आज के मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता

June 1952

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

यदि आज के सभ्य मानव का अन्तः करण चीर कर उसके अन्तः प्रदेश का विश्लेषण किया जाय तो हमें उसकी विक्षुब्धता, अन्तर्द्वन्द्व, मनोवेगों का संघर्ष एवं इच्छाओं का नर्तन देखकर आश्चर्य में आ जाना पड़ेगा। ऊपर से सभ्यता का आवरण पहिन अपनी सम्पूर्ण शिक्षा-संस्कृति के मद में चूर वह अनेकों दुरभिसन्धि, प्रताड़ना, अवसाद, व्यक्ति-क्रम, प्रवंचना, दुर्वाद, परछिद्रान्वेषण, स्वार्थ सिद्धि से आवृत है, तो दूसरी ओर आर्थिक चिन्ताओं की मृगतृष्णा में आच्छन्न है। वह छल, ठगी, धूर्तता से स्वार्थ सिद्धि करना चाहता है। दूसरों को नीचे छोड़ उनकी सुख सुविधा का विचार न कर वह आनन्द की ओर दौड़ता है। उसके पूरे जीवन का पर्यवसान अतृप्ति तथा अशान्ति में होता है।

वासना-मूलक अशान्ति :- अशान्ति का प्रारम्भ वासना की प्रदीप्ति से होता है। जिस अवस्था में वासना का ताण्डव नहीं है, वह शान्ति और प्रसन्नता में व्यतीत होता है। इच्छाओं का आवेग धीमा रहता है। साधारण वस्तुओं के प्रति क्षणिक आकर्षण होता है किन्तु बच्चे को जिद की वस्तु प्राप्त होते ही थोड़ी देर के लिए परितुष्टि का अनुभव होता है। बच्चा सहृदय शान्त, प्रसन्नचित, सुखी जीवन व्यतीत करता है। उसका आन्तरिक जगत् जटिल मानसिक यंत्रणाओं से मुक्त है। वह न किसी से प्रतिशोध लेना चाहता है, न वैर रखता है। उसे आर्थिक, सामाजिक वासना जन्य चिन्ताएँ नहीं होती।

यौवन के प्रारम्भ के साथ वासना की उदीप्ति होती है। वासना भड़क उठती है। दूसरे लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षण होने लगता है। पुरुष स्त्री के प्रति तथा स्त्री पुरुष के प्रति आकर्षित होती है। यह आकर्षण मनः शान्ति को भंग करने का प्रथम केन्द्र है। जब वासना का लगाव या सम्बन्ध प्रारम्भ होता है, तो अशान्ति, अतृप्ति, मायाजाल और सैकड़ों बन्धनों का भी प्रारम्भ हो जाता है। वासना मनुष्य को संसार के मायाजाल से जकड़ने वाली जंजीर है। यह एक ऐसा पत्थर है, जिसे गले में बाँधे मनुष्य इधर से उधर भाराक्रान्त हुआ मारा फिरता है वासना वह नशा है जो हमें पागल कर देता है और मन की शान्ति को भंग करता है।

वासना अपने पूरे जोर पर यौवन काल में रहती हैं। युवक वासना की उत्तेजना से अशान्त रहते हैं। जहाँ उन्हें सुन्दरता दीखती है, वहीं रुककर वे उसके प्रति आकर्षित हो जाते हैं। स्त्री को पुरुष का पुरुष को स्त्रियों का आकर्षण तथातत् सम्बन्धी उत्तेजक वासनामूलक स्मृतियाँ अनन्त मधुर वेदनाओं से भर देती हैं। हृदय में असंख्य हिलोरे उठा करती हैं। वासना भी प्रवंचना निर्वाणोन्मुख दीपशिखा की भाँति भटकती है।

संसार में अतृप्त कौन है? अशान्ति किसे सबसे अधिक है? इसका एक मात्र उत्तर है-वासना के चंगुल में फँसा हुआ युवक, युवती। ये दोनों वासना की उत्तेजना से जीवन संघर्ष में फँसते हैं। विवाह एक सामाजिक बन्धन के रूप से उनके ऊपर असंख्य उत्तरदायित्व लाता है। विवाह का तात्पर्य है सन्तानोत्पत्ति। संतान दुःख का साधन है। संतान का उत्तरदायित्व, भोजन, वस्त्र, मकान, शिक्षा, विवाह इत्यादि की नाना चिंताएं मनुष्य की संतान के साथ संयुक्त हैं। जो व्यक्ति जितना विलासी है, भोग में जितना अधिक लिप्त रहता है, उसे ईश्वरीय सजा के रूप में उतने ही बच्चों के भरण पोषण तथा समाज में स्थापन का भार प्राप्त होता है। वासना से संतान और संतान से असंख्य चिंताएं चिंताओं से मनःशक्ति का भंग होना ये सब घटनाएं परस्पर एक दूसरे से संयुक्त हैं। मृगजल सी ये छाया इच्छाएं मानस सरिता में लहराती हैं।

