गत अंक में बताया जा चुका है कि तप के घर्षण से ही शक्ति उत्पन्न होती है। और उस शक्ति से ही संसार के सब कार्य चलते हैं। भौतिक संसार की भाँति आध्यात्मिक जगत् में भी यह नियम समान रूप से लागू होता है। मनुष्य की पाशविक मनोवृत्तियाँ उसे नीचे की ओर-पतन की ओर ले जाती हैं यदि उसे ऊँचा उठना है तो विशेष तत्परतापूर्वक प्रयत्न करना पड़ता है, इसे ही तप कहते हैं। पानी को कहीं भी छोड़िये वह नीचे ही बहेगा पर उसे नीचे की ओर से ऊपर की ओर ले जाना हो तो विशेष प्रयत्न करना पड़ेगा। ऊपर से कोई चीज छोड़ी जाय तो वह क्षण भर में नीचे गिर पड़ेगी किन्तु यदि नीचे से कोई चीज ऊपर ले जानी हो तो उसके लिए बहुत साधन एवं उपकरण एकत्रित करने पड़ेंगे। पतनोन्मुखी मनोवृत्तियों को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए तप ही एकमात्र उपाय माना गया है। मनुष्य के सामने दो मार्ग हैं- तप या पत, दोनों एक दूसरे के उलटे हैं। तप का अर्थ है ऊपर उठना, पत का अर्थ है पतित होना। जो तप नहीं करता उसे आध्यात्मिक पतन की ओर चलना पड़ेगा और जो आत्मिक पतन से बचना चाहता है उसे तपन के लिए अग्रसर होना पड़ेगा। दोनों में से एक ही मार्ग को चुना जा सकता है
यों अनेक धार्मिक प्रक्रियाएँ आत्म कल्याण के लिए बनाई गई हैं, उन सबके अपने-अपने महत्व हैं। कथा या सदुपदेश श्रवण करने से धार्मिक ज्ञान बढ़ता है तीर्थ यात्रा से पाप वासनाओं का शमन होता है, यज्ञ से देव शक्तियों का पोषण होता है, पाठ पूजा से भक्ति भावना जागृत होती है, दान-पुण्य से भविष्यकालीन सुख सौभाग्य का निर्माण होता है। यह सब कार्य अपने अपने महत्व के अनुसार फल देते हैं परन्तु एक कार्य ऐसा है जो इनमें से किसी से भी नहीं हो सकता वह है-शक्ति उत्पादन। यह कार्य केवल तप से ही हो सकता है। तप से ही आत्मबल बढ़ता है, तप से ही ब्रह्मतेज प्रदीप होता है, तप से ही दिव्यशक्ति की उपलब्धि होती है।
कोई मनुष्य अनेक वस्तुओं से सुसज्जित हो। उसे रेशमी कपड़े, स्वर्ण और रत्नों के बने आभूषण पुष्प मालाएँ, कस्तूरी चन्दन का सुवास, बढ़िया अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित करके बहुमूल्य पालकी में बिठाया जाये परन्तु उसके शरीर में शक्ति न हो, अशक्तता में वह जकड़ा हुआ हो तो वह सब सुसज्जा किसी काम का नहीं रहेगा। इसके विपरीत भी कोई हृष्ट-पुष्ट पहलवान यदि चिथड़े पहने हो तो भी वह अच्छी स्थिति में होगा। विविध प्रकार की धार्मिक क्रियाएँ एक प्रकार की सुसज्जा हैं जिनसे जीवात्मा की शोभा बढ़ती है परन्तु वह शोभा तभी विशेष उपयोगी हो सकती है जब उसके पीछे तपश्चर्या द्वारा संचित ब्रह्मशक्ति का भण्डार हो। यदि वह कोष खाली है तो शोभावर्धक अन्य धार्मिक उपकरणों से विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।
