गायत्री उपनिषद्

October 1952

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(गताँक से आगे)

ब्रह्म जब तक अपने आप में केन्द्रित था, तब तक कोई पदार्थ न था। जब उसने “एकोऽहं बहुस्याम” की इच्छा की, एक से बहुत बनने का उपक्रम किया तो उस इच्छाशक्ति के कारण सृष्टि उत्पन्न हुई। जब ब्रह्म ने उस सृष्टि का साक्षात्कार किया तो उसमें उसे तीन वस्तुएं प्रधान दिखाई दीं (1) श्री (2) प्रतिष्ठा (3) आयातन अर्थात् ज्ञान। इन विलक्षण सुख सामग्रियों को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए ब्रह्म ने कहा—तप करो। अर्थात् तन्मयता पूर्वक श्रम करो। यह किस प्रकार, सम्भव है? तप से अभीष्ट वस्तुएं किस प्रकार प्राप्त हो सकती हैं? उसका भी ब्रह्म ने बड़े सुन्दर ढंग से स्पष्टीकरण कर दिया। यदि तप का व्रत धारण किया जाय, तप को—रुचिपूर्वक, श्रम शीलता को अपना स्वभाव बना लिया जाय तो अवश्य ही सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है। अवश्य ही सही मार्ग मिल जाता है ओर उस मार्ग पर चलता हुआ प्राणी अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है।

अब इस श्री प्रतिष्ठा और ज्ञान का अधिकारी कौन नियुक्त किया जाय? इन विलक्षण सुख साधना का अधिकारी हर कोई नहीं हो सकता। सविता ने-परमात्मा ने अपनी सत शक्ति से ब्राह्मण को बनाया और उसको सावित्री से घेर दिया। जिसमें सत् तत्व विशेष है, जो ब्रह्म परायण है वह व्यक्ति ब्राह्मण है, ऐसे व्यक्ति ईश्वरीय दिव्य भावों से, दिव्य शक्तियों से घिरे रहते हैं, उन्हें ही श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान की प्राप्ति होती है, वे ही उनका सदुपयोग करके लाभान्वित होते हैं, अन्यों को इन तीनों का अधिकार नहीं है। यदि बलात्, अनधिकृत रूप से कोई इन्हें प्राप्त कर लेता है तो उसके लिए यह वस्तुएँ विपत्ति रूप बन जाती हैं।

आसुरी भावनाओं से आच्छादित मनुष्य तपस्वी नहीं होते। जिससे उचित मार्ग से, तप द्वारा, ईमानदारी से इन वस्तुओं को प्राप्त करें। वे अवैधानिक रूप से, अनुचित मार्ग से चालाकी से इन्हें प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में वह श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान उनके खुद के लिए तथा अन्य लोगों के लिए विपत्ति का कारण बनाते हैं। आज हम देखते हैं कि धनी लोग, धन संग्रह के लिए कैसे-कैसे अनुचित तरीके अपनाते हैं और फिर उस संचित धन को कैसे अनुचित मार्ग में खर्च करते हैं। अपनी प्रतिष्ठा का दुरुपयोग करने वाले नेता, महात्मा, साधु-संन्यासी आदि की संख्या कम नहीं है, लोग औंधे सीधे मार्ग से नामवरी और वाहवाही लूटने के लिए प्रयत्न करते हैं। ज्ञान का दुरुपयोग करने वालों की तो कमी है ही नहीं। झूठे को सच्चा और सच्चे को झूठा सिद्ध करने वाले वकीलों की कमी नहीं है। अश्लील, कुरुचिपूर्ण पुस्तकें लिखने वाले लेखक, चित्रकार कम नहीं हैं, झूठी विज्ञापन बाजी करके अपनी ज्ञान शक्ति का दुरुपयोग करने वालों की संख्या पर्याप्त है। ऐसे असत् प्रकृति के लोगों को जब यह तीन शक्तियों मिल जाती हैं तो वे उनका दुरुपयोग करते हैं। दुरुपयोग का निश्चित परिणाम उसका छिन जाता है। प्रकृति का नियम है कि वह अयोग्य हाथों में किसी वस्तु को अधिक समय नहीं रहने देती।

जो ब्राह्मण हैं, ब्रह्म प्रकृति के हैं ब्रह्म ने उन्हें ही उपरोक्त तीन लाभों का स्थायी अधिकारी बनाया है। यही ईश्वरीय नियम है। जिन्हें स्थायी रूप से श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान का अधिकारी बनना हो, सदा के लिए इनका रसास्वादन करना हो, उन्हें ब्राह्मण बनना चाहिए। अपने गुण, कर्म स्वभावों में ब्राह्मी भावों की प्रधानता रखनी चाहिए। तभी यह तीनों तत्व उनके पास स्थायी रूप से ठहरेंगे।

(क्रमश.)


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