(श्री गिरीश देव वर्मा, बहराइच)
आत्म-कल्याण का उपाय केवल एक है और वह केवल भगवान को जान लेना। यह तो सभी जानते हैं कि ईश्वर सभी जगह रम रहा है मगर इतना जानने से उस परम पुरुष का ज्ञान नहीं होता है। उसके लिए ईश्वर का उत्कट प्रेम प्राप्त करना आवश्यक है। उसकी भक्ति करना अनिवार्य है। भक्ति का तात्पर्य केवल कर्मकाण्ड से नहीं है। तिलक लगाने, कण्ठी पहनने, गेरुआ कपड़ा रंगने से भी भक्ति नहीं होती है। भक्त तो भगवान के प्रति कहता है कि :—
याप्रीतिरविवेकनाँ विषयेष्वनपायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा में हृदयान्मापसर्पत्॥
मूर्ख मनुष्यों को इन्द्रिय भोग विषय के प्रति जिस प्रकार की प्रगाढ़ प्रीति होती है मेरे हृदय में तेरे लिये हे भगवान! वैसी ही प्रीति बनी रहे।
एक बार कोई शिष्य अपने गुरु के पास जाकर बोला प्रभो! भगवान का प्रेम प्राप्त करना चाहता हूँ उपाय बताइये। गुरु ने शिष्य की ओर देखा पर कुछ बोले नहीं, हंस कर रह गये। शिष्य रोज रोज आकर तंग करने लगा कि मुझे भगवान का प्रेम प्राप्त करा दीजिए। एक दिन गुरु उसको लेकर नदी की ओर गये और स्नान करने लगे। शिष्य ने ज्यों ही पानी में डुबकी लगाई कि गुरु ने आकर उसका गला धर दबाया। शिष्य ने पानी से निकलने के लिए खूब हाथापाई की, अन्त में गुरु ने उसे छोड़ दिया और पूछा कि जब तुम पानी में थे तब तुम्हें सब से अधिक किस चीज की जरूरत पड़ी थी। शिष्य ने उत्तर दिया ‘हवा की।’ गुरु ने कहा कि भगवान के लिए भी जब तुम इतने व्याकुल होंगे और संसार रूपी जल के ऊपर आना चाहोगे तब उसके प्रेम को पाओगे।
जब हृदय इतना व्याकुल हो जायगा तब भक्त के हृदय में केवल ईश्वर का ही ध्यान रहेगा। उसके मुँह से अनायास निकल जायगा कि—
“जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है”
फिर तो उसे उपनिषद् के यह वाक्य सत्य मालूम होंगे।
“ईशावास्यमिंदँ सर्व’ यक्तिञ्च जगत्याँ जगत्”
यह जो कुछ जगत में चराचर है सब ईश्वर से परिपूर्ण है। जब इस उच्च कोटि का वैराग्य हो जाता है तब न कोई चिन्ता है, न भय है, न अशक्ति है, न शोक है न मोह है और न ग्लानि है।
“तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः
इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भी छुट जाते हैं। इस उत्कृष्ट प्रेम को प्राप्त करने का सरल उपाय यह है कि सदैव मृत्यु को याद करते रहो। मृत्यु जब हर समय सामने खड़ी रहेगी तो मनुष्य से कोई पाप नहीं होगा। वह बराबर राम नाम लेता रहेगा। एकनाथ महाराज की एक कथा है। एक सज्जन ने उनसे पूछा कि “महाराज! आपका जीवन कितना सीधा, सादा, कितना निष्पाप, हमारा जीवन ऐसा क्यों नहीं, आप कभी क्रोध नहीं करते, किसी से झगड़ा नहीं करते, कितना शान्त,कितना प्रेम पूर्ण, कितना पवित्र है आपका जीवन “एक नाथ ने कहा।” फिलहाल मेरे बात रहने दो। तुम्हारे सम्बन्ध में मुझे एक बात मालूम