साधन सम्पन्न धनी मानी लोग, अपना थोड़ा सा समय और धन देकर आसानी से अन्य धार्मिक प्रक्रियाएँ पूरा का सकते हैं, तीर्थ यात्रा, ब्रह्मभोज, यज्ञ, कथा, दान, पूजा, पाठ आदि की व्यवस्था बड़ी आसानी से कर सकते हैं। इसमें उन्हें कोई विशेष धन द्वारा अपने शारीरिक एवं मानसिक श्रम से सम्भव होते हैं। इस क्षेत्र में अमीर गरीब का कोई भेद भाव नहीं है। भौतिक साधनों की अधिकता या न्यूनता से किसी की तप सामर्थ्य घटती बढ़ती नहीं है। तपश्चर्या की ओर अग्रसर होने के लिये पवित्रता, सात्विकता, श्रद्धा, दृढ़ता एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा की आवश्यकता होती है। अन्य धार्मिक क्रियाओं से केवल मनोभूमि निर्माण का कार्य होता है परन्तु तप तो बीज बोने के समान है जिसका पौधा उत्पन्न होना और उसका पत्र पल्लवों, फल-फूलों से लदना अवश्यम्भावी है।
तप एक पुरुषार्थ है जिसके द्वारा सिद्धि, शान्ति, समृद्धि, स्वर्ग एवं मुक्ति जैसी सफलताएँ उपार्जित की जाती हैं और पाप, ताप, विघ्न, संकट, प्रारब्ध एवं आसुरी तत्वों को परास्त करके अपने पौरुष का विजय घोष किया जाता है। कहते हैं कि ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करता है। बहादुर और उद्योगी को ही पुरस्कार मिलते हैं। ईश्वरीय कृपा और विशेष सहायता का अधिकारी वही व्यक्ति होता है जो तपश्चर्या द्वारा अपनी प्रामाणिकता सिद्ध कर देता है। अन्य धार्मिक क्रियाएँ करके पुण्य लाभ करने वाले व्यक्ति सीमित मर्यादा तक आत्मोन्नति कर लेते हैं परन्तु तप की शक्ति किसी भी सीमा या मर्यादा से बँधी हुई नहीं है। अष्ट-सिद्धि, नवनिद्धि उसके कर तल गत हो सकती हैं। वह अपने को पूर्णता के अन्तिम लक्ष तक पहुँचा सकता है और अपने तेज से अन्य अनेकों को प्रकाश एवं बल प्रदान कर सकता है।
तप की सर्वोपरि महत्ता एवं उपयोगिता निर्विवाद है। इसीलिए अनादि काल से लेकर अद्यावधि सभी श्रेयाकाँक्षी, तपश्चर्या का मार्ग अपनाते रहे हैं। तप के जितने मार्ग हैं उनमें गायत्री से बढ़ कर सुलभ सुनिश्चित एवं शीघ्र फलदायक और कोई मार्ग नहीं है। केवल हठयोग के षट्कर्मों से स्थूल शरीर का शोधन होता है। नेति, धोति, वस्ति, न्यौलि, कपालभाति, वज्रौली क्रियाएँ करने में खतरे बहुत और लाभ कम है। केवल नादयोग से सूक्ष्म संवादों, सन्देशों को मालूम करना ही सम्भव है, केवल दृष्टि वेध योग (मैस्मरेजम) से दूसरों पर कुछ चमत्कारी प्रभाव डाले जा सकते हैं। इसी प्रकार लय योग, ऋजु योग, अभिष्यन्द योग, पंचाग्नि योग, प्रत्यावर्तन योग आदि के द्वारा सफलता प्राप्त करने में पूर्ण कुशल गुरु की समीपता आवश्यक है। भूल होने में काफी खतरा है, इतने पर भी लाभ एकाँगी है। चौरासी योगों में केवल गायत्री योग ही ऐसा है जिसे गृही, विरागी सभी, समान सुविधा से कर सकते हैं। जिसके लिए गुरु की समीपता अनिवार्य नहीं केवल उसके संरक्षण से काम चल सकता है। भूल होने में अधिक से अधिक इतनी हानि हो सकती है कि साधना निष्फल चली जाय, अन्य योगों की भाँति उलटे अनिष्ट का तो किसी प्रकार कोई खतरा है ही नहीं। फिर इसके द्वारा जो लाभ होते हैं वह केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक ही नहीं वरन् दोनों क्षेत्रों में समान लाभ होते हैं। साधक के साँसारिक जीवन को सुखी बनाता है और आत्म-शान्ति की भी निश्चित रूप से उपलब्धि होती है।