वासना का प्रक्षालन ही इन तमाम उत्पातों से बचने का उपाय हो सकता है। जो व्यक्ति समझते हैं कि विवाह कर लेने से वे वासना से मुक्त हो सकेंगे, वासना शान्त हो जायगी, वे भूल करते हैं। वासना विष भरी बेल है। एक बार जड़ पकड़ने या ढील देने से यह बुरी तरह फैलता है। “आज आनन्द कर लें, कल से इन्द्रिय निग्रह करेंगे” ऐसा सोचने वाले अपने निश्चय को ढीला कर देते हैं और आजन्म इन्द्रिय लोलुपता के कुचक्र में फँस कर मनः शान्ति को खो देते हैं।

कितने परिताप का विषय है कि इन्द्रिय लोलुपता, भोगविलास, अश्लीलता को प्रोत्साहन देने वाले साधन आजकल बहुत बढ़ गये हैं। समस्त उत्पातों की जड़ सिनेमा है। सिनेमा की अर्द्धनग्न तस्वीरें, प्रेम सम्बन्धी गन्दी कहानियाँ, गन्दे गाने तथा कुसंग का प्रलोभन आज जितना है, उतना कभी नहीं रहा है। विकारों की उत्तेजना पैदा करने वाला सिनेमा है। यह मोहक स्वप्नों का एक ऐसा संसार बनाता है, जो अमिट लालसा, तृष्णाओं की सृष्टि करता है, मन नाना इन्द्रजाल बुनता है, जिसमें उद्याम वासना शत शत फन फैलाये हमारी बुद्धि को निगलने को तैयार रहती है। इन्हीं माया जाल के चक्र में सौरभ-मृग सा अंधा होकर युवक इन्द्रिय सुख के पीछे दौड़ा-दौड़ा फिरता है।

यश, धन, तथा मद द्वारा अशान्ति :- इसी आयु में मनः शक्ति को नष्ट करने वाले और कई प्रलोभन मन में प्रविष्ट होते हैं। प्रथम मद है आर्थिक शक्ति की उपासना। मैं समाज में बड़ा कहलाऊँ, लोग मेरा आदर करें। रुपया होने से मैं आदर का पात्र बन सकूँगा। ‘ऐसे अनेक विचार मनः शक्ति को भंग करते हैं। यश, लाभ, सामाजिक प्रतिष्ठा की अनेक योजनाएं मनुष्य बनाया करता है, जिनमें कुछ पूर्ण तथा कुछ कभी पूर्ण न होने वाली होती हैं। लाभ के लिए वह ऐसे अनेक व्यापारों में संलग्न होता है जहाँ से लाभ उठाने के लिए उसे प्राणपण से अपनी समस्त शक्तियाँ उसमें केन्द्रित करनी पड़ती हैं।

व्यापारी की मनः शक्ति सदा भंग रहती है। वह सोकर, जागकर, बैठकर और सदा सर्वदा अपने हानि लाभ के हवाई महल बनाया करता है। अमुक प्रकार लाभ कर लूँ, अमुक से अधिक झपट लूँ, इस वस्तु को ऐसे बेचूँ, इस प्रकार काला बाजार करूं- ऐसी अनेक धूमिल योजनाएँ उसके मनः क्षेत्र में टकराया करती हैं। उसके प्राण उस पूँजी में लगे रहते हैं, जिसे उसने व्यापार में लगाया है तथा जिसका बढ़ना घटना उसके जीवन मरण का प्रश्न है। यदि उसे व्यापार में लाभ भी हो रहा है, तो वह और लाभ के लोभ में लगा है, यदि हानि है तो बाजार में अपनी साख स्थिर रखने की फिक्र में है। व्यापार एक ऐसा सर दर्द है, जो सदैव आन्तरिक शक्ति को भंग किये रखता है।

