि की मर्यादा के बाहर है, उसे न तो सोच सकते हैं और न उसके समीप तक पहुँचकर कोई लाभ उठा सकते हैं। यह अव्यक्त परमात्मा- सविता, अपनी शक्ति सावित्री द्वारा सर्व-साधारण पर प्रकट होता है और उस शक्ति की उपासना द्वारा ही उसे प्राप्त किया जा सकता है।

लक्ष्मी नारायण, सीताराम, राधाकृष्ण, उमा-शंकर, सविता, सावित्री, प्रकृति परमेश्वर के मिथुन यही बताते हैं। यह एक दूसरे के पूरक हैं, प्रकट होने के कारण हैं। जीव भी माया के कारण अव्यक्त से व्यक्त होता है। यह मिथुन हेय या त्याज्य नहीं है। वरन् क्रियाशीलता के विस्तार के लिये हैं। मनुष्य का विकास भी एकाकी नहीं हो सकता, उसे अपनी शक्तियों का विस्तार करना पड़ता है। जो अपनी-अपनी शक्तियों को बढ़ाता है वही उन्नति की ओर अग्रसर होता है।

शक्ति और शक्तिवान से अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हैं। जैसे सविता अपनी सावित्री से ओत-प्रोत है उसी प्रकार हमें भी अपने आपको बहुमुखी शक्तियों से परिपूर्ण करना चाहिये। अपने साथ अनेक शक्तियों का सहयोग संगठित करना चाहिये। जिसके स्थान जितने अधिक हैं वह उतना ही सुखी है।

इस शक्ति और शक्तिवान के रहस्य को जानकर मैत्रेय बड़े सन्तुष्ट हुये, उन्होंने कहा मैं आपका शिष्य अब ज्ञान की वास्तविक जानकारी से परिपूर्ण हो गया हूँ। अब मैं जान गया हूँ कि मेरा भी शिष्य इस योनि और मिथुन के रहस्य को जान लेगा वह अल्पायु न होगा। वह शान्ति को अपना अविच्छिन्न अंग मान कर उसका दुरुपयोग नहीं करेगा वरन् सदुपयोग द्वारा सब प्रकार का लाभ उठावेगा। इस प्रकार शक्ति का महत्व समझकर उसका सदुपयोग करने वाले अल्पायु कदापि नहीं हो सकते।

ब्रह्य हेदं श्रिवं प्रतिष्ठामायतनमैक्षित तत्तपैस्का यदि तदूव्रते ध्रियेत तत्सत्ये प्रत्यतिष्ठत्।

ब्रह्म ने भी, प्रतिष्ठा और आयतन को देखा, वह था कि—तप करो। यदि तप के व्रत को धारण किया जाय, तो सत्य में प्रतिष्ठा होती है।

स सविता सावित्र्या ब्राह्मणं सृष्टवा तत्सावित्री पर्यदधात्।

उस सविता ने सावित्री से ब्राह्मण की सृष्टि की तथा सावित्री को उससे घेर दिया।

तत्सवितुर्वरेण्यं इति सावित्र्याः प्रथमः पादः।

‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ यह सावित्री का प्रथम पाद है।

पृथ्व्यर्चं समदधात् ऋचा अग्निम्। अग्निनाश्रियम्। श्रिया स्त्रियम्। श्रिया मिथुनम्। मिथुनेन् प्रजाम्।

प्रज्या कर्म। कर्मणा तपः। तपसा सत्यम्। सत्येन ब्रह्म। ब्रह्मणा ब्राह्मणम्। ब्राह्मणेन व्रतम्। व्रतेन वै ब्रह्मणः संशितो भवति। अशून्यो भवति, अविछिन्नो भवति।

पृथ्वी को ऋक् को जोड़ा, युक्त किया। ऋक् से अग्नि को। अग्नि से श्री को। श्री से स्त्री को। स्त्री से मिथुन को। मिथुन से प्रजा को। प्रजा से कर्म को। कर्म से तप को। तप से सत्य को। सत्य से ब्रह्म को। ब्रह्म से ब्राह्मण को। ब्राह्मण से व्रत को। ब्राह्मण व्रत से ही तीक्ष्ण होता है, पूर्ण होता है और अविच्छिन्न होता है।

अविछनोऽस्य तंतुरविच्छिन्नं जीवनं भवति, य एवं वदेत् यश्चैवं विद्वानेवेमेतं सावित्र्याः प्रथमपादंव्याचष्टे

जो इस प्रकार इसे जानता है और जानकर जो विद्वान् इसकी इस प्रकार व्याख्या करता है उसका वंश तथा उसका जीवन अविच्छिन्न होता है।

(क्रमशः)


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