सदा नियमित और कार्य संलग्न रहिए।

June 1952

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(पं. गौरी शंकर जी शुक्ल)

यदि दुर्भाग्य से तुम अपने को असाधारण बुद्धिवान समझने लग गये हो और यदि तुम्हारी ऐसी समझ हो कि तुम सब बातें अपने आप सीख जाओगे, तो यह विचार त्याग कर यदि शीघ्र सावधान हो जाओगे तो अच्छा है। यह निश्चय समझ लो कि जो कुछ प्राप्त करना हो वह उद्योग द्वारा प्राप्त करो, इस उद्योग रूपी धन का अभी से संग्रह करो। क्षुद्र कामों में तत्परता दिखलाने से बड़े बड़े कार्यों के करने का मार्ग मिलता है। केवल उद्योग से क्या-2 हो सकता है, इसे जानकर वास्तविक आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। प्राचीन काल में लोग बड़े बड़े ग्रन्थ लिखते थे, उन्हें देखकर हम आश्चर्य चकित होते हैं, परन्तु उन सबकी जड़ उद्योग है, इससे समस्त संशय कपाट खुल जाते हैं। जो पुरुष प्रतिदिन तीन घण्टे तेजी से चलेगा वह सात वर्ष में पृथ्वी के परिधि इतना मार्ग क्रमण कर लेगा। निरुपयोगी बनने से अधिक कोई बुरी दशा नहीं है, और इससे अधिक दुःखदायक अन्य कोई आदत नहीं। उसमें भी शीघ्र पड़ जाने और कठिनता से मुड़ने वाली आदत के जैसी अन्य कोई टेव नहीं।

निरुद्योगी मनुष्य शीघ्र ही शिथिल हो जाता है, उसकी वृत्तियाँ अर्धमृत जैसी हो जाती हैं और तब वह निम्न कथन के अनुसार चलने लगता है वह इस प्रकार कि “दौड़ने की अपेक्षा चलना अच्छा है, चलने की अपेक्षा स्थिर खड़ा रहना उससे भी अच्छा है, खड़े रहने की अपेक्षा बैठ जाना अच्छा है, और बैठने की अपेक्षा लेट जाना सबसे अच्छा है।” हमारे विचार से जो अतिशय निरुद्योगी है वह सबसे अधिक दया का पात्र है, कारण कि पागलपन से सुख होता है, यह जो कहा जाता है, उस प्रकार निरुद्योगीपने से जो दुःख उत्पन्न होते हैं उनकी कल्पना निरुद्योगी ही कर सकता है। हम जानते हैं कि बहुतेरे मनुष्य अनेक कार्यों में फँसे रहने के कारण उद्योगी नहीं होते। कारण यह है कि जो गड़बड़ में रहता है वह उद्योग से दूर रहता है। सुज्ञ पुरुष इन दोनों दशाओं का सहज ही तारतम्य कर लेंगे।

जो पुरुष अपने कर्तव्य-कर्म और वास्तविक उद्योग की उपेक्षा करता है, वह अपनी मूर्खता के विस्मरणार्थ कोई खटपट अवश्य अपने पीछे लगा लेता है और अपने वास्तविक आचरण से उसे बुरा न लगे अतः वास्तविक कर्त्तव्य त्याग कर कुछ उलटा ही करने लगता है। जो उद्योगी होता है, वास्तविक देखने पर, उसे अधिक अवकाश मिलता है कारण उसका समय भिन्न भिन्न विभागों में विभक्त रहता है, और प्रत्येक भाग में जो कुछ नियमित कार्य करने को होता है, वह कार्य समाप्त होते ही अवकाश मिल जाता है। निरुद्योगी मनुष्य आलस्य-ग्रस्त रहता है। तूफान नष्ट हो जाने पर जैसे समुद्र स्तब्ध हो जाता है तद्वत् निरुद्योगी मनुष्य की अवस्था होती है। मनुष्य के उद्योग रूपी जल का स्तब्ध रहने की अपेक्षा झपाटे के साथ, बाँध तोड़कर इधर उधर बहना अच्छा है। सेनेका नामक किसी तत्व वेत्ता ने अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था कि “किसी नवीन ग्रन्थ रचना किये अथवा किसी उत्तम को पढ़कर उसका तात्पर्य समझे बिना मेरा कोई दिन न बीता।’ उच्चता प्राप्त करने के लिए उद्योग की आवश्यकता है। जो पुरुष नियमित उद्योगी नहीं है, उसका जितना समय व्यर्थ जाता है, उसे देख तुम्हें आश्चर्य होगा।

अभ्यास और आदत के विषय में संकेत निश्चित कर उन्हें कागज पर लिख लेना सहज है, पर कठिन तो यही है कि कागज ही में रहते हैं कभी कभी ऐसा होता है कि वे संकेत एकदम सिद्ध न होने से हम सर्वथा निरन्तर परिश्रम करना छोड़ देते हैं। लूथर नामक एक खीष्ट धर्मोपदेशक ने देशाटन करते हुए तथा और और काम-धंधे करते हुए ही समग्र बाइबिल का अनुवाद कर डाला था, यह देख यूरोपवासी बड़े चकित हुए थे, पर इसका कारण एक शब्द मात्र से ज्ञात हो जाता है कि प्रतिदिन कुछ न कुछ करने का उसका दृढ़ निश्चय था। और जब कोई उससे पूछता कि यह अनुवाद कैसे कर लिया तो वह उत्तर देता कि “कुछ न कुछ अनुवाद किये बिना मैंने कोई दिन न जाने दिया” ऐसा करते पूर्ण अनुवाद हो गया।

समय का सदुपयोग करना एक भी क्षण निरर्थक न जाने देना, सदा कार्य संलग्न रहना एक बहुत ही महत्वपूर्ण गुण है इसे अपना कर मनुष्य उन्नति के उच्च शिखर पर आसानी से पहुँच सकता है।

गायत्री चर्चा


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