प्रेम पथ की यात्रा

October 1952

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती)

दिव्य प्रेम ही विशुद्ध प्रेम है। यह एक सच्चे भक्त का भगवान के प्रति उसके हृदय तल से सहज स्नेह और भक्ति का प्रवाह है। संसार में एकमात्र सारवस्तु प्रेम ही है। यह नित्य, अनन्त और क्षय रहित है। शारीरिक प्रेम तो काम का विकार और मोह का उन्माद है। विश्व प्रेम सच्चा है। ईश्वर प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है। स्वार्थपरता, लोभ, अहंकार, मिथ्याभिमान और घृणा हृदय को संकुचित करते हैं और विश्व प्रेम के विकास के मार्ग में बाधक हैं। हमें निस्वार्थ सेवा, महात्माओं के साथ सत्संग, प्रार्थना और गुरु मन्त्र द्वारा विश्व प्रेम को शनैः—शनैः बढ़ाना चाहिए।

जबकि स्वार्थपरता से हृदय संकुचित हो जाता है तो मनुष्य पहले केवल अपनी स्त्री, बच्चों थोड़े मित्रों और रिश्तेदारों से ही प्रेम करता है जैसे-जैसे उसका विकास होता जाता है तैसे-तैसे वह अपने जिले के तथा अपने प्रान्त के लोगों से प्रेम करने लगता है। तत्पश्चात् वह अपने देश के लोगों के प्रति प्रेम बढ़ाता है, इसी प्रकार वह देशवासियों से भी प्रेम करने लगता है। अन्त में वह सबसे प्रेम करना आरम्भ करता है। इस प्रकार जब वह विश्व प्रेम का विकास करता है तब उसके प्रतिबन्ध टूट जाते हैं। उसका हृदय असीम रूप से विकसित हो जाता है।

विश्व प्रेम की बात करना आसान है, किन्तु जब तुम इसे कार्य रूप में लाना चाहते हो तो यह अत्यधिक कठिन हो जाता है। सब प्रकार की तुच्छ हृदयता रास्ते में आ खड़ी हो जाती है। पुराने भ्रमपूर्ण संस्कार जिनको कि तुमने पहले अपने गलत विचारों से उत्पन्न कर लिया है, रोड़ा अटकाते हैं। सुदृढ़ निश्चय, बलवान इच्छाशक्ति, धैर्य, सन्तोष और विचार द्वारा तुम बिलकुल सरलता से सब विघ्नों को जीत सकते हो। मेरे प्रिय मित्र! यदि तुम सच्चे हो तो तुम्हें भगवान कृपा प्राप्त होगी।

विश्व प्रेम ही अन्त में आत्मदर्शी ऋषि, मुनियों की औपनिषदिक चेतना अथवा अद्वैत निष्ठा या एकता में समाप्त हो जाता है। साम्य अवस्था की प्राप्ति के लिए शुद्ध प्रेम बड़ा ही शक्ति सम्पन्न होता है। यह समानता और अंतःदृष्टि प्राप्त करता है मीरा, गौराँग महाप्रभु, तुकाराम, रामदास, हाफिज, कबीर—इन सबने इस विश्व प्रेम का आस्वादन किया था। विश्व प्रेम के एक ही आलिंगन में सब भेद-भाव और तुच्छ मायिक विभिन्नताएँ भूल जाती हैं। सर्वत्र प्रेम का ही साम्राज्य रह जाता है।

हम लोगों में ऐसे कौन है जो ईश्वर प्रेम या दिव्य प्रेम के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए सचमुच में विकल रहा करते हैं। हम लोग यही जानने के लिए उत्सुक रहा करते हैं कि आपका ‘इम्पीरियल बैंक’ में कितना रुपया जमा है? हमारे विरुद्ध यह बात किसने कही? क्या आप जानते हैं कि मैं कौन हूँ? आपकी स्त्री तथा बच्चे कैसे हैं? मेरे प्यारे भाइयों! इन प्रश्नों को तो हम पूछते हैं किन्तु यह हममें से कितने लोग पूछते हैं कि “मैं कौन हूँ? यह संसार क्या है? बन्धन क्या है? मुक्ति क्या है? मैं कहाँ से आया हूँ? ईश्वर कौन है? ईश्वर के क्या गुण हैं? हमारा ईश्वर से क्या सम्बन्ध है? मोक्ष किस प्रकार मिले?”

सत्संगति अर्थात् साधुओं और भक्तों की संगति विश्व प्रेम बढ़ाने में बहुत ही सहायक है। साधुओं की गोष्ठी में भगवद् चर्चा ही होती रहती है जो हृदय और कानों को बहुत प्रिय होती है। जगाई मघाई का उद्धार और डाकू रत्नाकर के पाप पूर्ण जीवन से छुटकारा ये साधु संग के परम कल्याणकारी होने के ज्वलन्त दृष्टान्त हैं।

प्यारे मित्रो! खड़े हो जाओ। खूब संघर्ष करो, दृढ़ता से अग्रसर हो। अहंकार, स्वार्थपरता, अभिमान, और घृणा को निर्मल करो। प्रेम करो। दान दो। सेवा करो। इस ‘द’ त्रैत की याद कर लो “दत्त दया दम” अर्थात् दान दो। दया करो । इन्द्रियों का दमन करो।

इस बात का भी अभ्यास डालो कि जो सेवाएँ तुम करते हो उसके बदले में कृतज्ञता स्तुति और धन्यवाद की आशा मत करो। प्रत्येक वस्तु को भगवान के चरण कमलों में भेंट चढ़ा दो। इस मंत्र को अपनाओ “प्रेम के लिए ही प्रेम करना-काम के लिए ही काम करना”।

एक सच्चे वैष्णव बन जाओ। पैर से कुचली हुई घास से भी विनम्र बनो, वृक्ष से भी अधिक सहनशील बनो। दूसरों से मान प्राप्त करने की चिन्ता न करो । प्रत्युत अन्य सबको मान दो।

सदैव हरि नाम का गान करो और मनुष्य वास्तव में परमात्मा का स्वरूप है ऐसा समझ कर उनकी सेवा करो तभी आप शीघ्रता पूर्वक विश्व प्रेम प्राप्त करोगे। आपको हरि के दर्शन होंगे। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ यही आपको अमरतत्व और चिर शान्ति प्रदान करेगा।


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