आदर्श जीवन का रहस्य

June 1952

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(श्री ज्वाला प्रसाद गुप्ता एम. ए. एल. टी. फैजाबाद)

जीवन क्या है? चित्रकला, मूर्तिकला, और संगीत कला की भाँति “जीवन भी कला है।” पूज्य बापू के शब्दों में तो “जीवन समस्त कलाओं से श्रेष्ठ है।” जो अच्छी तरह जीना जानता है वही सच्चा कलाकार है और उसी का जीवन वास्तविक तथा आदर्श जीवन है। जैसे समस्त कलाएँ-चित्रकला, मूर्तिकला तथा संगीत कला-अदृश्य सौंदर्य की अभिव्यक्ति करती है वैसे ही जीवन भी सत्य, शिव और सुन्दर के प्रच्छन्न रहस्यों की अनुभूति और प्रकाशन करता है। जीवन कला के चित्रण के लिए शरीर, मन और बुद्धि का सम्यक् सामंजस्य उसी प्रकार वाँछित है जिस प्रकार चित्रकार के लिए रंग और कूची, मूर्तिकला के लिए पत्थर और छैनी तथा संगीतकार के लिये शब्द, सुर ताल और लय।

जिस जीवन में अच्छी तरह जीने की क्षमता नहीं वह जीवन जीवन ही नहीं। परन्तु अच्छी तरह जीना है क्या? क्या केवल पैदा होना, पेट भरना और एक दिन मर जाना ही जीवन है? क्या ताश, सिनेमा, नाचरंग, इन्द्रिय लोलुपता और विषय वासना का सुख ही सच्चा सुख है? नहीं और कदापि नहीं। मानव योनि समस्त योनियों से श्रेष्ठ है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन, इत्यादि वृत्तियाँ तो पशु पक्षियों में भी पाई जाती हैं। परन्तु जिस बुद्धि और विवेक रूपी धन का अथाह कोष मानव जीवन को प्राप्त है वह अन्य किसी जीवन को नहीं। वास्तव में मानव योनि प्राप्त करना ही दुष्कर है अतएव इसी जीवन में आत्मा को प्राप्त करने की भरपूर चेष्टा करना मानव जीवन का ध्येय एवं परम उद्देश्य है, यही अन्तिम लक्ष्य है जिसके अनेक नाम यथा-निर्वाण, परमगति, परमधाम और ब्राह्मी स्थिति इत्यादि हैं। अतः शरीर की, मन की, बुद्धि की और इन सब के द्वारा आत्मा की शक्तियों का अनुभव और उनका अपने तथा जगत् के कल्याण के लिये विनियोग ही वास्तविक जीवन है।

शरीर को लें तो स्वास्थ्य तथा खान-पान सम्बन्धी नियमों पर ध्यान रखकर उसे जीवन के अन्तिम काल तक शक्तिमान और समर्थ बनाये रखें, श्रेष्ठ कार्यों में उसका उपयोग करें, थकावट और आलस्य को पास न फटकने दें, उसे नीरोग और रोग से लड़ने तथा उस पर विजय प्राप्त करने की शक्ति से भरा रखें। यह शरीर को अच्छा रखना है। मस्तिष्क सक्षम, मुख तेज पूर्ण, शरीर शक्तिमान, जिह्वा मृदु वचन बोलने वाली, नेत्र श्रवण हाथ, पैर-कुदृष्टि निंदा, क्रूर कर्म और कुमार्ग गमन से दूर रहने वाले और इन्द्रियाँ अपवित्र कार्य से घृणा करने वाली तथा निग्रही और नियन्त्रित हों।

मन वह जिसमें अच्छे विचार आयें, आदर्श की कल्पना हों, जो जीवन को, मार्ग में चलते हुए, दृढ़ता प्रदान करें, जिसमें स्वार्थ की भावना न हो दूसरों के हित तथा कल्याण का ध्यान रहें, जो शरीर में उत्साह की तिरंगे बहावे। जिसमें ईर्ष्या, द्वेष, को घटाने तथा हटाने के लिये प्रयत्न हो। ये हैं स्वस्थ मन के लक्षण। वास्तव में मन ही पर मनुष्य का जीवन निर्भर है :—

