अधिक लोगों का अधिक सुख

September 1952

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(श्री स्वामी सत्यभक्त जी)

बेन्थाम, मिल आदि पारिश्चमात्य विद्वानों ने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय करने के लिए “अधिकाँश लोगों का अधिकतम सुख” का नियम निश्चित किया है। कर्त्तव्याकर्त्तव्य-निर्णय को व्यावहारिक रूप देने में इससे अच्छी-मुक्ति दिखलाई नहीं देती। भारतवर्ष के प्रत्येक धर्म में इस नीति को स्वीकार किया गया है। परन्तु इस नीति का जो साधारण अर्थ किया जाता है, उसमें कुछ त्रुटि रह जाती है। इस त्रुटि को लोकमान्य तिलक ने इन शब्दों में रक्खा है—

“इस आधिभौतिक नीति-तत्व में जो बहुत थोड़ा दोष है वह यही है कि इसमें कर्ता के मन के हेतु या भाव का कुछ भी विचार नहीं किया जाता और यदि अन्तस्थ हेतु पर ध्यान दें, तो इस प्रतिज्ञा से विरोध खड़ा हो जाता है कि अधिकाँश लोगों का अधिक सुख ही नीतिमत्ता की कसौटी है।... केवल बाह्य परिणामों का विचार करने के लिए उससे बढ़कर दूसरा तत्व कहीं नहीं मिलेगा। परन्तु हमारा यह कथन है कि जब नीति की दृष्टि से किसी बात को न्याय अथवा अन्याय कहना हो, तब केवल बाह्य परिणामों को देखने से काम नहीं चल सकता। पाँडवों की सात आक्षौहिणियाँ थीं और कौरवों की ग्यारह, इसलिए यदि पाँडवों की हार हुई होती, तो कौरवों को अधिक सुख हुआ होता। क्या उसी युक्तिवाद से पाँडवों का पक्ष अन्याय कहा जा सकता है? व्यवहार में सभी लोग यह समझते हैं कि लाखों दुर्जनों का सुख हो, वही सच्चा सत्कार्य है।”

भाव की प्रधानता सभी धर्मशास्त्रों में बहुत अधिक परिमाण में पाई जाती है। हिंसा हो जाने पर भी अगर हमारी भावना हिंसा करने की न हो, तो हमें हिंसा का दोष नहीं लगता और भाव होने पर हिंसा न होने पर भी हिंसा का दोष लगता है। यह बात अहिंसा के विवेचन में स्पष्ट की जायगी।

अधिकाँश लोगों को अधिकतम सुख वाली नीति व्यवहार में अत्यन्त उपयोगी है इसलिए हम उसका त्याग नहीं कर सकते। और भाव विशुद्धि के बिना आत्म विश्वास नहीं हो सकता, न ठीक-ठीक निर्णय ही हो सकता है, इसलिए हम भाव को गौण स्थान भी नहीं दे सकते। इस समस्या को सुलझाने के लिए अधिकाँश प्राणियों के अधिकतम सुख वाली नीति में कुछ संशोधन आवश्यक है, उसके लिए हमें निम्नलिखित सूत्रों को स्वीकार करना चाहिए—

(क) अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख में ‘लोग‘ शब्द का अर्थ प्राणी है। धर्म के सामने त्रिकाल त्रिलोक की समस्याएं हैं, इसलिए इतना व्यापक अर्थ करना उचित है।

(ख) सभी जीवों का सुख समान नहीं होता। चैतन्य की मात्रा बढ़ने से सुखदुःखानुभव की मात्रा बढ़ती है। द्वींद्रियादि जीवों में वनस्पति की अपेक्षा कई गुणा चैतन्य है। इससे अधिक पशु-पक्षियों में और इनसे अधिक मनुष्य में। इनमें भी परस्पर तारतम्य देखना चाहिए। इस नीति में केवल संख्या का विचार नहीं करना है, सुख की मात्रा का भी विचार करना है।

