नयस्यन्ते ये नराः पादान् प्रकृत्याज्ञानुसारतः। स्वस्थाः सन्तुस्तु ने नूनं रोग मुक्ता भवन्ति हि॥ अर्थ—जो मनुष्य प्रकृति के नियमानुसार आहार-विहार करते हैं वे रोगों से छुटकारा पाते हैं और सदा स्वस्थ रहते हैं।
स्वास्थ्य मनुष्य जीवन की प्रधान सम्पदा है। यह सम्पत्ति जिसके पास है वह आर्थिक, पारिवारिक आदि, अनेक कठिनाइयों के रहते हुए भी भली प्रकार जीवन यापन कर सकता है किन्तु जिसका स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ है, जो रोग ग्रस्त है, जिसका शरीर दुर्बल, अशक्त एवं पीड़ित है वह अन्य सब सुविधाओं के होते हुए भी सदैव दीन-हीन, बेचैन एवं दुखी रहता है। इसलिए जिन्हें जीवन का आनन्द लेने की इच्छा है उन्हें सबसे पहले अपने स्वास्थ्य को सम्भालने की, उसे स्थिर करने और बढ़ाने की आवश्यकता होती है।
यह विचारणीय बात है कि हम रोगी क्यों होते हैं? यदि रोगी होने का कारण समझ में आ जाय तो फिर उससे छुटकारा पाना भी कुछ कठिन न रहे। इस सम्बन्ध में हमें मनुष्येत्तर अन्य जीव जन्तुओं की गति-विधि पर दृष्टिपात करना होगा। हम देखते हैं कि जंगलों में रहने वाले समस्त पशु-पक्षी जीवन भर निरोग रहते हैं। कबूतर, मोर, साँप, छिपकली, कीट, पतंग आदि किसी भी जीव पर दृष्टिपात कीजिए किसी को न तो कभी बीमारी होती है और न दवा-दारु की जरूरत पड़ती है। कारण यह है कि वह प्रकृति माता की आज्ञा का पालन करते हैं, अपना आहार-विहार स्वाभाविक रखते हैं, इसके बदले में प्रकृति माता भी उन्हें स्वस्थता का अक्षय वरदान देती है।
मनुष्य अन्य जीव जन्तुओं की अपेक्षा बुद्धिमान है। परन्तु प्रकृति के नियमों की उपेक्षा करके कृत्रिम एवं अस्वाभाविक आहार-विहार अपनाने में उसने जो बुद्धिमत्ता दिखलाई है वह ‘मूर्खता’ से भी महंगी पड़ी है। मनुष्य जाति दिन-दिन अल्पजीवी, कमजोर, रोगग्रस्त होती जा रही है। यों अस्पताल और डॉक्टर आँधी-तूफान की तरह बढ़ते जा रहे हैं। पर उनसे बीमारी और कमजोरी की बढ़ोतरी में कोई कमी नहीं हो रही है। दवा-दारु से एक रोग जब तक दब नहीं पाता तब तक दूसरा नया रोग उभर पड़ता है। मनुष्य ने अपना जीवन क्रम प्रकृति नियमों के प्रतिकूल बनाया है इसका दण्ड उसे अस्वस्थता के रूप में मिला है। अपने को ही नहीं उसने अपने पालतू, संपर्क में रहने वाले पशु-पक्षियों को भी अपनी बुराइयाँ देकर इनमें भी तरह-तरह की बुराइयों का प्रवेश करा दिया है।
लोग बीमारी से छुटकारा पाने और बल बढ़ाने के लिए वैद्य, डाक्टरों की देहरी की धूल चाटते फिरते हैं। हजारों रुपये पानी की तरह बहाते हैं, तरह-तरह के खाद्य पदार्थ और नाना गुण−दोष वाली दवाइयों की तलाश करते रहते हैं। पर इस मृग-मरीचिका में उनके हाथ निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता। कारण यह है कि स्वास्थ्य कोई खोजने की वस्तु नहीं है वह तो हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, प्रकृति माता ने वह तो आरम्भ से ही परिपूर्ण मात्रा में प्रदान किया है। उसे सुरक्षित रखने के लिए किसी बाहरी प्रयत्न की जरूरत नहीं है। केवल इस बात की आवश्यकता है कि हम अपने शरीर पर अत्याचार करना, अपनी इन्द्रिय शक्तियों का दुरुपयोग करना बन्द कर दें। इतना करने मात्र से बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधर सकता है, और सुधरा हुआ स्वास्थ्य बढ़ सकता है।
