वैराग्य की वास्तविकता

December 1951

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(श्री डॉक्टर चतुर्भुज सहाय जी)

जब वासनायें प्रबल होती दिखाई पड़ें तो विवेक शक्ति द्वारा उनका शमन करो। मन को समझाओ, उसे डाँटो, कहो कि यह झूठे झमेले क्यों हमारे सम्मुख लाता है? हम तेरे प्रलोभनों को समझते हैं, तू हमको इसी झूठे संसार में फँसाये रखना चाहता है, तू हमको सुखी नहीं देखना चाहता इत्यादि। ऐसा करने पर मन की शैतानी ताकत कुछ भय खा सकती है और तुम्हारा पीछा छोड़ सकती है।

वैराग्य को प्राप्त करने के लिये ‘त्याग‘ का मार्ग पकड़ना होता है। यह त्याग धीरे धीरे बढ़ाया जाता है। प्रथम कुछ ऐसी बातें जिसको हम बुरा समझते हों, छोड़ें और उनके स्थान पर अच्छी बातें लें। बुरे कर्म को त्यागें, शुभ को ग्रहण करें। इसी तरह आगे बढ़ते जाएँ। शास्त्र इन्हीं को ‘यम’ और ‘नियम’ कहते हैं।

जब सारे बुरे कर्म और बुरी वासनायें हमसे छूट जायें और स्वभाव सात्विक बन जाए, बुराइयाँ संपर्क में भी न आवें उस समय से अच्छे विचारों को भी त्यागना आरम्भ कर दें। यहाँ तक कि अच्छे और बुरे, अपने-पराये सबसे वैराग्य हो जाय। मैं और तू का झगड़ा ही जाता रहे यही वैराग्य की अन्तिम सीढ़ी होती है।

वैराग्य के दो दर्जे होते हैं। एक तो वह जो केवल अभ्यास के ही समय पर रहे, और दूसरा जो हर समय रहे। हर समय रहने वाला स्थिर और उत्तम वैराग्य होता है। अभ्यास के समय में जो वैराग्य या उदासीनता हृदय में आती है उसे ही धीरे-धीरे आगे बढ़ाने की कोशिश करने और जीवन की घटनाओं पर विचार करते रहने से दृढ़ वैराग्य की प्राप्ति होती है।

प्रत्येक वस्तु का ठीक उपयोग होना ही धर्म है। अनेक लोग अपने आधीन (स्त्री-पुत्र अथवा माता-पिता इत्यादि) प्राणियों को निराश्रय छोड़ वैरागी बन जाते हैं या अपने घर में रहते हुए भी मिथ्या वैराग्य के मद में उनके दुख-सुख की परवाह नहीं करते, यह भारी पाप है। हमारे जिन कामों से दूसरों का दिल दुखे उन्हें कष्ट पहुँचे तो यह सब ‘हिंसा’ ही है, ऐसा हिंसक मनुष्य कभी महात्मा नहीं बन सकेगा।

विवेकी-सेवा में कमी नहीं करता, प्रेम और मुहब्बत का सबके साथ व्यवहार करता है, परन्तु दिल से अपना किसी को नहीं समझता इसलिए उसे मोह या ममत्व दबोच नहीं सकता। सबसे मिला हुआ और सबसे अलग। सब अपने और कोई अपना नहीं। सबकी यथाशक्ति सेवा, सूश्रुषा परन्तु धर्म और कर्तव्य समझते हुये।

जहाँ तक इन सब को अपना समझते हैं तभी तक उनके दुःखों में हमको दुःख होता है, उनकी जरा सी तकलीफ में हम घबरा जाते हैं और तन-मन-धन सभी कुछ उन पर अर्पण करते हुए भी परेशान रहते हैं। यदि इनको विवेक दृष्टि के द्वारा हम भगवान को देखें और भगवान की आज्ञा समझ के उनकी सेवा करें, उनको हर तरह का आराम पहुँचाएँ तो इतने से ही हमको बहुत कुछ शान्ति मिलेगी और हम गृही होते हुए भी वैरागी कहे जा सकते हैं।

मेले ठेलों में तुमने देखा होगा कि दूर दूर से आये हुए कई मुसाफिर जिनमें न कोई आपस में पिछली जान पहचान है, न कोई रिश्तेदार या बिरादरी का है, एक स्थान पर ठहर जाते हैं। उनमें मर्द-औरत और बच्चे-बूढ़े सभी प्रकार के मनुष्य होते है। कई दिन के समागम से प्रेम उत्पन्न हो जाता है। मेले के दूसरे आदमियों के मुकाबले उनसे कुछ घनिष्ठता हो जाती है और सम्बन्ध सा हो जाता है। यही संबन्ध कभी-कभी इतना बढ़ जाता है, कि वियोग के समय हृदय दुखते हैं, आँखों से अश्रु बरसते हैं। क्यों? इसलिए कि उनसे थोड़ा ममत्व हो गया था। हम असलियत को भूल गये थे और उन्हें अपना ही समझने लगे थे। यदि हम दिल में यह बात भी रखते कि यह सब परदेशी हैं, किसी न किसी दिन अपने अपने स्थानों को चले जायेंगे। जब तक हैं जो कुछ सेवा हम कर सकते हैं इनकी करें, इनको आराम पहुँचायें, परन्तु इनको अपना निजी, ऐसा सम्बन्धी न जाने कि जो कभी हमसे छूटेंगे ही नहीं तो इतनी दुख नहीं हो सकता था इसी तरह यहाँ की दशा है।

यह संसार एक मेला है। गृहस्थी का घर एक धर्मशाला या मुसाफिरखाना है। चारों दिशाओं से प्राणी आकर यहाँ इकट्ठे होते हैं। कुछ दिवस साथ रहते हैं फिर अपने देश को चलते बनते हैं। इन्हीं में से कोई स्त्री का रूप धारण कर पत्नी बन जाती है, कोई बाल रूप से तोतली भाषा में ‘पिता जी’ कहने लगता है, मातृभाषा का नक्शा आँखों के सामने पेश करने लगता है इत्यादि। प्राणी (गृही) अपनी अज्ञानता से उनको अपना मानने लगता है। मोहपाश में फँसा हुआ वह मूर्ख उनको आराम पहुँचाने के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा देता है। दिन-रात परिश्रम से धन व दूसरी सामग्री लाता है और उनको जुटाता है, फिर भी उनकी जरूरतें पूरी होते हुए नहीं देखता तो अपनी विवशता पर अफसोस करता है, परेशान होता है। वह सब भी जब तक उनकी इच्छायें पूरी होती रहती है खुश रहते हैं, दिखावटी प्रेम दर्शाते हैं और जिस दिन उनकी लालसाओं में विघ्न पड़ता है फिर बुरी तरह लड़ाई-झगड़े ठान देते हैं, तंग करते है और उसकी ओर से मुख मोड़ लेते हैं इत्यादि

क्या! यह तमाशा इस संसार में हर समय नहीं होता रहता! जो विवेक पुरुष इनमें रहता हुआ, इनको अपना नहीं समझता, इनके मोह जाल में नहीं फँसता वही ‘वैरागी’ है।


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