काम या बात को मत टालिए।

September 1952

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)

अभी क्या आवश्यकता, जब जरूरत होगी तब यह काम कर लेंगे, अभी कहाँ अवकाश है? इतनी जल्दी तैयारी की क्या जरूरत? अभी कुछ दिन या घण्टे आराम कर लें, फिर हो जायगा। अभी तो पर्याप्त समय है, काम हो ही जायगा—यह मनुष्य की एक बड़ी कमजोरी है।

बात को कल पर टाल देना, या काम को उचित समय पर सम्पन्न करना, इच्छा शक्ति की न्यूनता के कारण उत्पन्न होता है। टालने या गम्भीर परिस्थितियों का मुकाबला न करने वाला व्यक्ति चंचल मन पर उचित नियन्त्रण नहीं कर पाता। उसकी विवेक बुद्धि उससे किसी कार्य या बात को करने का संकेत करती है, उसका मन उसकी उपयोगिता को स्वीकार भी करता है, किन्तु जब असली कार्य को करने का समय आता है, तो उसकी इच्छा शक्ति का शैथिल्य पुरानी आदतों पर काबू नहीं पाता। आलस्य-प्रमाद, आमोद-प्रमोद, ढीले-ढाले रहने की आदत उभर उठती है। सारी योजनाएँ धराशायी हो जाती हैं। ऐसा व्यक्ति कार्य सम्पन्न न करने के पक्ष में तरह-तरह की दलीलें निकालता है। “स्वास्थ्य ठीक नहीं है। अभी थोड़ा विश्राम कर लें। इतनी जल्दी इस कार्य के करने की क्या जरूरत है। फुरसत से करेंगे, लाओ थोड़ा खेल लें, सो लें, थोड़ा घूम आएँ या अमुक मित्र से मिल लें’—इस प्रकार की सैकड़ों दलीलें पेश कर मनुष्य बात को हटाता जाता है। विवेक दबकर चुपचाप हो जाता है, आवेश मनुष्य को अपना दास बना लेता है। बुद्धि का राज्य भ्रष्ट हो जाता है, आलस्य और प्रमाद की वृत्तियों का विप्लव होने लगता है और अविवेक की कुयंत्रणा से वासना को शासन करने का अवसर प्राप्त हो जाता है।

बात टालने का मतलब है, परिस्थिति से हार जाना। गम्भीर परिस्थिति से डट कर मुकाबला करने की शक्ति जब मनुष्य में नहीं होती, तो वह आज का काम कल पर छोड़ता है। थोड़ी देर के लिए ही सही, अपने को कष्ट साध्य कार्य से बचा लेना चाहता है। टालना एक प्रकार की कायरता है। ऐसा व्यक्ति डरपोक, अस्थिर, टिड्डी जैसा एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे पर फुदकने वाला होता है। वह अति चंचलता का शिकार होता है। विचार तथा संकल्प की अस्थिरता उसकी मानसिक कमजोरी है।

हम देखते हैं कि कितने ही व्यक्ति उन्नति की बड़ी-बड़ी योजनाएँ तैयार करते हैं। शिक्षा तथा व्यवसाय के लिए बड़ी भारी कागजी कार्यवाही की जाती है, किन्तु प्रायः यह सब कुछ कागज का कागज पर ही रह जाता है। वास्तविक कुछ भी नहीं हो पाता। उसमें हमारा मन पूरी तरह नहीं रमता। हम उस कार्य में तनिक सी कठिनाई देखते ही छोड़ भागते हैं। मन की यह चंचलता हमारा प्रधान शत्रु है, जो न हमें आगे बढ़ने देता है, न हमें उन्नति करने देता है।

संसार में अनेक व्यक्ति हैं, जिनके पास जीवन को परिपुष्ट, उन्नत और उत्कृष्ट बनाने वाले विचारों और योजनाओं की न्यूनता नहीं है। उनके हृदय सरोवर में अनेक आशापूर्ण तरंगें उद्वेलित हुआ करती हैं, मन में अनेक दिव्य भावनाओं को उदय होता रहता है, आत्मा में महत्वाकाँक्षाओं का उद्भव चलता रहता है, किन्तु इन समृद्ध विचारों के होते हुए भी वे अनेक वर्षों से वहीं हैं, जहाँ से चले थे। तिल भर भी उन्नति नहीं कर पाये हैं।