अन्य योग एकांगी हैं, उनके अनुकूल साधना करने से एक- एक देह का, एक एक कोष एक- एक प्राण का, एक- एक चक्र का क्रमशः जागरण होता है। स्थूल देह, सूक्ष्म देह, कारण देह यह तीनों देहें त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों में साथ-साथ शुद्ध होती चलती हैं। इडा,पिंगला और सुषुम्ना का त्रिकोण साथ-साथ घूमता है। सत,रज,तम का समान सन्तुलन बनता है। ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि की खुलने की व्यवस्था एक साथ बनने लगती है। अन्य कोई योग या तप ऐसा नहीं है जो अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष को समान रूप से प्रस्फुटित करे या प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान इन पाँचों प्राणों का प्रत्यावर्तन कर दे। नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय इन पाँच उपप्राणों तक को केवल किसी एक साधना से निर्बंध कर देना कठिन है परन्तु गायत्री योग की तपस्या कठिनाई नहीं पड़ती, परन्तु तप के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसमें मन का निरोध, इन्द्रियों का संयम, कष्ट सहिष्णुता, तितीक्षा, त्याग, शम, दम, व्रत, उपवास, जप, धारणा, ध्यान, प्रत्याहार आदि अनेकों ऐसे कार्यों को अपनाना पड़ता है जो अमीर गरीब सभी को समान रूप से कष्ट साध्य होते हैं और वे करने पर यह सब कार्य एक साथ, एक समय में और एक समान गति से होते चलते हैं। पंच भूतों से मुक्ति का महान कार्य पंचमुखी गायत्री द्वारा ही होता है।
षटचक्रों का बंधन, कुण्डलिनी जागरण, खेचरी संदोह, सहस्रार कमल का प्रत्यवाय, ब्रह्मरंध्र का प्रतिबोध यह साधारण कार्य नहीं हैं, इन्हें अन्य योगों द्वारा कर सकना बहुत ही कठिन है,परन्तु गायत्री साधना द्वारा ऐसी संतुलित तपस्या होती है कि इन सभी महान् आध्यात्मिक केन्द्र बिन्दुओं का सरलतापूर्वक परिपाक होता चलता है। युग परिवर्तन के कारण वर्तमान काल की तात्विक सूक्ष्म स्थिति में जो हेर फेर हो गया है उसके कारण अन्य अनेक साधनाओं की उपयोगिता, संभावना एवं सफलता में भारी बाधा उत्पन्न हो गई है, किन्तु गायत्री साधना प्रत्येक युग के अनुकूल है। गायत्री के 24 अक्षरों के उच्चारण से 24 मर्म स्थानों में छिपे हुए 24 ग्रन्थि चक्र स्वयमेव जाग्रत होने आरम्भ हो जाते हैं जब कि अन्य विधानों से उनमें थोड़े से शक्तिचक्रों का भी जागृत होना कठिन होता है।
‘डायनुमा’ जब तक चलता रहता है तब तक वह निरंतर बिजली बनाता रहता है। गायत्री जप एक स्वसंचालित आध्यात्मिक डायनुमा है जिससे मनुष्य में सूक्ष्म शक्ति की असाधारण बढ़ोतरी होती हुई प्रत्यक्ष परिलक्षित होती है। तप के जितने भी लक्षण, विधान और साधन हैं वे सब गायत्री के साथ सम्बद्ध हो रहे हैं। इस महामन्त्र की शरण लेकर मनुष्य घर में, तपोवन गृहस्थ रहते हुए वैराग्य और सादा वस्त्र पहनते हुए महात्मा बन सकता है। तप की महिमा अपार है गायत्री तपस्या के रहस्य ऐसे हैं जिनका सम्पूर्ण ज्ञान तो मनुष्य बुद्धि के लिए संभव नहीं परन्तु इस उपासना के लाभों से लाभान्वित होना प्रत्येक श्रद्धालु एवं तपस्वी मनोवृत्ति के मनुष्य के लिए पूर्णतया संभव है।