पथिक (Kavita)

June 1952

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(श्री हरगोविन्द वर्मा, राठ)

राही साहस छोड़ न देना!

एकाकी बढ़ता जा अपने बीहड़ दुर्गम पथ पर।

स्थान दूर है देर न कर, रह चलने में ही तत्पर॥

होकर श्रम से कातर चलने से मुँह मोड़ न लेना!

राही साहस छोड़ न देना!

कहीं बितानी तुझे पड़ेगी, रात्रि दुःख-प्रद काली।

और साथ ही कहीं मिलेगी, वैभव की हरियाली॥

दुख से व्यग्र न होना, सुख से नाता जोड़ न लेना!

राही साहस छोड़ न देना!

हिंसक जीवों से डर कर के, अपना धैर्य न खोना।

सावधान रहना माया का, लख कर जादू-टोना॥

देख राह में इन्द्र-परी को रे व्रत छोड़ न देना!

राही साहस छोड़ न देना!

तेरे अटल-धैर्य के आगे, मार्ग सुगम सब होगा।

और शीघ्र ही पावन सारा, नर जीवन तब होगा॥

किन्तु कहीं पथ में ही प्रभु से, नाता तोड़ न लेना!

राही साहस छोड़ न देना!


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