व्यर्थ की चिंताएं मत कीजिए।

October 1952

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)

इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री विन्स्टन चर्चिल दिन-रात के चौबीस घण्टों में 18 घण्टे परिश्रम करने के आदि रहें हैं। उनसे जब पूछा गया कि क्या चिन्ता ने कभी उन पर आक्रमण किया है, तो उन्होंने उत्तर दिया-”मेरे पास इतना काम है कि चिन्ता करने के लिए समय ही नहीं मिल पाता।” चिन्ता फालतू आलसी निष्क्रिय मन का एक विकार है। कमजोर तबियत के व्यक्ति जब खाली होते हैं, तो बजाय उन्नत पहलू देने के, वे अपने विरोध, भय, दुःख, क्लेश की बातें सोचा करते हैं। जिनके पास पर्याप्त कार्य हैं उन्हें चिन्ता जैसे विलास के लिए कहाँ अवकाश है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक लुई पाश्चर ने कहा है कि शान्ति दो ही स्थानों पर रह सकती है, पुस्तकालय में अथवा वैज्ञानिक प्रयोगशाला में। इन दोनों स्थानों में क्यों शान्ति की कल्पना की गई है? कारण इन दोनों में कार्य करने वाले व्यक्ति अपनी पुस्तकों तथा अनुसंधानों में इतने निमग्न रहते हैं कि उनके पास चिन्ता करने के लिए अवकाश ही नहीं रहता। अनुसंधान में रत व्यक्तिओं को स्नायविक दौरे नहीं पड़ते। चिंता जैसी व्यर्थ सारहीन चीज के लिए उनके पास समय नहीं बचता।

यह बात मनोविज्ञान की दृष्टि से ठीक नहीं है। चाहे किसी का मस्तिष्क कितना ही तेज बुद्धि, कुशाग्र क्यों न हो, दिमाग एक समय में एक ही बात पर केन्द्रित हो सकता है। जब आप अपने कार्य में सुई की तरह गढ़ जाते हैं, फिर मन की शक्तियों के चिंता के विषयों पर सोचने-विचारने का अवसर नहीं प्राप्त होता। काम में तन्मय हो जाना, रुचि और उत्साह से उसे पूर्ण करने का प्रयत्न करना चिंता से बचने का श्रेष्ठ उपाय है।

जौन कूपर पौव्प्त अपनी पुस्तक “अप्रिय को कैसे भूलें?” में लिखते हैं—’जब मनुष्य का मन किसी रुचिनुकूल कार्य में तन्मयता से लग जाता है, तो उसे एक प्रकार की आराम देने वाला संरक्षण, एक आन्तरिक शान्ति, एक आनन्ददायक विस्मृति का अनुभव होता है। उसके चिन्ता वाले तनाव का भी बन्धन टूट जाता है।’

ओसा जौनसन कहा करते थे—’ मुझे संसार की इस कर्मस्थली में कार्य में निमग्न हो जाना चाहिए, अन्यथा मैं निराशा तथा चिन्ता में घुल जाऊँगा।’

बात ठीक भी है। यदि हम आप किसी कार्य में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को व्यस्त न रखें, यदि हम बैठकर गढ़े मुर्दे उखाड़ने लगे, दुखद प्रसंगों का स्मरण कर रोते रहें तो हमारा जीना ही दुष्कर हो जाएगा।

बर्नार्डशा ने सही कहा है—”दुखी रहने का सीधा मार्ग यह है कि आप इस चिन्ता में जाय कि मैं प्रसन्न हूँ या दुखी?’ अतः अहितकर चिंतन के लिए मन को ढीला छोड़ देना ही मूर्खता है। आइए, फालतू बैठने के स्थान पर किसी कार्य में व्यस्त हो जायं- अपना कमरा ही साफ कर लें, रुमाल ही धो डालें, बाहर से सब्जी ले आयें या अपने जूते पर पालिश ही कर लें। कार्य चाहिए। जहाँ आप किसी कार्य में लिप्त हुए कि चिन्ता भागी। यह सबसे सस्ती दवाई है जिससे चिन्ता की पुरानी शत्रुता है। चिन्ता से बचने के लिए कार्य-पढ़ाई लिखाई, घरेलू काम, बच्चों से खेल-कूद, गायन या बागवानी से लगे रहें।

