भारत की आध्यात्मिक सम्पदा

June 1952

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(श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती,)

दुःख तथा पीड़ा पर स्थायी विजय प्राप्त करने में ही महानता अन्तर्हित है। भारत का गौरवपूर्ण उत्तराधिकार जीवन के दुःखों के विनाश तथा पूर्ण आनन्द और शान्ति की महत्वपूर्ण प्रणाली है। जब तक मनुष्य अपने व्यक्तिगत सुख के लिए सचेष्ट है, तब तक मानव पीड़ा का निवारण नहीं हो सकता। भारत की प्रतिभा के लिए यह अमर महत्व की बात है कि उसने प्रचलित बन्धनों तथा सामाजिक प्रतिबन्धों का अतिक्रमण कर सत्य का अनुभव किया है, समझा है और जगत् के सम्मुख यह घोषणा की है कि जीवन एक है अनेक नहीं। संसार के राष्ट्र परस्पर पृथक जान पड़ते हैं और यह पार्थक्य-भावना ही युद्ध तथा विनाश की जननी है। आज के मानव ने जीवन के मौलिक अर्थ समझने की चेष्टा नहीं की है। वह भौतिक-अस्तित्व के दृश्यमान् तल पर ही तैरने में संतुष्ट है। वर्तमान विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म भेदी होने पर भी संसार की जाग्रतावस्था में उसके साधारण अनुभव की खोज मात्र से गम्भीरावस्था में मनुष्य में जो महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, उन पर इसने ध्यान नहीं दिया है। भारत को इसका गौरव है कि वह जीवन के मूल तह तक जा पहुँचा है और उस स्थाई स्थान का पता लगाया है, जिस पर यह जीवन नाटक खेला जा रहा है। यदि सम्पूर्ण जीवन में कोई वस्तु मूल्यवान् है तो वह जीवन की समस्याओं के समाधान का ज्ञान है। जो पारदर्शी, उत्तम तथा आदर्श जीवन व्यतीत करते हैं उन्होंने सफलता का वह रहस्य पा लिया है जो मानवता को अन्तिम विजय तक पहुँचाता है।

भारतीयों ने जीवन के प्रति जिस दृष्टिकोण का विकास किया है, उसका आधार उस लक्ष पर है, जो जीवन में प्राप्त किया जायगा और जो इसके लिए एक पग, एक अवस्था है, स्वयं लक्ष्य नहीं। यही मानव धर्म अथवा नैतिक विधान है। यह विश्व धर्म क्षेत्र है। धर्म का उद्देश्य ऐसी नीति है, जिस पर उस मनुष्य के जीवन का सम्पूर्ण प्रसाद निर्मित किया जाता है, जो जीवन-संग्राम में विजय प्राप्ति के लिये उत्सुक है। धर्म एक सद्गुण है और सद्गुण ऐसी वस्तु है, जो मनुष्य को पूर्णावस्था में पहुँचाती है। अत्यन्त पूर्णता ही तो जीवन का चरम-लक्ष्य है। इसकी पूर्णता अपरिमित, अप्रतिबन्धित तथा अविच्छिन्न है।

अहिंसा :- अहिंसा सर्वश्रेष्ठ-सद्गुण है, जो मानव मन निषेध सूचक कथन की प्रणाली है। यह ऐसे कर्म, वाणी और विचार से निषेध करती है, जिससे किसी अन्य को दुःख तथा पीड़ा पहुँचे। इसे सिद्धान्तों में हिंसक निषेधमय पक्ष कहते हैं। इसका क्रियात्मक पक्ष विश्व-प्रेम है। वह प्रेम भी ऐसा कि जिसमें पक्षपात नहीं हो और न उसके परिणाम की चिन्ता ही। विश्व प्रेम का आदर्श क्या है? सब में अपने को ही जानकर, सर्वभौम और परिपूर्ण और कूटस्थ। यही विश्व प्रेम का आदर्श है। और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक कोई सभ्यता खरी नहीं और कोई संस्कृति सत्यात्मक नहीं और कुछ भी पूर्ण और शाश्वत नहीं। एक ही शब्द में यदि कहें तो यह सिद्ध होता है कि पूर्ण चैतन्य के प्रकाश में तथा व्यावहारिक अहिंसा में अभिन्नता है। जो क्रिया भी है और भावना भी है।