(ग) नीति का निर्णय सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से करना चाहिए। दस चोर एक आदमी को लूट लें, इससे दस चोरों को सुख और एक ही आदमी को कष्ट होगा, परन्तु इस नीति को हम अच्छा नहीं कह सकते। क्योंकि चोरी करने की नीति से एक समय और एक जगह भले ही अधिक सुख हो परन्तु अन्य समय में और अन्य क्षेत्रों में दुःख की वृद्धि बहुत अधिक होगी। जो सर्वत्र और सर्वकाल में अधिकतम सुख कारक हो वही नीति ठीक है।

(घ) जो परोपकार परोपकार-बुद्धि से न किया गया हो वह बहुत ही कम सुखवर्द्धक है। उसका श्रेय कर्त्ता को बहुत कम मिलता है।

एक आदमी यश के लिए परोपकार करता है। यह इसलिए ठीक नहीं है कि जब उसे यश की आशा न होगी या यश की चाह न होगी तब वह परोपकार न करेगा। यह सुख-वृद्धि में बड़ा भारी बाधक है। उसका ध्येय यश है। इसलिए अगर यश के लिए कभी उसे अनुचित कार्य करने की आवश्यकता होगी तो वह अनुचित कार्य भी करेगा। इस प्रकार परोपकार का मूल्य तभी हो सकता है जब वह भाव पूर्वक किया गया हो।

(ड़) अशुभ भाव से कोई कार्य किया जाय, और उसका फल शुभ हो जाय, तो वह अशुभ ही कहलायेगा, इसी तरह शुभ भाव से कोई कार्य किया जाय किन्तु उसका फल अशुभ हो जाय तो वह शुभ ही कहलायेगा। क्योंकि भावना अच्छी होने पर भी बुरा कार्य होना कादाचित्क है। सामान्य नियम यही है कि उससे शुभ कार्य हो, इसलिए शुभ भावना सुखवर्द्धक है। दूसरी बात यह है कि भावना के अनुसार अगर अच्छे बुरे का निर्णय न किया जाय, तो अच्छा काम करना अशक्य प्रायः हो जायगा। अच्छी भावना से डॉक्टर आपरेशन करे और रोगी मर जाय, इस पर डॉक्टर को खूनी के समान मृत्यु-दण्ड दिया जाय, तो कितने डॉक्टर आपरेशन को तैयार होंगे? इसलिए अधिकतम सुख के लिए भावना को प्रधानता देना आवश्यक है।

इस सबका सार यह है कि सार्वत्रिक और सार्वकालिक अधिकतम प्राणियों के अधिकतम सुख की भावना से जो कार्य किया जाय वह कर्त्तव्य है और बाकी अकर्त्तव्य। इस तरह आधिभौतिक और आध्यात्मिक के सम्मिश्रण से हमें कर्त्तव्याकर्त्तव्य के निर्णय की कसौटी मिल जाती है, और अनेक तरह की शंकाओं का समाधान हो जाता है। जैसे कि-रावण ने सीता को चुराया, राम ने युद्ध करके रावण के वंश का नाश कर दिया। अगर राम युद्ध न करते, तो राक्षस वंश के लाखों मनुष्य मरने से बच जाते, सिर्फ राम और सीता इन दो व्यक्तियों को दुःख होता और लाखों को सुख।

यद्यपि वर्तमान की दृष्टि से यह घटना विपरित नीति की सूचक है, परन्तु सार्वत्रिक विचार से इनका निर्णय हो जाता है। इस घटना को लक्ष्य करके अगर यह नियम बना दिया जाय कि अगर कोई किसी की पत्नी को चुरा ले जाय तो उसे उसकी रक्षा के लिए विशेष प्रयत्न न करना चाहिए तो इसका फल यह होगा कि प्रतिदिन हजारों लाखों स्त्रियों का सतीत्व नष्ट होने लगेगा। यह दुःख एक बार युद्ध में मर जाने वाले सैनिकों के दुःख की अपेक्षा बहुत अधिक होगा मतलब यह है कि अन्याय का प्रतिकार करना एक बार भले ही अधिक प्राणियों को दुःखद हो, परन्तु सदा के लिए यह सुखद है। समाज के भय तथा चिन्ता को रोकने के कारण उसकी सुखदाता और बढ़ जाती है।


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