शरीर पूजा नहीं आत्म-प्रतिष्ठा

June 1952

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(श्री बाबा राघवदास जी)

‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण चगृह्यते।’

—गीता

मनुष्य का शरीर और आत्मा—ये दोनों अलग-अलग होते हुए भी जीवन काल में एक-दूसरे से इतने अभिन्न रहते हैं कि इनको दो कहने में संकोच होता है। शरीर के स्थूल, सूक्ष्म, कारण या महाकारण—कितने भी भेद किये जायँ, तो भी अजर-अमर से उनका इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि साधारण मनुष्य अपने चर्म-चक्षुओं से उनको आत्मा से अलग देखने में असमर्थ ही रहता है। आत्मा के बारे में हमारे उपनिषदों और स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ने जो कुछ प्रतिपादन किया है, वह संसार के लिये एक अमूल्य देन है। उससे अधिक आत्मा के विषय में कोई क्या कह सकता है? परन्तु शरीर के सम्बन्ध में लोग नित्य नये नये विचार करते रहते हैं। वर्तमान संसार में तो शरीर को लेकर नाना प्रकार के विचार हो रहे हैं। आजकल हम लोग जितने ‘वाद’ या ‘इज्म’ की बातें पढ़ते-सुनते हैं, वे सब शरीर के सम्बन्ध में किये गये विचार ही तो हैं। ‘शरीर’ शब्द से जिस प्रकार आयुर्वेदशास्त्र कथित शरीर का बोध होता है, उसी प्रकार उससे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, साँस्कृतिक अथवा साहित्यिक शरीर का भी बोध होता है। चूँकि आजकल इस भौतिक संसार में सर्वत्र राजनीति का ही बोलबाला है, इसलिए हम यहाँ राजनैतिक दृष्टिकोण से ही हमारा शरीर तथा साधना का यत्किंचित् विचार करें तो अनुचित न होगा।

राजनीति में आजकल शरीर की रक्षा तथा विनाश के लिए जितना विचार किया जाता है’ उतना शायद ही किसी दूसरे शास्त्र में किया जाता होगा। वर्तमान महायुद्ध इसका एक सुन्दर उदाहरण है। इन दिनों संसार के बड़े-बड़े आला दिमाग इसी योजना के अनुसन्धान में लगे हुये है कि कम-से-कम समय में लाखों अबाल-वृद्ध नर-नारियों के शरीर किस प्रकार नष्ट किये जा सकते हैं। इसी तरह दूसरी ओर संसार के अच्छे अच्छे मस्तिष्क छल-कपट और कूटनीति द्वारा अरबों भाई-बहिनों के शरीर को किस प्रकार पाला पोसा जा सकता है, इसका उपाय सोचने में लगे हैं। इन परस्पर विरोधी उद्योगों में मानव शरीर की विडम्बना भारी है या स्तुति, यही समझ में नहीं आता।

मनुष्य शरीर की जो यह दुर्गति या अन्ध पूजा हो रही है, उसे देखकर मन में यह भाव आता है कि यदि इन दोनों के बीच का रास्ता—मध्यम मार्ग निकल आता तो उससे जगत् का वास्तविक कल्याण होता। यहीं ‘साधना’ का प्रश्न उपस्थित होता है। संसार के सभी सन्तों ने चाहे वे हिंदु हों अथवा बौद्ध, सिक्ख हों या ईसाई, पारसी हों या मुसलमान-एक स्वर से साधना पर जो विशेष जोर दिया है, वह इसलिए नहीं कि वे इन बड़ी-बड़ी बातों का प्रचार करके अपने को पूजावें, बल्कि उनका उद्देश्य यह रहता है कि मानव-शरीर की अवहेलना तथा उपासना के कारण उसके वास्तविक स्वरूप का जो अपमान होता है, उससे उसकी रक्षा हो।

