सिर पर वरद-हस्त जननी का (Kavita)

October 1952

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जीवन पथ पर निविड़ निशा में,

छा जाते जब संकट-बादल,

विकट परिस्थिति संघर्षमय,

कर देती मानव-उर व्याकुल।

एकाकी असहाय जीव तब,

बन जाता बालक सा निश्छल,

आती माँ की याद अचानक,

बहता निर्झर सा आँसू-जल॥

वही साँत्वना मय कुछ बूँदें,

हर लेतीं तब आतप जी का

पाकर केवल एक सहारा,

सिर पर वरद-हस्त जननी का॥

विजन विपिन की तरु-छाया में,

बैठा योगी ध्यानावस्थित,

छोड़-छाड़ जनपद-कोलाहल,

बनता उदासीन किसके हित। शीत-ग्रीष्म,

सुख-दुख में भी वह,

होता नहीं तनिक भी विचलित

बतलाओ है समय कौन सा,

पाता जब वह फल, मन-वांछित?

पा लेता है शान्ति-कोष वह,

तज कर भंगुर सुख धरती का।

हो जाता कृत-कृत्य प्राप्त कर,

सिर पर वरद-हस्त जननी का॥

शैशव में जिसकी गोदी ने,

कभी हँसाया कभी रुलाया, विद्या,

बुद्धि, शक्ति, सुख देकर,

मानव तन को श्रेष्ठ बनाया।

जिसने सागर, थल,

अम्बर में, अपना ही कौतुक फैलाया,

पाकर जिसकी कृपा, लोक यह,

सदा देव-दुर्लभ कहलाया॥

हमने सदा भुलाया फिर भी,

पाया नित्य स्नेह उसी का।

देता रहा विश्व को जीवन,

सिर पर वरद-हस्त जननी का॥

(श्री हरगोविन्द ठाकुर, इटैलिया)


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