हुई है। आज से सातवें दिन तुम्हारी मौत आ जायगी।” अब एकनाथ की बात को झूठ कौन माने। सात दिन में मृत्यु, सिर्फ 168 घन्टे ही बाकी रहे। हे भगवान! यह क्या अनर्थ! वह मनुष्य जल्दी जल्दी घर गया, कुछ सूझ नहीं पड़ता था कि क्या करे। आखिरी समय की, सब कुछ समेट लेने की बाते कर रहा था। अब बीमार हो गया। बिस्तर पर लेट गया। छः दिन बीत गये सात वे दिन एकनाथ उससे मिलने गये। उसने नमस्कार किया। एकनाथ ने पूछा कि क्या हाल है। उसने कहा कि “बस अब चला”। नाथ जी ने पूछा “इस छः दिन में कितना पाप किया? पाप के कितने विचार मन में आये?” वह आसन्न मरण व्यक्ति बोला ‘नाथ जी! पाप के विचार करने की तो बिल्कुल फुरसत ही नहीं मिली। मौत एक सी आँखों के सामने खड़ी थी। ‘नाथ जी ने कहा- ‘हमारा जीवन इतना निष्पाप क्यों है इसका उत्तर अब मिल गया न’ मरण रूपी शेर सामने खड़ा रहे तो फिर पाप सूझेगा किसे। पाप करने के लिए भी निश्चिन्तता चाहिए। मरण का सदैव स्मरण रखना पाप से मुक्त होने का उपाय है। यदि मौत सामने दीखती रहे तो मनुष्य किस बल पर पाप करेगा।
परन्तु मनुष्य मरण का स्मरण टालता है। पास्कल नामक फ्रेंच दार्शनिक ने कहा है कि मौत सदा पीछे खड़ी रहती है मगर मनुष्य उसको भूलने का प्रयत्न करता रहता है। यदि खाना खाते समय, शादी विवाह के अवसर पर किसी ने मौत का नाम ले लिया तो अशुभ माना जाता है। मगर वह एक कठोर सत्य है। हमारा एक एक कदम मौत की तरफ जा रहा है। बम्बई का टिकट कटाकर जब एक बार हम रेल में बैठ गये तो हम भले ही बैठे रहें, परन्तु गाड़ी हमें बम्बई ले जाकर छोड़ देगी। जन्म होते ही हमने मौत का टिकट लिया है। आप बैठे रहिए या दौड़ते रहिए तो भी मौत आयेगी। दौड़ते रहोगे तो भी आयेगी। आप मौत का विचार करें या न करें, वह आये बिना न रहेगी। मरण निश्चित है और बातें भले ही अनिश्चित हों। सूर्य अस्ताचल की ओर गया कि हमारी आयु का एक अंश खा जाता है। जीवन छीज रहा है,एक एक बूँद घट रहा है। जीवन, मृत्यु फिर जीवन, यह क्रम चला जा रहा है। यह मत समझ लो कि मरने के बाद छुट्टी मिल जायगी। जीवन की गंगा तो प्रभू से निकल कर प्रभू में ही मिलेगी। सुख-दुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, आशा-निराशा की जैसी जोड़ी है वैसी ही जन्म-मृत्यु की, न कि जीवन मृत्यु की। जो जन्मता है वह मरता है, जो मरता है वह जन्मता है।
“जन्म ही जीवन का आरम्भ नहीं है, न मृत्यु ही इसका अन्त है, जन्म और मृत्यु तो बस जीवन के एक अध्याय के अथ और इति है।”
इसलिये हमारा कर्तव्य है कि इस अमर अनन्त जीवन का यह छोटा सा अध्याय जो चल रहा है किसी प्रकार दूषित और कलंकित न होने पावे।
मनुष्य जीवन, को सुरदुर्लभ कहा जाता है। इसकी सफलता इसी में है कि चौरासी लाख के चक्र और भव बन्धन से अपने आपको मुक्त कर लिया जाय। यह कार्य आदर्श जीवन लोक सेवा आत्मज्ञान और ईश्वर उपासना द्वारा ही हो सकता है।