सत्य व्यवहारः-सत्य द्वितीय सद्गुण है। आध्यात्मिक ज्ञान सम्पन्न व्यक्तियों के लिए इसका अर्थ केवल सत्य-भाषण के अतिरिक्त भी और कुछ होता है। सत्य ही विजयी होता है न कि असत्य। सत्य शुद्ध है और अशुद्ध-रूप असत्य है। जो ज्ञान, जो भाषण और जो कर्म हमें अभ्युत्थान और उत्कर्ष की ओर ले जावें,वह शुद्ध है। जिससे अवनति और अपकर्ष हो और जो हमें विश्वपति से दूर ले जावें, वह अशुद्ध है। वासनाओं का नियन्त्रण सत्य का सार है। आत्मत्यागी होना तथा प्रलोभनों से रहित होकर जीवन व्यतीत करना ही सत्य का आचरण करना है। सत्य हमारे जीवन की शाश्वत सत्ता है जो असत्य है हमारे जीवन में उसका परिणाम विनाश और मृत्यु है। घृणा और युद्ध इसके गौण-स्वरूप हैं। आपेक्षिक सत्य उसी समय तक व्यवहार्थ है, जब तक वह उस पूर्ण सत्य का खण्डन नहीं करता, जो हमारे जीवन की पूर्णता है और लोक कल्याण है।

आत्म नियन्त्रण :- आत्म-नियन्त्रण अथवा ब्रह्मचर्य— एक ही कर्म के दो पर्याय हैं। यह वह साधन है, जिससे हम उन प्रलोभनों को रोकते हैं, जो व्यक्तियों को सत्य से दूर रखते हैं। आत्म नियन्त्रण विश्वव्यापी नियम है, जो संसार के समस्त नर नारियों में प्रतिष्ठित हो सभी स्थानों और सभी कालों में व्यवहार्य है। यह जान लेना चाहिए कि विषयों में हमारी अनुरक्ति का कारण है, सत्य और असत्य में विवेक द्वारा भिन्नता जान लेना तथा बाहरी वस्तुओं के संपर्क में आने से उसके अज्ञान जनित-परिणाम को ही सत्य और आनन्ददायक समझ लेना। तब फिर आत्म-नियन्त्रण क्या है। मन की बाहर जाने वाली, अर्थात् पदार्थवाद की ओर जाने वाली, प्रवृत्तियों का अवरोध करना तथा अपनी समस्त वृत्तियों को एक ही सत्य-आदर्श पर केन्द्रित कर देना ही आत्मनियन्त्रण माना गया है। वही एक धर्म है (कर्त्तव्य का अर्थ धर्म होता है) जो जग जीवन का सहायक है। स्वार्थपरता तथा अहंकार हमारे कर्त्तव्य नहीं, वे अधर्म हैं क्योंकि वे मनुष्य जीवन को दुःखमय तथा असफल तथा बन्धमय बना देते हैं। पूर्ण औचित्य का अर्थ होता है विश्व कल्याण के निमित्त आत्मत्याग। केवल भौतिक-कल्याण के लिए, जिसका सम्बन्ध सर्वोच्च अध्यात्मिक सत्य से है। यह मैं हूँ, अथवा अमुक व्यक्ति मेरा विरोधी है अथवा मैं धनी और सम्राट हूँ यह तो सत्य का विपरीत दृश्य है, जिससे ही तो मनुष्य का जीवन अमर नहीं हो पाया। इस विचार पर नियन्त्रण रखना आत्मनियन्त्रण का मौलिक स्वरूप है।

