प्राणशक्ति का विकास कैसे हो?

December 1951

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प्राण का अर्थ है-शक्ति सामर्थ्य बल, जीवन एवं क्रियाशक्ति। कई व्यक्ति शरीर से बड़े स्थूल, मोटे-ताजे और लम्बे तगड़े दिखते हैं पर उनके भीतर जीवन शक्ति बड़ी न्यून होती है। एक दो कोस चलने में उनका दम फूल जाता है, पिंडलियाँ भड़कने लगती हैं, जरा सी सर्दी गर्मी से बीमार पड़ जाते हैं। दो दिन बुखार आ जाय तो महीनों तक कमजोरी नहीं जाती। जरा सा भय होने पर आशंका और घबराहट से कलेजा काँपने लगता है। किसी से लड़ाई झगड़ा हो जाय या कोई विशेष घटना घटित हो जाए तो उसका विचार बुरी तरह मन में घर कर लेता है। चित्त को उस बात पर से हटाया जाय तो हटता नहीं, तुच्छ सी बात मन को घेर बैठती है, मस्तिष्क खाली नहीं होता कि दूसरी बात सोची जा सके। रात को नींद आना कठिन हो जाता है। किसी की छोटी सी धमकी या भावी अनिष्ट की मामूली सी सूचना, मानसिक संतुलन बिगाड़ देती है। ऐसे लोगों के लिये कहा जाता है कि वे निष्प्राण हैं। जीवित मृतक हैं। अन्नमय कोष की दृष्टि से वे सुडौल हैं परन्तु प्राणमय कोष की निर्बलता के कारण वे एक प्रकार से निर्जीवों में ही गिने जाते हैं।

कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जो शरीर की दृष्टि से बड़े दुबले पतले, हलके, कम रक्त माँस के होते है, हड्डियों का ढाँचा दिखते हैं और गाल पिचके होते हैं फिर भी उनमें जीवनी शक्ति प्रचुर मात्रा में होती है। ताँतिया डाकू इतना पतला था कि उसके शरीर की तुलना रुई धुनने की ताँव से करके ‘ताँतियाँ’ नाम रखा गया था। फिर भी वह जेल की ऊंची दीवार पर छलांग मार कर चढ़ गया था, उसकी स्फूर्ति, जीवनी शक्ति, छरहरापन और ताकत देखकर आश्चर्य करना पड़ता था। महात्मा गाँधी की शारीरिक दुर्बलता प्रसिद्ध है, वे हलके, नाटे, दुबले और कमजोर थे। थोड़ा सा बकरी का दूध और जरा से फल खाते थे फिर भी उनकी प्राणशक्ति असीम थी। अंग्रेजी सरकार उनकी शक्ति को देखकर थर्राया करती थी, विदेशी राजनीतिज्ञ उन्हें 96 पौण्ड का बम गोला बताया करते थे। सदियों से गुलामी में सड़ने वाली भारतीय जनता में उन्होंने प्राण फूँक दिया और युग को पलट डाला। और भी ऐसे कितने ही मनुष्य हैं जो शरीर की दृष्टि से तुच्छ हैं पर उनका साहस, ओज, तेज, पराक्रम, पुरुषार्थ, महान है। ऐसे लोग जन समूह के मुकुट मणि बनते हैं, अपने पराक्रम से संसार का पथ प्रदर्शन करते हैं। अपने ऊपर उन्हें अटूट विश्वास होता है, अपने भाग्य का वे आप निर्माण करते हैं, आत्म सम्मान, आत्म गौरव, आत्म कल्याण का वे स्वयं आयोजन करते हैं।

