प्रत्यक्ष देवता की पूजा

October 1952

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(श्री दानेश्वर शर्मा, बी.ए.)

कथा है कि एक बालक ने अपने पिता जी को पूजा बीच नैवेद्य लगाते हुए देखा। जिज्ञासा बालकों की प्रवृत्ति है। उसने पिता जी से इसका मतलब पूछा। वात्सल्य प्रेमानुरक्त पिता ने बताया कि वह नैवेद्य ईश्वर को समर्पित किया जाता है और फिर उनका झूठन प्रसाद के रूप में लिया जाता है। बालक ही तो था, बात लग गई। दूसरे दिन उसने भी वही नाटक रचा। पूजा की सामग्री एवं नैवेद्य लेकर वह ईश्वर की मूर्ति के सामने बैठ गया। स्वभावानुसार पूजा करने के उपरान्त उसने दही का नैवेद्य लगाया और आँख मींचकर ईश्वर को दही खाने के लिए विवश करने लगा। साम, दाम में सफल न होते देखकर उसने वशीकरण का तीसरा प्रयोग अर्थात् दण्ड का उपक्रम किया। ईश्वर तुझे दण्ड अपेक्षित है या यह नैवेद्य? लकड़ी उसने हाथ में ले ली। प्रहार करने ही वाला था कि ईश्वर साकार होकर दही पीने लगे। ‘अरे सब को पी जाओगे या मेरे लिये भी कुछ रखोगे।’ एक मुस्कान के मध्य शेष दही भक्त वत्सल ने भक्त के लिए रख दिया।

यह एक कहानी है। भक्तगण इस कथा में भक्तिरस की प्रधानता देखेंगे। योगीजन योगीराज की लीला और अन्य उपासक अन्य ही विशिष्ट बातें। मैं यह समझता हूँ कि यह प्रत्यक्ष पूजा है जोकि उस अप्रत्यक्ष की प्राप्ति का एक साधन है।

प्रत्यक्ष- पूजा जो कि मेरा प्रतिपाद्य विषय है हमारे लिए कोई ऐसी वस्तु नहीं। चारों युग में हम इसका अस्तित्व देखते हैं।

सतयुग में प्रत्यक्ष सत्य की आराधना आज के ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ के तद्रूप था। अतः यहाँ तो कोई झगड़ा नहीं। त्रेता में, भरत, लक्ष्मणादि ने पुरुषोत्तम राम को- उस राम को जो सर्व मानवीय गुणों की प्रतिमूर्त्ति थे- सर्वस्व माना। उन्हें स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी अन्य देव की आराधना अपेक्षित न थी। राम ने भी जनता को जनार्दन माना। प्रजा उनकी सर्वस्व थी। प्रेमीजन ईश्वर को पूर्ण एवं अपने को अंश मानते हैं। राम ने भी अपनी प्रजा को ईश्वर समझा। प्रत्यक्ष पूजा के वे विधायक बने। अन्यत्र देखिए, सागर लाँघने के लिए उन्होंने अप्रत्यक्ष एवं निर्विकार देव की उपासना नहीं की। अर्चना की तो सागर ही की। छोड़िये त्रेता को।

अब आई द्वापर-युग में। ब्रज के नागरिक गोपजन आज यथाशक्ति पकवान तैयार किये हैं—क्षीरान्न मिष्ठान और न मालूम कितनी तरह के। आज इन्द्र पूजा जो है। अचानक युग-प्रवर्त्तक कृष्ण का ध्यान इस पर पड़ा।

“यह क्या है बाबा? आज क्या कोई त्यौहार है” “बेटा! आज इन्द्र की पूजा-दिवस है। उनकी पूजा कर हम यथासाध्य नैवेद्य से उनको खुश करेंगे जिससे वे प्रसन्न होकर वर्षा करेंगे—सामयिक वर्षा, जिससे गोवंश की पुष्टि होगी।”

कृष्ण मुस्कराये। देवता भी घूँस लेते है? और उस दिन ब्रज के इतिहास में एक महान परिवर्तन हुआ प्रत्यक्ष-पूजा की परिपाटी चल पड़ी। इन्द्र के स्थान में गोवर्धन पहाड़ की पूजा होने लगी। अप्रत्यक्ष के स्थान में प्रत्यक्ष की पूजा-एक युगपुरुष द्वारा संचालन हुआ।