व्यापारी की लोभ वृत्ति, अन्तः शक्ति को भंग करने का कारण है, तो उच्च पदाधिकारियों अफसर, वकील, प्रोफेसर, इंजीनियर डॉक्टर इत्यादि अधिक वेतन प्राप्त करने वालों का दंभ और मद उनकी चिन्ता का विषय है। वे समाज के सम्मुख अपना झूठा, अतिरंजित, आकर्षक रूप प्रस्तुत करना चाहते हैं जब कि वस्तुतः अन्दर से वे खोखले, आर्थिक चिन्ताओं से आक्रान्त, फैशन के बाह्य चटकीलेपन में ग्रस्त हैं। उनकी आवश्यकताएँ इतनी बढ़ी हुई हैं कि उनकी पूर्ति के लिए उसी अनुपात में वे धन कमा नहीं पाते। उनकी विलासिता ही उनकी मनः शक्ति को भंग करने वाली राक्षसी है। उन्हें अच्छे वस्त्र चाहिए, आलीशान मकान चाहिए, दूसरों के सामने शान-शौकत प्रदर्शित करने वाले नाना उपकरण चाहिए। उनकी धर्म पत्नियों को आधुनिक फैशन के असंख्य प्रसाधन चाहिए। यह वर्ग थोथी शान, मिथ्या आवश्यकताओं, बाह्याडम्बर, आर्थिक चिन्ताओं, व्यसनों के कारण अशान्त रहता है।

यदि कोई वर्ग शान्त, सन्तोषी और निर्भय हो सकता है तो वह श्रमिक वर्ग है। उनकी थोड़ी सी आवश्यकता हैं, सरल आडम्बर विहीन जीवन है, व्यर्थ ही शान, शौकत दिखावों से वे दूर रह सकते हैं। यदि वे व्यसनों तथा वासना लोलुपता से रक्षा कर सकें तो श्रमिक वर्ग का जीवन मनः शान्ति पूर्ण हो सकता है। लेकिन हम देखते हैं कि उनमें अशिक्षा है। वे अंधविश्वासी, व्यसनी, उजड्ड, अल्पज्ञ मूर्ख हैं। उन्हें आसानी से मूर्ख बनाकर उनका सर्वस्व अपहरण किया जा सकता है। उनका अज्ञान इतना घना है कि वह उन्हें यह प्रतीत नहीं होने देता कि वे ही सरल, संतुष्ट, शांत जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

मनः शान्ति प्राप्त करने के नियम :- ईश्वरीय सृष्टि का कुछ ऐसा नियम है कि जितनी साँसारिकता बढ़ती है, उतनी ही मनः शक्ति नष्ट होती है। मनुष्य जितना दुनिया की भाग दौड़, संघर्ष, रुपये के लोभ, लालच, वासना, झूठी शान, मिथ्या आडम्बर, विलासिता व्यसन में फंसता है, उसी अनुपात में वह अशान्त रहता है।

जगत् में सर्वत्र महंगाई :- महंगाई की पुकार है। वास्तव में महंगाई विलासिता के ऊपर है। जिन्हें कृत्रिम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नाना प्रकार की सामग्रियाँ चाहिए, वे ही दुखी और अशान्त हैं। यदि व्यर्थ की चीजों का परित्याग कर हम आत्म नियंत्रण करें, अपनी शौकीनी को वश में रखें और साँसारिकता छोड़ दें तो मनः शान्ति प्राप्त हो सकती है।

जीवन मुक्त वह पुरुष है, जिसमें साधारण मनो विकारों से उत्पन्न उत्तेजना नहीं है। उत्तेजक स्वभाव सबको शत्रु रूप में देखता है और प्रतिशोध, ईर्ष्या, आदि में उद्विग्न रहता है।

साँसारिकता को (अर्थात् अविद्या को) छोड़कर ज्यों-ज्यों मनुष्य आध्यात्मिक जीवन के समीप आता है उसे जगत् के मिथ्या तत्व का भान होता है। कंचन कामिनी तथा अन्य वस्तुओं का क्षणिक आनन्द दूर होकर वह ब्रह्मानन्द को ही अपने सुख का केन्द्र मानता है।

ज्यों-ज्यों मनुष्य बाहर जगत् में फैली हुई वृत्तियों को अन्तर्मुखी करता है,उसे संसार की तुच्छता का ज्ञान होता है। धीरे-धीरे उसे दैवी विचार तथा ब्रह्म चिन्तन में रस प्राप्त होने लगता है। उसके हृदय में दैवी विचारों का राज्य हो जाता है। “सब देवों का देव मेरे हृदय में विराजमान है” यह भाव जमते ही वह जगत की तुच्छता को समझ जाता है।


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