आत्मीयता :- मानवीय सम्बन्धों का यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक कार्यों में हम साहंकारडडडड—परन्तु प्रेम का व्यवहार करें। भारतीय बौद्धिकता अपने पड़ौसी से अपने ही समान प्रेम करने की शिक्षा में इतना जोड़कर पूर्णता प्राप्त करेगी क्योंकि तेरा प्रतिवासी तू ही है। यह सर्वात्म-भाव क्या है? यह असीमित-जीवन के साथ शाश्वत एकता का सूचक है, जो विश्व की गम्भीरता में निहित है। यदि परिवार, समाज अथवा राष्ट्र एक दूसरे से पृथकता का साधन समझा जाता हो तो इसमें मनुष्यों की एकता का जितना अवसर हो, उसकी वंचना होती है और ऐसा परिवार, समाज अथवा राष्ट्र विजयी नहीं हो सकता। मानव के पारस्परिक-भेदभाव सत्ता की पूर्ण एकता में अन्तर्हित किये जा सकते हैं। अपने दैनिक-जीवन की प्रक्रियाओं पर ध्यान रखना चाहिए, जिस से हमारे कार्य स्वार्थपरता से रहित हों और प्रगतिमय प्रकृति के विश्वव्यापी विधान के अनुकूल हों। हमारा जीवन ईश्वर की उपासना के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। परिवार देश तथा समाज के शासन में उचित व्यवहार ऐसे विश्वव्यापी शासन का एक अंग है, जो निष्पक्ष दृष्टि से जीवों की सम्पूर्णता को देखता है। विश्व का शासक भगवान् है और संसार का शासक भगवान् की एक किरण है। हम जीवित हैं, क्योंकि ईश्वर की एक सत्ता है। अतः जिस प्रकार भगवान् न्यायपूर्ण और सर्व आनन्द है। उसी प्रकार हम भी हमारा जीवन भी पूर्ण तथा न्याययुक्त हो सकता है।

भारत का महान उत्तराधिकार :- भारत का महानतम उत्तराधिकार उसकी आध्यात्मिक ही है—यही भारत की सर्वश्रेष्ठ-निधि है। यही सभ्यता तथा संस्कृति की चरमावस्था है। यही सर्वोत्तम ज्ञान है, जिसके प्राप्त करने की मनुष्य में चेष्टायें जागृत हैं। केवल विश्व प्रेम से ही हमारे कर्त्तव्य का अन्त नहीं होता। यह तो हमारे महान् कार्य की भूमिका है, जिसकी पूर्णता वेदान्तिक सत्य की प्राप्ति है और जो अनेकता में नहीं एकता में ही आधारित है, जो बाह्य नहीं आभ्यान्तरिक है। वास्तविक महान और पूजनीय वही है, जिसने इस शाश्वत सिद्धान्त को अनुभव किया और उसे अपने नित्य के जीवन का अर्थ और स्पष्टीकरण बनाया हो। ऐसे ही पुरुष को हम कहते हैं कि उसने प्रकृति के बन्धनों का अतिक्रमण किया है। भारतीय सिद्धान्त के अनुसार एक ही धर्म है जो भारत का ही नहीं विश्व का भी है और वह विश्व धर्म जीवन के अंतिम सत्य का अनुभव है। यह समझना भ्रम है कि संसार में परस्पर विरोधी अनेक धर्म हैं, क्योंकि जो परस्पर विरोधी हैं, वे धर्म नहीं, अपितु किसी जाति विशेष के विचारों का प्रकटीकरण है। एक धर्म ही ईश्वर प्राप्ति का साधन है अतः ईश्वर एक तो धर्म भी एक ही होना चाहिए।

यदि मनुष्य, जीवन के संकटों से मुक्त होना चाहता है, तो उसे अपनी इच्छाओं में न्यूनता करनी चाहिए और आत्म-संतुष्ट रहना चाहिए। तर्क-विवाद और भौतिक-कला को ही जीवन की शान्ति का सच्चा स्वरूप जानना हमारी बड़ी भूल होगी। यदि हम सत्य में विश्वास करेंगे और उसी का आचरण अपने नित्य के जीवन में करेंगे, जैसा कि महात्मा गान्धी जी ने किया था, जैसा अनेकानेक-हमारे पूर्वजों का जीवन रहा है, तो अवश्यमेव हम अपने उत्तराधिकार से वंचित नहीं रह सकेंगे, क्योंकि यह ऐसी परम्परा है जो मनुष्य के आन्तरिक गुणों और युग धर्म के साथ-साथ जीवित रहती चली आयी है।

हमारे आध्यात्मिक उत्तराधिकार का अर्थ यह नहीं कि हम उसके विषय में ही जानकर सन्तोष धारण कर लें और समझें कि यही हमारे कर्त्तव्य कर्म की इति श्री है। सच्चा उत्तराधिकारी वही होगा, जो विश्व के वार्तमानिक आचार, विचार, लोक धर्म, सभ्यता, संस्कृति और लौकिक शिक्षा और व्यवहार को अपने गुरुतर उत्तरदायित्व की गोद में संभालकर, भारत का ही नहीं, विश्व के चर और अचर, चेतन, अवचेतन और अति चेतन प्राणि समुदाय को सुख, शान्ति और विश्व कल्याण के मार्ग की ओर ले जायगा।


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