तृष्णा पिशाचिनी

October 1952

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(पं. लक्ष्मण नरायण गर्दे)

तृष्णा मनुष्य-जीवन की सबसे नीचे की तह है। इससे और नीचे कोई उत्तर नहीं हो सकता। इसके शीतपंक और अन्धकूप में उसी अन्धी दुनिया के जीव-जन्तु रेंगा करते हैं। विषय तृष्णा, द्वेष, लोलुपता, अतिमान, दम्य, लोभ, प्रतिशोध, प्रतिद्वन्द्विता, दीर्घद्वेष, शठे शाठय, झूठी निन्दा, पीठ पीछे निन्दा, असत्य भाषण, चोरी, धोखेबाजी, दगाबाजी, क्रूरता, डाह—ये ही सब हैं वे पाशविक मोहान्ध मनोवृत्तियाँ जो तृष्णा के तहखाने में बसती ओर मानव मन के इस घोर वन में एक दूसरे को खाती और एक दूसरे का भक्ष्य बनती हुई विचार करती हैं।

अनुपात, क्लेश और दुःख की काली मनहूस सूरतें भी वहाँ रहती हैं और शोक, संताप और विलाप की प्रेतों जैसी आकृतियाँ भी।

इस अंधेरी दुनिया में मूर्ख ही जीया और मरा करते हैं, उन्हें पवित्रता की शान्ति कभी नहीं मिलती न उस भगवत्प्रकाश का आनन्द मिलता है सदा ही उनके ऊपर फैला तो रहता है पर वे उसे देख नहीं पाते, क्योंकि उनकी आंखें ऊपर को देखती ही नहीं, नीचे की ही ओर—रक्त, माँस, मूत्र, पुरीष के पिण्ड की ओर झुकी रहती हैं।

पर ज्ञानी ऊपर की ओर देखते हैं। उन्हें विषय तृष्णा का जीवन नहीं भाता, उनके पग उठते हैं शाँति के ऊर्ध्व जगत् की ओर, जिसका प्रकाश और वैभव पहले तो बहुत दूर टिमटिमाता सा दीख पड़ता है, पर ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते हैं त्यों-त्यों उसकी जगमगाहट बढ़ती ही जाती है।

स्वार्थपरता के अंतर्जगत् का मूल अज्ञान परमात्मा के विधान का, परमात्मा की दया का और पवित्रता और शान्ति के मार्ग का। तृष्णा अँधेरी रात है, आत्मविस्मृति के अन्धकार में ही यह बढ़ती और फलती-फूलती है। आत्म ज्योति के प्रकाश में इसका प्रवेश नहीं। प्रबुद्ध मन से अन्धकार दूर हो जाता है, शुद्ध हृदय में तृष्णा के लिए कोई स्थान नहीं होता।

सब प्रकार की तृष्णा मन की एक प्यास है, बुखार है, यन्त्रणा से व्याकुल कर देने वाली एक विकलता है। जैसी आग किसी भव्य हवन को जला कर भस्म कर देती है वैसे ही तृष्णा की आग से मनुष्य जल जाते हैं और उनकी आशाएँ राख के ढेर हो जाती हैं।

यदि कोई शान्ति चाहता है तो उसे तृष्णा से बाहर निकल आना होगा। ज्ञानी वही है जो अपनी तृष्णा को अपने वश में करता है ओर मूर्ख वह जो तृष्णा के वश में हो जाता है। ज्ञान की जिसको चाह है उसका प्रयास मूर्खता की ओर पीठ फेरने के साथ आरम्भ होता है। शान्ति को चाहने वाला उस रास्ते पर आ जाता है जो शान्ति का रास्ता है और इस रास्ते पर एक-एक कदम जो वह चलता है उसके साथ तृष्णा और निराशा का अन्धकूप नीचे ही छूटता जाता है।

