सन्मित्र के लक्षण

September 1952

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(श्री प्रताप मल जी, नाहटा)

महाभारत में लिखा है “जिनके क्रोध से भीत होना पड़ता है, शंकित मन से जिनकी सेवा करनी होती है, वे मित्र-रूप से कदापि नहीं ग्रहण किये जा सकते। पिता के समान विश्वासपात्र व्यक्ति ही यथार्थ मित्र होता है, औरों के साथ मित्रता केवल सम्बन्ध न होने पर भी जो मित्र भाव रखते हैं, ये सच्चे मित्र हैं।”

चंचल चित्त, स्थूल बुद्धि और वृद्धोपदेश पराँमुख व्यक्ति के साथ मित्र भाव नहीं ठहरता। जैसे हंस-वृन्द सूखे सरोवर को छोड़ देते हैं, वैसे ही सब अर्थ अव्यवस्थित चित्त, इन्द्रिय वशवर्त्ती व्यक्ति को छोड़ देते हैं। दुर्जनों का स्वभाव चपल मेघ के समान अव्यवस्थित होता है। उन्हें सहसा क्रोध आ जाता है और बिना किसी कारण के अकस्मात् प्रसन्नता भी। जो व्यक्ति मित्रों द्वारा सत्कार और कृतकार्यता प्राप्त करके भी उनका उपकार नहीं करता, वह कृतघ्न है। उसके मरने पर उसके शरीर को चील कौए भी स्पर्श नहीं करते। धनी हो या निर्धन, मित्र की हित कामना करना नितान्त कर्त्तव्य है।”

सुप्रसिद्ध आँग्ल तत्व वेत्ता बेकन ने अपने मित्र की इस तरह याद की है—

“हमारा यदि कोई सच्चा मित्र न हो, तो यह जगत निर्जन वन के समान प्रतीत होगा और हमारा जीवन एकान्त-वास में व्यतीत होने के कारण दुःखदायी होगा। जब अपनी चित्तवृत्ति और विचारों में उधेड़ बुन होने लगती है, उस समय मन किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है और हम अन्धेरे में जिस प्रकार टटोल-टटोल कर चलते हैं, उसी तरह बर्ताव में भी चलते हैं। उस समय मित्रों के सहायता से हमें उजाला मिलकर सीधा मार्ग दिखाई पड़ने लगता है और विपत्ति के समय हमारा मन प्रसन्न रहता है। उनके साथ वार्तालाप करने से अपने विचार एक से जारी रह कर योग्य प्रणाली मिलती है। वे विचार यदि लिखे जायं तो कैसे होंगे; यह मालूम हो जाता है और अपने आप उनका मनन करने से जितना ज्ञान होता है, उतना ज्ञान मित्रों के साथ घड़ी भर वार्तालाप करने से हो जाता है और हम अधिकाधिक बुद्धिमान बनते चले जाते हैं।”

नीतिकार का यह कथन बड़ा ही मार्मिक है कि—

पात्रं यत्सुखदुःखयोः सह भवेन्मित्रेण तत् दुर्लभम्

सुख-दुःख में एक सा साथ दे, ऐसा मित्र दुर्लभ होता है। परन्तु ऐसे दुर्लभ मित्र ही सच्चे मित्र होते हैं। सन्मित्र की जो महिमा है, वह ऐसे ही मित्रों की है। ऐसे ही मित्रों के विषय में याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है :—

हिरण्यभूमिलाभेभ्यो मित्रलब्धिर्वरा यतः।

अतो यतेत तत्प्राप्त्यै रक्षेत सत्यं समाहितः॥

सुवर्ण लाभ अथवा भूमि लाभ की अपेक्षा मित्र लाभ श्रेष्ठ है। इसीलिए मित्र लाभ के लिए प्रयत्न करें और स्वस्थचित्त से उनकी रक्षा करे।

सज्जनों की मैत्री का भर्तृहरि ने बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है—

क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ताः पुरातेऽखिलाः।

क्षीरे तापमवेक्ष्य तेन पयसा आत्मा कृशानौ हुतः॥

गन्तु पाबकमुन्मनस्तद भवद्दृष्ट् वा तु मित्रापदम्।

युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतों मैत्री पुनस्त्वीदृशी॥

दूध और पानी जब मिल जाते हैं, तब उनकी मैत्री ऐसी होती है कि दूध पानी को अपने सब गुण पहले ही दे डाले रहता है। यह दूध जब आग पर रखा जाता है और दूध को आँच असह्य होने लगती है, तब पानी उसके लिये अपने आपको जला देता है। मित्र की यह दशा देख, दूध भी आग में कूद पड़ता है। फिर जब पानी से उसका मिलाप होता है, तब उसे शान्ति मिलती है। सज्जनों की मैत्री ऐसी होती है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है :—

आपदकाल परीखिये चारी। धीरजधर्म मित्रअरुनारी॥

संकट-काल में ही सन्मित्र की परिक्षा होती है। संकट-काल में जो साथ नहीं देता, वह मित्र नहीं है विपत्ति मानो मित्रता की कसौटी ही है। इससे “हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।”

जब अच्छे दिन होते हैं, तब तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, परन्तु सच्चा मित्र कौन है, इसकी पहचान तो विपत्ति में ही होती है।

तुलसी सम्पत्ति के सखा, परत विपत्ति में चीन्ह।

सज्जन सोना कसन विधि, विपत्ति कसौटी दीन्ह॥

सन्मित्र का यही प्रधान लक्षण है। गुसाई तुलसीदास जी सन्मित्र के लक्षण इस प्रकार कथन करते हैं :—

“जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।

तिनहिं विलोकत पातक भारी॥

जिन दुख गिरिसम रज करजाना।

मित्र के दुख रज मेरु समाना॥

जिनके असमति सहज न आई।

ते शठ कत हठि करत मिताई॥

देत लेत मन संक न धरईं।

बल अनुमान सदा हित करईं॥

कुपथ निवारि सुपथ चलावा।

गुण प्रगटइ अवगुणहिं दुरावा॥

विपत्ति काल कर सतगुन नेहा।

श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥

इन्हीं लक्षणों का इससे कुछ अधिक विस्तार एक संस्कृत श्लोक में इस प्रकार किया गया है—

पापान्निवारयति योजयते हिताय,

गुह्यानि गुह्यति गुणान्प्रकटीकरोति।

आपदताँ न जहाति ददाति नित्यं

सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदंति सन्ताः॥

इन्हीं कवि ने मित्रता के छः लक्षण गिनाये हैं-मित्र (1) पाप से बचाता है, (2) हित के काम में लगाता है, (3) गुप्त रखने योग्य बातों को गुप्त रखता है, (4) गुणों को प्रकट करता है, (5) संकट काल में साथ नहीं छोड़ता, और (6) सदा मुक्त हस्त से देता रहता है।

मनुष्य के चरित्र पर संग-सोहबत का बड़ा असर पड़ता है। संग सोहबत से मनुष्य बनता बिगड़ता है। जितनी बुरी आदतें हैं, उन्हें कोई जन्म से ही अपने साथ नहीं ले आता, संगी-साथियों की देखा-देखी ही मनुष्य उनका आदी होता है। मित्र का यह धर्म है, सन्मित्र का यह लक्षण है, कि वह अपने मित्र को ऐसी बुराइयों से बचाये। बुराइयों से बचाने के साथ आप ही अच्छे कामों में उसे लगाने का भार भी उस पर आ ही पड़ता है। ये दोनों बातें एक दूसरे से मिली हुई हैं।

बुराइयों से बचाने और अच्छे कामों में लगाने वाला मित्र स्वभावतः मुँह देखी बात करने वाला नहीं होता, स्पष्ट वक्ता होता है। अनेक बार स्पष्ट वक्ता मित्र की स्पष्टोक्ति बहुत कड़वी मालूम होती है। परन्तु यह कड़वापन मित्र की हृदय वेदना का परिणाम होता है, यह जानना और मुँह देखी बात को छोड़ इस कड़वी दवा को पी जाना भी सन्मित्र का ही लक्षण है। हित की बात कहने वाला स्पष्ट वक्ता मित्र मुँह पर चाहे जितना स्पष्ट कहे, पर पीछे निन्दा नहीं करता, न अपने मित्र की ऐसी बातें प्रकट करता है, जो प्रकट करने योग्य न हों। बुराई से बचाने का यह मतलब तो है ही नहीं कि अपने मित्र की बुराई करता फिरे। मित्र का लक्षण यह है कि मित्र के दोष मित्र से ही कहे, औरों से नहीं, औरों से गुणों का ही बखान करे।

मित्र का फिर सबसे बड़ा लक्षण यह है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कि आपातकाल में साथ ‘कभी न छोड़े। कर्ण को पाँडव अपना ज्येष्ठ भ्राता जानकर युधिष्ठिर के बदले उसी को राज गद्दी पर बैठाते, पर इतने बड़े निष्कण्टक राज्य के लोभ से कर्ण ने विपत्ति में अपने मित्र दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। उसका मित्र-प्रेम कितना गाढ़ा था और मित्र-धर्म का उसे कितना खयाल था, यह उसके उस प्रसंग के इन उद्गारों से स्पष्ट ही प्रकट होता है।

वधाद्वन्धाद्भयाद्वापि लाभाद्वापि जनार्दन।

अनृतं नोत्सहे कर्त्तधार्तराष्ट्रस्य धीमतः॥

यदि जानाति माँ राजा धर्म्मात्मा संयतेन्द्रियः।

कुन्त्याः प्रथमजं पुत्रं न स राज्यं गृहीष्यति॥

प्राप्य चापि महाद्राज्यं तदहं मधुसूदन।

स्फीतं दुर्योधनायेव संप्रदष्यामरिन्दम॥

“वध, बन्धन, भय अथवा लोभ से मैं धीमान् दुर्योधन के साथ मिथ्या-व्यवहार कदापि नहीं कर सकता। जितेन्द्रिय, धर्मात्मा युधिष्ठिर को यदि यह मालूम हो कि मैं (कर्ण) कुन्ती का प्रथम पुत्र हूँ, तो वे राज्य ग्रहण न करेंगे और (इस प्रकार) यदि वह विस्तीर्ण राज्य मुझे प्राप्त हो तो मैं उसे दुर्योधन को प्रदान कर दूँगा।”

भगवान् श्री कृष्ण के धर्म राज्य संस्थापन के महान उद्देश्य का विचार छोड़ दें और केवल मित्र प्रेम का विचार करें, तो कर्ण के मित्र प्रेम का यह दृष्टान्त कितना उद्दात्त, कितना गम्भीर और कितना दिव्य है।

युद्ध करि जय लहन को अति मोर जाहि भरोस।

तजब ऐसे काल ताहि विश्वासघात कुदोस॥

होत सब पातकनसो विश्वासघात गरिष्ट।

परम धर्मी विदित हम किमि करें सो गति इष्ट॥

मित्र से ही यह ध्रुव विश्वास रहता है कि संकट-काल में वह सहायक होगा। किसी का मित्र कहलाना ही यह विश्वास दिलाना है कि वह विपत्ति में साथ रहता है और विश्वासघात से बढ़कर कोई पाप नहीं है। सन्मित्र यह प्रधान लक्षण है।


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