विचार करके देखा जाय तो मनुष्य शरीर की आवश्यकताएं बहुत थोड़ी दिखायी देंगी। खाने के लिए थोड़ा सा अन्न, पहनने के लिये कुछ वस्त्र और रहने के लिए थोड़ा सा स्थान-यही तो उसकी प्रधान आवश्यकताएँ हैं। मनुष्य चाहे राजा हो या रंक, स्थिति भेद से थोड़ा—बहुत अन्तर भले ही हो जाय, परन्तु इन वस्तुओं के परिणाम में विशेष अन्तर नहीं होता। अतः आज का मानव-समाज यदि इस बात को समझ जाय और तदनुसार आचरण करे तो संसार की शान्ति सर्वथा स्थायी बनी रह सकती है। परन्तु आज का मनुष्य इस बात को समझें कैसे जब कि उसके भीतर साधना शक्ति का अभाव है। हाँ किसान, मजदूर आदि वर्ग के लोग जो रोज परिश्रम कर अपने अपने ढंग से मानव समाज की सेवा में लगे रहते हैं, वे न केवल अधिक सुखी और सच्चे हैं, पर इन्हीं के कारण यह संसार अब भी आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। परन्तु जो लोग शारीरिक परिश्रम न करके केवल अधिकार, धन और चातुर्य के बल पर अपना जीवन निर्वाह करना चाहते हैं, उन्हीं के कारण सारे संसार में हाहाकार मचा हुआ है।

सच पूछिए तो संसार को इसी प्रताड़णा से बचने के लिए हमारे शास्त्रकारों ने अन्तद्रष्टा ऋषि-महर्षियों ने ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों की सुन्दर व्यवस्था की थी। उनका यथाविधि पालन करने पर आपने आप मनुष्य की वृत्तियाँ संयमित हो जाती थीं, वह अपने पैरों पर खड़ा रहता था और फलतः उसके द्वारा संसार में अशान्ति की सृष्टि नहीं होती थी। एक ब्रह्मचर्य आश्रम को ही लीजिए। उस आश्रम में सुदामा जैसे दीन-हीन ब्राह्मण को और श्रीकृष्ण जैसे राजपुत्र को गुरु के यहाँ समान भाव से शारीरिक परिश्रम की साधना करनी पड़ती थी। इसीलिए उन दोनों में राजा रंक का भेद-भाव मिटकर इतना घनिष्ठ प्रेम हो गया था कि वह अनन्त काल तक संसार के लिए एक आदर्श बन गया। इस प्रकार जब हम शतरूपा-जैसी महारानी और पारवती-जैसी राजकन्या को तप की साधना करते देखते हैं तब हमें आश्रम-जीवन का महत्व सहज ही समझ में आ जाता है। रघु और भर्तृहरि जैसे राजाओं को जब हम अपना सर्वस्व लुटाकर मिट्टी के बर्तनों का व्यवहार करते देखते हैं तो हमारे हृदय में उनके प्रति घृणा नहीं होती बल्कि महान आदर का भाव उत्पन्न होता है। क्योंकि उन्होंने शक्तिशाली सम्राट होते हुए भी स्वावलंबन का पाठ पढ़ा और उसे अपने जीवन में उतारा।

इसीलिए आज राजनीति की यह गुहार है कि मनुष्य परिश्रमी बनें, चाहें वह महान् से महान् पथ पर आरुढ़ हो या साधारण नागरिक हों। केवल कुल, विद्वत्ता, अधिकार अथवा धन के कारण ही किसी को महान पद का अधिकारी न बनाया जाय, उसमें तपस्या, संयम और स्वावलम्बन की मात्रा का होना भी अत्यावश्यक है। प्राचीन काल में राजाओं को जो तपस्या करने की आवश्यकता बताई जाती थी, उसका उद्देश्य यही था। आज कल भी परीक्षा लेने के बाद ही किसी पद पर नियुक्ति होती है, परन्तु उस परीक्षा में केवल बौद्धिक विकास की ही जाँच होती है-बल्कि अधिकाँश स्थलों में तो वह भी नहीं होता क्योंकि यह सिफारिश का युग है। कम से कम भारतवर्ष में यही बात देखी जाती है। इस बात को लोग प्रायः भूल जाते हैं कि बौद्धिक विकास के साथ साथ हृदय तथा शरीर का विकास होना भी आवश्यक है। नहीं तो कोई कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो वह रावण जैसा राक्षस बन सकता है यदि उसमें हृदय तथा शरीर का विकास न हो।


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