ज्ञान और शान्ति के इस उच्च स्थान की ओर जाने वाले रास्ते पर जो पहला कदम रखता है वह स्वार्थपरता की अन्धता और दुर्गति को समझ लेता है, जब वह समझ लिया तब उसे जीतना—उसमें से निकल आना—आरम्भ होता है।

जो मनुष्य सदा दूसरों की स्वार्थपरता को देखा करता है वह ऐसा करने से अपनी स्वार्थपरता से मुक्त नहीं होता दूसरों को स्वार्थपरता का दोष लगाने से नहीं बल्कि अपने आपको शुद्ध करने से हम स्वार्थपरता से मुक्त हो सकते हैं। तृष्णा से निकल कर शान्ति के रास्ते पर आना दूसरों पर चोट करने वाले अभियोग से बनता है। दूसरों की स्वार्थ परता को वश में करने के लिए अधीर होकर यत्न करने से हम तो तृष्णा में बँधे रह जाते हैं, और अपनी स्वार्थपरता धीरतापूर्वक जीतने से हम मुक्ति के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं। जिसने अपने आपको वश में कर लिया हो वही दूसरों को वश में कर सकता है, और वह दूसरों को वश में करता है तृष्णा से नहीं बल्कि प्रेम से।

मूर्ख मनुष्य दूसरों पर दोष लगाता और अपने आपको निर्दोष बतलाता है, पर जो ज्ञान के रास्ते पर चलता है वह दूसरों को निर्दोष और अपने आपको दोषी बतलाता है। तृष्णा से निकल कर शान्ति के रास्ते पर आना संसार के बाह्य जगत की चीज नहीं है, यह विचारों का अंतर्जगत है, यहाँ दूसरों के चरित्रों को बदलने का काम नहीं है, बल्कि अपने ही चरित्र को सुधार कर आदर्श बनाने का काम है।

तृष्णा के वश में रहने वाला मनुष्य प्रायः दूसरों को ही दुरुस्त करने की सोचा करता है और ज्ञान के रास्ते पर चलने वाला मनुष्य अपने आपको सुधारा करता है। यदि कोई सचमुच ही संसार को सुधारना चाहता हो तो उसे पहले अपने आपको सुधार लेना चाहिए। केवल स्थूल विषय भोग से विरक्त होना ही आत्म-सुधार की पराकाष्ठा नहीं है, यह आरम्भ मात्र है और इसका परम उत्कर्ष तब समझना चाहिए जब कोई भी व्यर्थ विचार और स्वार्थ का हेतु मन में न रह जाय। पूर्ण पवित्रता और पूर्ण ज्ञान जब तक नहीं है तब मनोजय में कोई न कोई त्रुटि है, कोई न कोई मूर्खता है जिसे जीतना होगा।

तृष्णा वह जलता हुआ मशाल है जो स्वर्ग-द्वार की रक्षा करता है। मूर्खों को यह अन्दर नहीं आने देता, बाहर ही जला डालता है और बुद्धिमानों को स्वागत करता और सुरक्षित रखता है।

मूर्ख वही है जो अपने ही अज्ञान के फैले हुए जाल को नहीं समझता, जो अपने स्वार्थों का दास बना रहता है और तृष्णा के उद्रेकों पर नाचा करता है।

बुद्धिमान वही है जो अपने अज्ञान को समझता है, जो स्वार्थ भरे विचारों में छिछलापन देखता है, जो अपनी तृष्णा के उद्रेकों को अपने वश में करता है।

मूर्ख अपने अज्ञान की अधिकाधिक गहराई में उतरता है, बुद्धिमान उच्च से उच्चतर ज्ञान में आरोहण करता है।

मूर्ख कामना करता, दुःख उठाता और मरता है। बुद्धिमान शुभेच्छा करता, सुखी होता और जीता रहता है।

ज्ञान प्राप्ति का दृढ़ संकल्प धारण कर और मनश्चक्षु को ऊपर की ओर उठाये आध्यात्मिक योद्धा ऊपर जाने वाले रास्ते को देख पाता और अपनी दृष्टि शान्ति के शिखर पर चढ़ता है।


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