प्राणशक्ति का चमत्कार मनुष्य के शरीर पर भी चमकता है। किसी का मुर्दा सा, मुरझाया हुआ, डरता सा, सकपकाया हुआ, दीनतापूर्ण या उजड़ा चेहरा देख कर यह आसानी से जाना जा सकता है कि यह भीतर से खोखला है। जिसके नेत्रों में भीतर से एक बिजली सी चमक रही है, जिसके होठों पर प्रसन्नता के स्फुल्लिंग उड़ रहे हैं, जिसके चेहरे पर गंभीरता और दृढ़ता जमी हुई है, उसकी ऊँची गर्दन और स्थिर भवें विश्वासमीयता, निर्भयता और आत्मसम्मान प्रकट कर रही है, जिसकी वाणी में प्रभाव और प्रामाणिकता है उसे हम ओजस्वी, तेजस्वी या प्राणवान कह सकते हैं।

यह प्राण ही जीवन है। प्राण के निर्बल होते ही जीवन लड़खड़ा जाता है। प्राण निकलते ही देह ऐसी हो जाती है कि उसे छूना तक अशुभ समझा जाता है और उसे जल्द से जल्द जलाकर या गाढ़ कर नष्ट कर डालने का प्रबन्ध किया जाता है क्योंकि यदि कुछ समय वह यों ही रखी रहे तो सड़कर भारी दुर्गन्ध एवं रोग विस्तार का कारण बन जाती है। प्राणवान भीष्म जी ने उत्तरायण सूर्य में देह त्याग करने की इच्छा से अपने प्राणों को शरशैय्या पर कई महीने प्राण को रोक रखा था।

जैसे उचित आहार, उचित श्रम, उचित विश्राम, उचित स्वच्छता द्वारा शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है वैसे ही (1) निर्भयता, (2) प्रसन्नता, (3) ईमानदारी और (4) आत्म निर्भरता, द्वारा प्राण शक्ति को सुस्थिर रखा जा सकता है।

निर्भयता का अर्थ है कि किसी से भी न डरें। समुचित साहस, और शौर्य हममें होना चाहिए। जब बेचारी मृत्यु तक हमें नष्ट नहीं करती तो इन तुच्छ से क्षण-क्षण में धूप छाँह की तरह आने जाने वाले सुख दुखों की क्या बिसात है जो हमें डरावें। जो परमात्मा से, और उसके दंड से डरता है उसे किसी से भी डरने की आवश्यकता नहीं। विपत्ति, कागज के हाथी के समान है। जो दूर से बहुत डराती है पर जब वह पास आ जाती है तो तुच्छ मालूम पड़ती है। कोई न कोई रास्ता ऐसा निकल आता है कि वह मुसीबत बात की बात में कट जाती है। ईश्वर की अपार दया, करुणा, और शक्ति शालीनता पर जिन्हें भरोसा है वे जानते हैं कि कोई भी दुख, कष्ट, नुकसान, अनिष्ट या अभाव ऐसा नहीं है जो इतना अधिक दुख दे सके कि हमें उससे डरने की आवश्यकता पड़े। साहसी बाजी मारता है। गायत्री का महाप्राण जिसके पास है उसे तो साधारण साहसी नहीं दुस्साहसी होना चाहिए, वह किसी से डरना तो दूर, कठिनाइयों से उलझनों से जूझने में एक विशेष प्रकार का आनन्द अनुभव करता है, उसे दुखों में तितीक्षा और तप की सुखद सरसता की अनुभूति होती है।

प्रसन्नता मनुष्य के आन्तरिक सन्तोष, उचित दृष्टिकोण, सद्भावना, सुव्यवस्था, और मधुर स्वभाव की प्रतीक है। जो प्रसन्न रहता है उसकी जीवनी शक्ति बढ़ती है उसमें प्राण तत्त्व का निरन्तर अभिवर्धन होता है। जो निडर है, जो सन्तुष्ट है, जो हँसता है, उसकी मनोभूमि अपने आप प्राणपूर्ण होती चली जाती है। अच्छे स्वभाव की, सुलझे हुए दृष्टि कोण की छाया ही प्रसन्नता है। जो हँसता रहता है, प्रसन्नता जिसकी सहचरी है वह प्राण शक्ति से वंचित नहीं रह सकता।

