ज्ञान प्रधान धर्मशास्त्र

September 1952

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(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)

बड़े-बड़े धर्मवक्ता आपने देखे होंगे और उनके व्याख्यान सुने होंगे। सोचना चाहिए कि उनके शब्दों का अनुकरण उनका हृदय कहाँ तक करता है? वे अपने अन्तःकरण के भावों को यदि स्पष्टतया प्रकट करने लगें तो आप निश्चय समझिए कि उनमें से अधिकाँश लोगों को ‘नास्तिक’ कहना पड़ेगा। वे अपने बुद्धि को चाहे जितनी भगतिन बनावें, वह उनसे यही कहेगी कि “किसी पुस्तक में लिखा है या किसी महापुरुष ने कहा है इसलिये मैं उस पर बिना विचार किये विश्वास क्योंकर करूं? दूसरे भले ही अन्धश्रद्धा के अधीन हो जायँ, मैं कभी फँसने वाली नहीं।” इधर जाते हैं तो खाई और उधर जाते हैं तो अथाह समुद्र है। यदि धर्मोपदेशक या धर्मग्रन्थों का कहना मानो तो विवेचक बुद्धि बाधा डालती है और न मानो तो लोग उपहास करते हैं, ऐसी अवस्था में लोग उदासीनता की शरण लेते हैं। जिन्हें आप धार्मिक कहते हैं, उनमें से अधिकाँश लोग उदासीन अथवा तटस्थ हैं और इसका कारण धर्म पर यथार्थ विचार न करना ही है। धर्म की उदासीनता यदि ऐसी बढ़ती ही जायगी और लोग धर्माचरण के लाभों से अनभिज्ञ ही बने रहेंगे तो धर्म की पुरानी इमारत भौतिक-शास्त्रों के एक ही अघात में हवाई किले की तरह नष्ट-भ्रष्ट हो जायगी। भौतिक शास्त्र जिस प्रकार विवेक बुद्धि की भट्टी से निकलकर अपनी सत्यता सिद्ध करते हैं उसी प्रकार धर्म शास्त्र को भी अपने सिद्धान्तों की सत्यता संसार के सामने सप्रमाण सिद्ध कर देनी चाहिये। ऐसा करने पर बुद्धि के तीव्र ताप से यदि धर्मतत्व गल-पच भी जायेंगे तो भी हमारी कोई हानि नहीं है। जिसे आज तक हम रत्न समझे हुये थे, वह पत्थर निकला। उसके नष्ट होने का हमें दुःख क्या? अन्ध-परम्परा से उसे सिर पर लादे रहना ही मूर्खता है। मेरी समझ में ऐसे सन्दिग्ध पत्थरों की जहाँ तक शीघ्र हो, परीक्षा कर व्यवस्था से लगा देना ही अच्छा है। यदि धर्मतत्व सत्य होंगे तो वे भट्टी में कभी न जलेंगे, उलटे वे ही असत्य पदार्थ भस्म हो जायेंगे जिनके मिश्रण से सत्यधर्म में सन्देह होने लगा है। आग में तपाने से सोना मलीन नहीं किंतु अधिक उज्ज्वल हो जाता है। विवेक बुद्धि की भट्टी में सत्य धर्म को डालने से उसके नष्ट होने का कोई भय नहीं है किन्तु ऐसा करने से उसकी योग्यता और भी बढ़ जायगी तथा उसका उच्च स्थान सर्वदा बना रहेगा। पदार्थ विज्ञान और रसायन शास्त्रों की तरह धर्मशास्त्र भी प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध करना चाहिये। यदि कर्मेन्द्रियों की अपेक्षा ज्ञानेन्द्रियों की योग्यता अधिक है तो जड़ (भौतिक) शास्त्रों पर ज्ञान-प्रधान धर्मशास्त्र की विजय क्योंकर न होगी? भौतिक शास्त्रों की सिद्धि तो इन्द्रियों के भरोसे है और धर्मशास्त्रों की सिद्धि अन्तरात्मा से सम्बन्ध रखती है, फिर क्या हमारा कर्त्तव्य नहीं है कि हम इसी आवश्यक और प्रधान शास्त्र की सिद्धि का पहले यत्न करें?

