योग का व्यावहारिक स्वरूप

October 1952

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(श्री शिव शंकर मिश्र शास्त्री, एम.ए.)

“जीवात्म परमात्म संयोगो योगः” कहकर भगवान याज्ञवलक्य ने जिस योग की विवेचना की वह केवल कल्पना नहीं, अपितु हमारे दैनिक जीवन की एक अनुभूत साधना है और एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा हम अपने साधारण मानसिक क्लेशों एवं जीवन की अन्यान्य कठिनाइयों का बहुत सुविधापूर्वक निराकरण कर सकते हैं। हमारे अन्दर मृग में कस्तूरी के समान रहने वाली जीवात्मा एक ओर मन की चंचल चित्त वृत्तियों द्वारा अपनी ओर खींची जाती है और दूसरी ओर परमात्मा उसे अपनी ओर बुलाता है। इन्हीं दानों रज्जुओं से बंधकर निरन्तर काल के झूले में झूलने वाली जीवात्मा चिरकाल तक कर्म-कलापों में रत रहती है। यह जानते हुए भी कि जीवात्मा दोनों को एक साथ नहीं पा सकती और एक को खोकर ही दूसरे को पा सकना संभव है वह दोनों की ही खींचतान की द्विविधा में पड़ी रहती है। इसी द्विविधा द्वारा उत्पन्न संघर्षों का संकलन समाज और समाजों का सम्पादन विश्व कहलाता है।

उपर्युक्त विवेचन का एक दूसरा स्वरूप भी है और वह यह है कि जीवात्मा और परमात्मा के बीच मन बाधक के रूप में आकर उपस्थित होता है। कुरुक्षेत्र में पार्थ ने मन की इस सत्ता से भयभीत होकर ही प्रार्थना की थी ‘चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढ़म्’। मन मनुष्य को वासना की ओर खींच कर क्रमशः उसे परमात्मा से दूर करता जाता है। उसे सीमित करना पवन को बंधन में लाने के समान ही दुष्कर है। आत्मा और परमात्मा के निकट आये बिना आनन्द का अनुभव नहीं होता। ज्यों-ज्यों जीवात्मा मन से सन्निकटता प्राप्त करती जाती है वह क्लेश एवं संघर्षों से लिपटती जाती है। आत्मा एवं परमात्मा का एकाकार ही परमानन्द की स्थिति है। सन्त कबीर ने इस एकाकार को ही आध्यात्मिक विवाह का रूप दिया है और गाया है—

जिस डर से सब जब डरे, मेरे मन आनन्द;

कब मरिहों कब पाइहों पूरन परमानन्द,

मन को वश में करने की मुक्ति ही योग है।

महर्षि पातंजलि ने कहा भी है—’योगश्चित्त वृत्ति निरोधः’। चित्त वृत्ति के निरोध से ही योग की उत्पत्ति होती है और इसी की प्राप्ति ही योग का लक्ष है। गीता में भगवान कृष्ण ने योग की महत्ता बतलाते हुए कहा है कि यद्यपि मन चंचल है फिर भी योगाभ्यास तथा उसके द्वारा उत्पन्न वैराग्य द्वारा उसे वश में किया जा सकता है।

व्यावहारिक रूप में योग का तात्पर्य होता है जोड़ना या बाँधना। जिस प्रकार घोड़े को एक स्थान पर बाँधकर उसकी चपलता को नष्ट कर दिया जाता है उसी प्रकार योग द्वारा मन को सीमित किया जा सकता है। विस्तार पाकर मन आत्मा को आच्छादित न कर ले इसीलिए योग की सहायता आवश्यक भी हो जाती है। भक्तियोग और राज योग से ऊपर उठकर त्रिकाल योग के दर्शन होते हैं और यही सर्वश्रेष्ठ योग है।

इन्हीं तीनों योगों का व्यावहारिक साधारणीकरण कर्म योग है और आज के संघर्षमय युग में कर्मयोग ही सबसे पुण्य साधना है। संसार और उसकी यथार्थता ही कर्मयोगी का कार्यक्षेत्र है। फल के प्रति उदासीन रहकर कर्म के प्रति जागरुक होकर ही मनुष्य क्रमशः मन पर विजय पाता है और परमात्मा से अपना संबन्ध सुदृढ़ करता है। कर्म योग की प्रेरणा किसी कर्मयोगी के जीवन को आदर्श मानकर ही प्राप्त होती है। अपने कर्त्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विषय जन्य भावनाओं के प्रति निरासक्ति ही कर्म योग की पहली सीढ़ी है।

कर्मयोगी के जीवन में निराशा अथवा असफलता के लिए कोई स्थान नहीं क्योंकि एक तो वह इनकी सत्ता ही स्वीकार नहीं करता और दूसरे उसकी दृष्टि कर्म से ऊपर उठकर परिणाम तक पहुँच ही नहीं पाती। यहाँ तक कि सच्चा कर्मयोगी परमात्मा की प्राप्ति के प्रति भी वीतराग हो जाता है। उस स्थिति पर ‘तस्माद्योगी भवार्जुन’ के अनुसार कर्मयोगी वह पद प्राप्त कर लेता है जहाँ ‘मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं जैसे रश्मि प्रकाश’ के रूप में आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता।

पार्थिव शरीर को जगत के लिए उपयोगी बनाने एवं उसके उपरान्त मुक्ति प्राप्त करने का एकमात्र साधन योग है और योगों में श्रेष्ठ योग है

‘कर्म योग‘


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