‘मन होता है जिसका जैसा’

जीवन भी होता है वैसा

यह सत्य ही कहा गया है कि “मनुष्य वैसा ही बनता है जैसे कि उसके विचार होते हैं। विचार साँचा है और जीवन गीली मिट्टी। जैसे विचारों में हम डूबे रहते हैं, हमारा जीवन उसी ढांचे में ढल जाता है, वैसे ही आचरण होने लगते हैं, वैसे ही साथी मिलते हैं, उसी, दिशा में जानकारी, रुचि तथा प्रेरणा मिलती है। शरीर, परिस्थितियाँ, संसार हमारे हृदय के विचारों के आधार पर बनते हैं। उनका रूप हमारे विश्वास के अनुरूप होता है।”

आँतरिक विचार चरित्र और जीवन को बनाते है। अर्थात् विचारों ही पर चरित्र और जीवन पूर्णरूप से अवलम्बित है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह प्रतिदिन कम बुराई और अधिक भलाई करने का अभ्यास करे और विचारशील तथा दृढ़ प्रकृति होकर तत्परता और उद्योग के साथ धीरे धीरे हृदय की समस्त बुरी वृत्तियों और विचारों को त्याग दे और अच्छी वृत्तियों का निरन्तर अभ्यास करता रहे। इस कार्य में उसे श्रेष्ठ मनुष्यों के संपर्क में रहने, श्रेष्ठ पुस्तकें पढ़ने, श्रेष्ठ बातें सोचने, श्रेष्ठ घटनाएं देखने, श्रेष्ठ कार्य करने, तथा दूसरों में जो श्रेष्ठताएं हैं उनकी कद्र करने और उन्हें अपनाने अर्थात् सदैव श्रेष्ठ बातों में ही श्रद्धा रखने से बड़ी सफलता मिलेगी। ऐसा करने से वह दिनों दिन अधिक बलवान, श्रेष्ठ और बुद्धिमान बन जायगा और उसका जीवन उज्ज्वल, शुद्ध, शांतिप्रद, आनन्दमय, और मनोहर होगा। यह है विचारों का जीवन पर प्रभाव।

अब बुद्धि को लीजिए। बुद्धि वह जो विचारों को लक्ष्य की ओर संचालित करे, जो बुराई भलाई का विश्लेषण कर श्रेय की ओर प्रेरित करे, जिसमें समस्याओं के मूल में पैठने की शक्ति हो, जो प्रश्नों को समझे और हल करे, जो जीवन को अंधकार से निकाल कर प्रकाश के मार्ग पर डाल दे, जो अपने और दूसरों के हितों में समन्वय साधे और व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का उचित दिशा में विकास करे। बुद्धि का विकास इस तरफ होने के लिए सत्संग की बहुत बड़ी आवश्यकता है। सत्संग बुद्धि को प्रेरणा देता है। इस सत्संग का फल महान् है। अच्छाई की दिशा में उन्नति करने के लिए अनिवार्य है कि मनुष्य अपने को अच्छे वातावरण में रखें, अच्छे लोगों को अपना मित्र बनायें, उन्हीं से अपना व्यापार, व्यवहार तथा संघर्ष रखें, सम्भव हो तो परामर्श, उपदेश और पथ प्रदर्शन भी उन्हीं से प्राप्त करें। यथा-साध्य अच्छे व्यक्तियों का संपर्क बढ़ाने के अतिरिक्त अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय भी वैसा ही उपयोगी है। जिन जीवित या स्वर्गीय महापुरुषों से प्रत्यक्ष सत्संग सम्भव नहीं उनकी पुस्तकें पढ़कर सत्संग का लाभ उठाया जा सकता है। एकान्त में स्वयं भी अच्छे विचारों का चिन्तन और मनन करके तथा अपने मस्तिष्क को उसी दिशा में लगाये रहने से भी आत्म सत्संग होता है जो आत्मोन्नति के लिए अति आवश्यक है।

इस प्रकार जिस जीवन में शरीर, मन और बुद्धि का सम्यक् सामंजस्य है वह कितना आनन्दमय और सुखमय जीवन बितायेगा इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। वास्तव में ऐसा ही जीवन आदर्श जीवन है।


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