यदि हम दीर्घजीवी रहना चाहते हैं तो सबसे पहले जिह्वा, इन्द्रिय और कामेन्द्रिय का दुरुपयोग छोड़ना पड़ेगा। पेट में भूख न रहते हुए भी लोग स्वादवश अनावश्यक भोजन ढूँढ़ते रहते हैं, भोजन को अपने स्वाभाविक रूप से विकृत करके उसे जायके के लिए ऐसा भूनते, जलाते, सड़ाते एवं बिगाड़ते हैं कि उसके पोषण तत्व नष्ट होकर वह केवल भूख बुझाने वाला बोझ मात्र रह जाता है। इन दोनों बुराइयों से बचने की आवश्यकता है। भोजन तभी किया जाय जब कड़ाके की भूख लगी हो, पेट की आवश्यकता और पुकार पर ही ग्रास तोड़ा जाय नहीं तो स्वाद की दृष्टि से तो अनावश्यक अमृत को भी ठुकरा देना चाहिए। जो भोजन किया जाय यथासंभव सजीव हो। फल, दूध, हरे शाक, भाजी, मेवे, पानी में भिगोए हुए अन्न भोजन का मुख्य भाग होना चाहिए यदि किसी चीज को पकाना ही पड़े तो पानी में उबाल लेना या थोड़ा सेक लेना पर्याप्त है। घी तेल में तली हुई, बहुत जलाई भुनी हुई, बासी, मसाले और चीनी मिलाकर जायकेदार बनाई हुई, नशीली, माँस आदि अभक्ष चीजें शरीर को लाभ के स्थान पर हानि ही पहुँचाती हैं। इसलिए सात्विक, स्वाभाविक, सजीव आहार यदि खूब भूख लगने पर, अच्छी तरह चबाकर और अन्न को अमृत बुद्धि और ईश्वर प्रसाद की भावना के साथ ग्रहण किया जाय तो वह साधारण कोटि का होते हुए भी बहुत बलपूर्वक बन जाता है।
काम वासना का अमर्यादित सेवन मौत की घंटी है। अन्य पशु-पक्षी इस सम्बन्ध में पूर्ण संयम से काम लेते हैं। जब मादा का शरीर सन्तानोत्पत्ति के लिए उत्तेजित होता है केवल तभी नर उससे काम सेवन करते हैं। इसके बाद मादा तो दूसरा बच्चा उत्पन्न करने की आवश्यकता होने तक मैथुन का नाम भी नहीं लेती। दूसरी ओर नर चाहे कितना ही तरुण हो, पर जब तक मादा की ओर से काम सेवन की स्पष्ट प्रेरणा न हो कभी विकार ग्रस्त नहीं होता। नर और मादा साथ-साथ रहते हैं, चरते हैं और उठते बैठते हैं पर अनावश्यक मैथुन की कोई प्रवृत्ति उनमें नहीं होती। यही क्रम मनुष्य का होना चाहिए। उचित तो यह है कि मनुष्य पशुओं से अधिक श्रेष्ठ, अधिक बुद्धिमान होने के कारण उसे और भी अधिक संयमशीलता और ब्रह्मचर्य का परिचय देना चाहिए। यदि अधिक न हो सके तो कम से कम उतना तो आवश्यक ही है। असंयम और अमर्यादित वासना पूर्ति के कारण आज नर और नारी दोनों की ही शक्तियों का बेतरह क्षरण हो रहा है और जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों की बाढ़ सी आ रही है। अनावश्यक और असंस्कृत बच्चे मनुष्य जाति के लिए अभिशाप हो रहे हैं। अधिक बच्चे मनुष्य की आर्थिक, शारीरिक और मानसिक स्थिति को बिगाड़ते हैं और उसका स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।
जिह्वा इन्द्रिय और कामेन्द्रिय पर संयम प्राप्त करना प्रकृति के अनुसरण का प्रधान कार्य है। इसके अतिरिक्त अपनी दिनचर्या को ठीक रखना सामर्थ्य से अधिक या कम काम न करना, चिन्ताओं और कुविचारों को मन से दूर रखना, पूरी निद्रा लेना, खेल कूद एवं मनोरञ्जन की समुचित व्यवस्था रखना, ऋतुओं के प्रभाव सहने का अभ्यास करना, अधिक कपड़े न पहनना, आँखों को गैस बिजली आदि के तीव्र प्रकाश से बचाना, मस्तिष्क से बहुत अधिक श्रम न करना, स्वच्छ जलवायु का सेवन, खुली हवा में रहना, सब वस्तुएँ साफ सुथरी निर्मल रखना, रात में अधिक न जागना, कुसंग से बचना आदि बातें भी प्राकृतिक जीवन के आवश्यक अंग हैं। इन सब बातों को अपनाकर हम प्रकृति माता को प्रसन्न कर सकते हैं और ऐसा स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं जो आसानी से नष्ट न हो सकेगा। कभी कोई अस्वस्थता आ भी जाय तो उपवास, वस्ति, फलाहार, जल, मिट्टी, भाप आदि के प्राकृतिक उपायों से सहज ही रोग मुक्ति हो सकते हैं।
गायत्री का आठवाँ “ण्यं” अक्षर हमें स्वस्थ रहने की महत्ता और उसकी प्राप्ति का सारा रहस्य बता देता है। इस अमूल्य शिक्षा को जो अपनाता है वह गायत्री का भक्त है और उसे माता की ओर से निरोगता का वरदान तत्काल प्राप्त होता है।