ईमानदारी, निष्कपटता, सरलता सच्चाई एक ऐसी वृत्ति है जो जीवन का खुले पन्ने की तरह रखती है। जहाँ चोरी, ठगी, धूर्तता, कपट, धोखेबाजी, बेईमानी, की इच्छा नहीं वहाँ कोई गोपनीयता भी नहीं रहेगी। एक झूठ को छिपाने के लिए बीस नये झूठों की रचना करनी पड़ती है, वह खुल न जाए इसके लिए बड़े प्रयत्नों की आड़ बनानी पड़ती है पर जहाँ सरलता है, सच्चाई है, खरा व्यवहार है वहाँ कोई मायाजाल बनाने की जरूरत नहीं है। कहते हैं कि “सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है” पर वास्तविक बात यह है कि सच्चाई में अकूत बल भरा हुआ है। जिसके मन में बेईमानी नहीं, जिसके कार्य में चोरी नहीं उसका मन सदा हल्का रहेगा और उसे किसी से भी डरने की आवश्यकता न रहेगी। इस प्रकार की पवित्र मनोभूमि में प्राण का स्वाभाविक संचय होता है और वह ईमानदार व्यक्ति दिन-दिन प्राणवान् होता जाता है।

आत्म निर्भरता का मतलब है-दूसरों के ऊपर निर्भर न रह कर अपने प्रयत्न पुरुषार्थ, उद्योग और परिश्रम पर विश्वास करना। जो लोग अपनी योग्यताओं, शक्तियों और सामर्थ्यों को तो बढ़ाते नहीं और दूसरों से यह आशा करते रहते हैं कि अमुक की कृपा से हमारे सब काम हो जाएँगे वे सदा घाटे में रहते हैं। भले ही किसी की कृपा से कोई अनायास, लाभ हो जाए परन्तु पराश्रयी, परमुखापेक्षी रहने पर उनकी अपनी प्राणशक्ति न बढ़ेगी और प्राणमय कोष सुव्यवस्थित न हो सकेगा। सफलता चाहे छोटी हो, थोड़ी हो, पर होनी चाहिए अपने बाहुबल द्वारा उपार्जित। ऐसी दशा में ही साहस, उत्साह और आत्म विश्वास बढ़ सकता है। जिसे अपनी महानता का, अपने आत्म गौरव का ध्यान है, वह नीच विचारों और पतित कर्मों को नहीं अपना सकता अतएव उसकी उच्च विचारधारा और उत्तम कार्यप्रणाली अपने आप ही स्वचालित डायनुमा की तरह प्राणशक्ति की बिजली उत्पन्न करती है और साधक का प्राणमय कोष सुविकसित होता चलता है।

विशेष साधनाओं द्वारा भी प्राण शक्ति का विकास होता है। परन्तु जीवन में उपरोक्त चार सद्गुणों को अधिकाधिक मात्रा में सम्मिलित करते चलना भी एक ऐसी व्यवहारिक एवं सर्वसुलभ साधना है जिसको अपना कर हर कोई मनुष्य बिना यौगिक साधनाओं के भी प्राणमय कोष को सुव्यवस्थित कर सकता है। प्राण शक्ति का विकास कर सकता है।

जिसमें निर्भयता, प्रसन्नता, ईमानदारी और आत्म निर्भरता के गुण होंगे उसका अन्तःकरण निरन्तर प्रफुल्ल, उत्साहित एवं सन्तुष्ट रहेगा। ऐसी ही मनोभूमि में प्राण शक्ति का विकास होता है। यह सद्गुण मनुष्य को प्राणवान बनाते है उसकी प्रतिभा, तेजस्विता और पुरुषार्थ शक्ति को बढ़ाते हैं। फलस्वरूप वह व्यक्ति व्यवहारिक जीवन के प्रत्येक मोर्चे पर सफल होता है। उसकी वाणी में, भावभंगिमा में, चेष्टा में, क्रिया में, विचारधारा में सर्वत्र प्राण ही प्राण, परिलक्षित होता है। ऐसे ही सद्गुणी एवं प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा संसार में महान कार्यों का संपादन होता है और वे ही महापुरुष कहलाते हैं।


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