कुछ व्यक्तियों की यह आदत होती है कि वे आने वाले भय को बहुत बढ़ा चढ़ा कर तिल का ताड़ बना कर देखते हैं। 4 शताब्दी पूर्व पेरक्लीज ने कहा था ‘सज्जनों हमारी बड़ी मानसिक कमजोरी यह है कि हम बैठकर छोटी-छोटी सी बातों की चिन्ता में समय नष्ट कर देते हैं।’ वास्तव में यदि हम अपनी चिन्ताओं को उनके ठीक रूप में देखें, तो हमें विदित होगा कि वास्तव में ये छोटी-छोटी चीजें है जो हमें परेशान करती रहती हैं।

डिजरायली ने कहा-’जीवन ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिए चिन्तित रहने के लिए नहीं है। जीवन महान है। वह साधारण बातों में विनष्ट होने के लिए कदापि नहीं बना है।’ ऐन्ड्र मौरिस ने उक्त शब्दों के महत्व का निर्देश करते हुए कहा कि इन शब्दों ने मुझे जीवन के अनेक कारुणिक और चिन्तनीय स्थलों में सहायता की है। अनेक बार हम गहराई से न सोचने के कारण या दूरदृष्टि के अभाव में ऐसी बातों की चिन्ता में फस जाते है, जिन्हें हम भूलना चाहते हैं और जिनसे हम घृणा करते हैं। हम इस संसार में तीस-चालीस वर्ष और मजा लूटेंगे। हमारी ये छोटी-छोटी क्षुद्र चिंताएं काल के प्रवाह में स्वयं विलुप्त हो जायेंगी। हम क्यों जीवन के बहुमूल्य क्षण छोटे-छोटे चिन्ता उत्पन्न करने वाले कार्यों की बातें सोच-सोच कर क्यों बरबाद करें? समय स्वयं इन्हें अपने अन्दर आत्मसात कर लेगा। अधिक ऊँचे प्रश्न, उच्च स्तर की जीवन सम्बन्धी समस्याओं में हमें संलग्न रहना उचित है।

अनेक मनुष्यों को मिथ्या भय और चिन्ताएँ रहती हैं उनके भय, निराशा, शंका, चिन्ता आदि कल्पित बन्धनों पर आधारित होती हैं। वे इन थोथे बन्धनों में बँधे रहते हैं। अपने आने वाले लाभों और उन्नति के स्थान पर ये लोग मन की व्यथा, पीड़ा, रोग, कष्ट, भय आदि के बावत सोचा करते हैं। निन्यानवे प्रतिशत भय ऐसे हैं, जो आगे आते ही नहीं। यदि हम अपने इन कल्पित शत्रुओं को पराजित कर दें, तो सुव्यवस्थित जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

ईश्वर की इस सर्वांगपूर्ण सुन्दर सृष्टि में आसानी से नष्ट होने वाली कोई चीज नहीं है। वह पूर्णता से भरी है। जेनरल जार्ज क्रुक लिखते हैं— “मेरा सब दुख, चिन्ताएँ वास्तविक स्थिति से उत्पन्न न होकर कल्पित भयों से उत्पन्न हुए।” इसीलिए शेक्सपीयर ने कहा है कि कायर आदमी मौत से पहले कई बार मर चुके होते हैं—इसी ख्याल से कि मौत अब आई- अब आई बहादुर आदमी तो एक बार ही मरता है जबकि साक्षात् मृत्यु उसे घेर लेती है।

जो होना है, वह होकर रहेगा। यदि भवितव्यता निश्चय है, यदि आने वाली दुर्घटना, दुःख भरे अवसर आने ही वाले हैं, उनसे नहीं बचा जा सकता तो उनसे मेल कर लेना ही ठीक है। मेल करने से तात्पर्य यह है कि आप अपने आपको उसी स्थिति में समझ लीजिए। जिन बातों को आप अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के बावजूद बदल नहीं सकते और जो आपके हाथ की बात नहीं है, उनके विषय में चिन्तित होने से क्या लाभ? चिन्तित होकर तो जो रहा सहा है, उसका भी आनन्द न आयेगा।

