उत्तुँग शिखर के निर्झर-सा,
निर्मल हो जीवन का प्रवाह।
अभिराम शैल का हरिताञ्चल,
ऊपर हँसता नीलाभ गगन
मोती-सी जल की बूँदों का
बिखरावे चंचल मृदुल पवन।
जग के आँगन में ज्योतिर्मय
जीवन का ही सुन्दर नर्तन।
हो ज्वलित न मेरे अन्तस् में,
सागर तल का वह विषम दाह।
खेलें तट पर कोमल निश्छल,
मञ्जुल मृग छौने उछल-उछल,
कुटिला आशा की पंक-राशि कलुषित न करे मेरा हृत्तल।
मेरे संगी बन के पंछी नाचें
नाचें सुनकर मेरा कल-कल।
फूलों की शैया बन जावे चट्टानों की यह विषम राह।
उत्तुँग शिखर के निर्झर-सा निर्मल हो जीवन का प्रवाह।
(श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, टेढ़ा-उन्नाव)