जो यह कहते हैं कि विवेकबुद्धि की तराजू पर तोलना मूर्खता है, वे निश्चय अदूरदर्शी है। मान लीजिए, एक ईसाई किसी मुसलमान से इस प्रकार झगड़ रहा है :—”मेरा धर्म प्रत्यक्ष ईश्वर ने ईसा से कहा है।” मुसलमान कहता है :—”मेरा भी धर्म ईश्वर-प्रणीत है।” इस पर ईसाई जोर देकर बोला—”तेरी धर्म पुस्तक में बहुत सी झूठी बात लिखी हैं, तेरा धर्म कहता है कि हर एक मनुष्य को सीधे से नहीं तो जबरदस्ती मुसलमान बनाओ। यदि ऐसा करने में किसी की हत्या भी करनी पड़े तो पाप नहीं है। मुहम्मद के धर्म प्रचारक को स्वर्ग मिलेगा।” मुसलमान ने कहा :—”मेरा धर्म जो लिखा है सो सब ठीक है।” ईसाई ने उत्तर दिया :—”ऐसी बातें मेरी धर्म पुस्तक में नहीं लिखी हैं, इससे वे झूठी नहीं हैं।” मुसलमान झल्लाकर बोला :—”तेरी पुस्तक से मुझे क्या प्रयोजन है? काफिरों को मार डालने की आज्ञा को झूँठ करने का तुझे क्या अधिकार है? तेरा कथन है कि ईसा का लिखा सब सच है मैं कहता हूँ मुहम्मद जो कुछ कह गये हैं, वही ठीक है।” इस प्रकार के प्रश्नोत्तरों से दोनों को लाभ नहीं पहुँचता। एक दूसरे की धर्मपुस्तक को बुरी दृष्टि से देखते हैं इससे वे निर्णय नहीं कर सकते कि किस पुस्तक के नीतितत्व श्रेष्ठ हैं। यदि विवेचक बुद्धि को दोनों काम में लावें तो सत्य वस्तु का निर्णय करना कठिन न होगा। किसी धर्म पुस्तक पर विश्वास न होने पर भी उसमें लिखी हुई किसी खास बात को यदि विवेचक बुद्धि स्वीकार कर ले तो तुरन्त समाधान हो जाता है। हम जिसे विश्वास कहते हैं वह भी विवेचक बुद्धि से ही उत्पन्न हुआ है। परन्तु यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि दो महात्माओं के कहे हुए जुदे-जुदे या परस्पर विरुद्ध विधानों की परीक्षा करने के शक्ति हमारी विवेचक बुद्धि में है या नहीं? यदि धर्मशास्त्र इन्द्रियातीत है और उसकी मीमाँसा करना हमारी शक्ति के बाहर का काम हो तो समझ लेना चाहिये कि पागलों की व्यर्थ बकबक या झूठी किस्सा कहानियों की पुस्तकों से धर्मशास्त्र का अधिक महत्व नहीं है। धर्म ही मानवी अन्तःकरण के विकास का फल है। अन्तःकरण के विकास के साथ-साथ धर्म मार्ग चल निकले हैं। धर्म का अस्तित्व पुस्तकों पर नहीं किन्तु मानवी अन्तःकरण पर अवलम्बित है। पुस्तकें तो मनुष्यों की मनोवृत्ति के दृश्यरूप मात्र हैं। पुस्तकों से मनुष्यों के अन्तःकरण नहीं बने हैं किन्तु मनुष्यों के अन्तःकरणों से पुस्तकों का आविर्भाव हुआ है। मानवी अन्तःकरण का विकास ‘कारण’ और ग्रन्थ रचना उसका ‘कार्य’ है, ‘कारण’ नहीं। विवेचक बुद्धि की कसौटी पर रख कर यदि हम किसी कार्य को करेंगे तो उसमें धोखा नहीं उठाना पड़ेगा। धर्म को भी उस कसौटी पर परख लें तो उसमें हमारी हानि ही क्या है?

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