महात्मा ईसा का नैतिक साहस इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों से लिखा रहेगा। मानवता ने उनके साथ जो व्यवहार किया वह पाशविक था, किन्तु उन्होंने बड़ी मनः शान्ति से उसे सहन किया। सुकरात के सामने मृत्यु दण्ड के फलस्वरूप जब विष का प्याला लाया गया। जेलर ने विष का प्याला उसे पीने के लिए देते हुए कहा, ‘जो कुछ होने वाला है उसे निश्चिन्त होकर सहन करो।’ सुकरात ने निश्चिन्तता से प्याला पी लिया और शक्ति से निर्भयता पूर्वक मृत्यु प्राप्त की। वह जिसे बदल न सका, उसे शान्ति से सहन किया। जो होना है, उसे होने दीजिए। प्रयत्नों द्वारा स्थिति को सुधारने का प्रयत्न कीजिए। चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं।

जो घटनाएं हो चुकी हैं, जो वर्ष दिन या घंटे हमारे हाथ से छूटे हुए तीर की भाँति अब हमारे वश की बात नहीं रहे है, उन पर हमारा क्या अधिकार हो सकता है? हम उन्हें किस प्रकार वापस ला सकते हैं? किसी भी प्रकार नहीं। यह मुमकिन नहीं कि उन दिनों को हम दुबारा पा सकें, जो हम एक बार कर चुके हैं। जो घटनाएँ व्यतीत हो चुकी है, हम उन्हें दूर नहीं कर सकते। हाँ उनके अभावों को थोड़ा बहुत सुधार अवश्य सकते हैं।

परमेश्वर की आनन्दमयी सृष्टि में पुराने अनुभवों से केवल एक ही लाभ सम्भव है। पुराने अनुभवों का विश्लेषण कर हम अपनी वे गलतियाँ मालूम कर सकते हैं, जिनके कारण हमें हानि उठानी पड़ती है। इन गलतियों से लाभ उठा कर उन्हें विस्मृति के गर्भ में विलीन कर देने में ही श्रेष्ठता है।

जब मन में पुरानी दुखद स्मृतियाँ सजग हों, तो उन्हें भुला देने में ही श्रेष्ठता है। अप्रिय बात को भुलाना आवश्यक है। भुलाना उतना ही जरूरी है, जितना अच्छी बात का स्मरण करना। जब खेत में घास फूस उग आती है, तो आप उसे उखाड़ फेंकते है। घृणित, क्रोधी, ईर्ष्यालु, व्यथाजनक स्मृतियाँ उन्हीं कंटकों की तरह हैं, जो अन्तः करण शक्ति का क्षय कर देती हैं। हम घृणित चिन्ताजनक अनुभूतियों को पुनः पुनः याद कर अपने चहुँओर एक मानसिक नर्क निर्मित कर उसी में दुखी पीड़ित होते रहते हैं।

अमेरिका के एक प्रमुख डॉक्टर ‘मेडिकल टाक’ नामक पत्र में लिखते है कि ‘वर्षों के अनुभव के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि दुःख और चिन्ता दूर करने के लिए ‘भूल जाओ’ से बढ़कर कोई दवा नहीं है, अपने लेख में वे लिखते हैं—

“यदि तुम शरीर से, मन, से और आचरण से स्वस्थ होना चाहते हो अस्वस्थता की सारी बातें भूल जाओ।”

नित्य प्रति के जीवन में छोटी-मोटी चिन्ताओं को लेकर झींकते मत रहो। उन्हें भूल जाओ। उन्हें पोसो मत। अपने अव्यक्त या अन्तस्थल में पालकर मत रखो। उन्हें अन्दर से निकाल फेंको और भूल जाओ। उन्हें स्मृति से मिटा दो।

दुःख की, चिन्ता की, बीमारी की बातें न करो, न सुनो। स्वास्थ्य की, आनन्द और प्रेम की, शान्ति और सौहार्द्र की बातें करो और उन्हीं को सुनो। देखोगे कि तुम स्वास्थ्य लाभ करोगे, आनन्द लाभ करोगे, प्रेम पाओगे, शान्ति पाओगे।


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