इस विषम युग में गाँधी युग-पुरुष हुए। सत्य और अहिंसा दो शस्त्र लेकर वे संसार में कूद पड़े। सत्य और अहिंसा ऐसे अस्त्र हैं जो दोनों ढाल और तलवार का काम करते हैं। पात्र की रक्षा और कुपात्र का विनाश। पर सत्य अहिंसा का प्रयोग ईश्वर (अप्रत्यक्ष) के लिए नहीं किया जाता। किया जाता है अपने समान भाइयों के लिए। लोग एक दूसरे के प्रति सत्य और अहिंसा का व्यवहार करें और तब देखिए कि इस अर्चना का क्या परिणाम होगा। यह एक महान यज्ञ होगा। आप पूछेंगे-क्या इससे ईश्वर का प्रादुर्भाव होगा? मैं कहूँगा कि एक नहीं अनेक। पूर्ण जगत तद्रूप हो जाएगा। “सीय राम-मय सब जग जानी” और ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ की अवस्था आ जायगी।

परन्तु यह सब अभी स्वप्न है। आज की कंटकाकीर्ण दुनिया को नष्ट करना होगा। प्रत्यक्ष मानवों की पूजा आरम्भ कीजिए। सहृदय होकर अपने निकट के भाइयों की भावनाएं जीतिए। उनको भी प्रत्यक्ष पूजा, जन पूजा का पाठ पढ़ाइए और तब देखिए क्या आनन्द आता है। प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक के सुख और दुख का भागीदार होगा। इससे दुख की मात्रा तो घटेगी ही पर सुख की मात्रा और बढ़ जायगी। पूरी दुनिया एक कुटुम्ब हो जायगी। भारतीय संस्कृति का आदर्श ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उस वक्त स्वरूप दिखाई पड़ेगा। परन्तु जब तक हममें क्रियात्मक शक्ति नहीं आएगी तब तक ये ख्याली पुलाव हैं। आप यह न समझें कि हम इस वस्तु से सर्वथा अपरिचित हैं। कमजोरी यह है कि ध्यान नहीं देते। हमारे पाश्चात्य भाई तो इस वस्तु को-प्रत्यक्ष पूजा के रहस्य को समझते हैं। इस अवसर पर मुझे एक अंग्रेज कवि लेल्ट की एक कविता याद आती है। कविता का शीर्षक है “आदम का पुत्र अबू।” दस बारह पंक्तियों की इस कविता में जो रहस्य भरा है उसकी सराहना किये बिना मैं नहीं रह सकता। कविता कहानी के रूप में है--

“अबू ने एक रात देखा कि चन्द्र किरण को अधिक प्रकाशित करता हुआ एक दिव्य पुरुष उसके कक्ष में बैठकर कनक- पुस्तिका में कुछ लिख रहा है। अबू को पूछने पर मालूम हुआ कि वह उन लोगों का नाम लिख रहा है जो ईश्वर के प्रेमी हैं। यह भी मालूम हुआ कि उसका नाम उसमें नहीं है। पर इससे अबू अनुत्साहित नहीं हुआ। वह प्रसन्न मुद्रा से उस दिव्य पुरुष से कहने लगा—”कृपया मेरा नाम उन लोगों के साथ लिख लीजिए जो कि उनके निर्मित जीवधारियों को प्रेम करते हैं।” दिव्य पुरुष ने लिख लिया। दूसरे दिन उस दिव्य पुरुष ने अबू को उन लोगों की नामावली दिखाई जिन्हें कि ईश्वरीय-प्रेम का आशीर्वाद मिला था। और उसमें अबू का नाम सबसे पहले था।”

कितना महान आदर्श भरा है इस छोटी सी कविता में। गागर में सागर इसी को कहा जाता है। जीवन का परम रहस्य, परमानन्द का पथ प्रदर्शक प्रत्यक्ष-पूजा यही है। इसे चाहें आप प्रत्यक्ष पूजा कहें या जप-पूजा या व्यक्ति-पूजा। क्योंकि ईश्वर की इकाई है मानव, और मानव की इकाई है समष्टि।


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