विचार ही संसार की सबसे महान शक्ति हैं पर असंगठित, अव्यवस्थित काल्पनिक विचार केवल दिल बहलाव, क्षणिक मनोरंजन एवं निष्प्रयोजन सामग्री है, उसी प्रकार केवल शुभ्र विचारों में रमण कर लेना और कुछ काल तक इन शुभ्र विचारों से चमत्कृत हो जाना—एक प्रकार का मनोरञ्जन है।

थोड़ी देर के लिए तो आप उन्नति करने की सोचते हैं, फिर वही आलस्य, वही शैथिल्य, वही बात को टालमटोल कर देना। यही हमारी गुरुतम त्रुटि है।

विचार के दो रूप हैं—एक काल्पनिक, दूसरा क्रियात्मक (प्रैक्टिकल) यह दूसरा भाग अर्थात् कार्य को क्रियात्मक स्वरूप दे डालना, उसे फौरन कर डालना, चैन न लेना मुख्य वस्तु है। काल्पनिक और क्रियात्मक दोनों ही तत्वों से विचार समूचा, पूर्ण उत्पादक बनता है। अभिलाषा का क्रिया के साथ सम्मिलित होने से ही उत्पादक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है और फल की प्राप्ति होती है। ठोस कार्य का ही संसार में मूल्य है।

जो कर्म क्षेत्र में प्रविष्ट होता है, वही आगे बढ़ता है। जो अपनी योजनाओं को क्रियात्मक रूप प्रदान करता है वही आगे निकलता है। खरगोश की तरह जरा देर आराम के बहाने बात टालने वाले हारते हैं, कछुए की तरह निरन्तर कार्य करने वाले चाहे छोटे ही हों विजयी होते हैं। प्रत्येक मनुष्य का कार्य में संलग्न होना, आलस्य से दूर भागना ही व्यक्ति की उन्नति का मूल मन्त्र है। उत्तम कार्य, उचित कार्य और निरन्तर साधना युक्त जीवन ही राष्ट्र निर्माण करता है। कर्म-योग ही श्रेष्ठ धर्म है।

आप जो कुछ सोचें, विचारें या योजनाएँ बनाएँ, वे कार्यशीलता को दृष्टि में रखकर ही बनाइए। नए काम में हाथ डालने से पूर्व सोचिए, “क्या मैं इन बातों को दैनिक जीवन में उतार सकूँगा? क्या मेरे पास इतने साधन हैं कि उनकी सहायता से यह कार्य सम्पन्न हो सके? मैं यह योजना क्षणिक उत्तेजना के वश में होकर तो नहीं बना बैठा हूँ? मैं इन्हें बीच ही में तो नहीं छोड़ भागूँगा? मेरा स्वास्थ्य, मनःदशा आर्थिक सामाजिक स्थिति ऐसी है या नहीं कि इसका बोझ सम्हाल सकूँ।” इस प्रकार किसी योजना का हाथ में लेने से पूर्व पर्याप्त विचार मन्थन कर लेना चाहिये।

कार्य की दृष्टि को सामने रखने से कल्पना की थोथी उड़ान टूट जाती है। व्यर्थ के हवाई किले धराशायी होकर हम ठोस जगत पर उतर आते हैं। अनिश्चयता दूर हो जाती है और वास्तविकता हमारे सामने रहती है। हमारे पाँव वस्तु जगत में ही रहते हैं।

कार्यशीलता हमारी शक्ति की परीक्षा लेती है। यह सामर्थ्य का मापदण्ड है। जब हम शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शक्तियों का परीक्षण करते हैं तो हमें अनेक मानसिक और शारीरिक कमजोरियाँ विदित हो जाती हैं। अपनी सामर्थ्य से अधिक योजनाओं में हाथ डालने वाला व्यक्ति एक प्रकार का ढ़पोल शंख है जो थोथी योजनाएँ ही बनाया करता है। ये कच्ची योजनाएँ उन कागज के फूलों की तरह हैं। जिनमें न रंग हैं, न गन्ध। मूर्खों के इस स्वर्ग से हम जितनी जल्दी निकल आवें, हमारी उन्नति के लिए श्रेयस्कर है।


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