आनन्द का स्रोत-सेवा धर्म

December 1951

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सेवा धर्म की चर्चा जब कानों पर पड़ती है तब स्वभावतः प्रश्न हो उठता है कि आखिर सेवा धर्म को किस उद्देश्य से अपनाया जाये और उससे अपनाने वाले को क्या लाभ मिलेगा। लेकिन लाभ हानि की चर्चा करने वाले सेवा धर्म के रास्ते पर चल ही नहीं सकते क्योंकि सेवा करने वाले के पास तोल नाप की न तराजू होती है और न तोल नाप करने की भावना। वह तो स्वभाव सिद्ध होती है। माँ अपने बच्चे की सेवा में तल्लीन रहती है, मल मूत्र उठाती है। दूध पिलाती है और देख भाल करती है। उसके बीमार हो जाने पर रात दिन सेवा-सूश्रुषा में एक कर डालती है। क्या किसी लाभ हानि के लिए? क्या किसी बदले की भावना से? कोई भी माँ अपने कार्य में इनमें से किसी की कल्पना तक नहीं करती। लेकिन उसके स्वभाव में यह वृत्ति आ गई है इसलिए वह ऐसा करती है। यह भी कहा जा सकता इसलिए ऐसा करती है और आखिरी बात जो कही जा सकती है, वह यह है कि उसे ऐसा करने में आनन्द आता है इसलिए ऐसा करती है।

लेकिन अपने ही शिशु के साथ क्यों? क्या कोई स्त्री जिसका विवाह नहीं हुआ है या विवाह हो जाने पर भी जिसने गर्भ धारण नहीं किया है, इस प्रकार के सेवा धर्म को अपना सकती है? क्या कोई बहू अपनी ननद और जिठानी के बच्चे के प्रति इतनी तन्मयता एवं सेवा भावना, और लगन दिखला सकती है। आमतौर से ऐसा देखा नहीं जाता इसलिए ‘नही’ में ही इसका उत्तर मिलता है। तब क्या कारण है कि माँ अपने शिशु के साथ इतनी तन्मय रहती है।

इसका कारण है, और वही कारण जब उत्पन्न होता है तभी सेवा धर्म पालन होता है अन्यथा जो कुछ होता है उसमें दिखावा होता है और उससे स्वार्थ सिद्धि की मंशा पूरी की जाती है। माँ की सेवा में जो कारण होता हैं वह हैं-”स्व” का विस्तार। अपनी आत्मा को जब वह अपने शिशु की आत्मा में देखती है, जब वह शिशु को अपने से भिन्न नहीं समझती तब वह जिस निष्ठा से अपनी बात सोचती, उसी निष्ठा से वह शिशु का चिन्तन करती है कभी कभी तो यह निष्ठा इतनी अधिक हो जाती है कि शिशु के चिन्तन में वह अपने आप को भी भूल जाती है।

अपने आपको भूले बिना, अपने ‘स्व’ की संकुचित सीमा को तोड़े बिना, जिस प्रकार माँ अपने शिशु के लिये कुछ नहीं कर सकती उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति सेवा धर्म अपनाने के लिए आत्म त्याग किये बिना कदम नहीं बढ़ा सकता। आत्म जो सर्वव्यापी है और सब में समाया हुआ है जिनको इनका दर्शन नहीं होता वे सेवा धर्म का पालन कर ही नहीं सकते। अपनी आत्मा जहाँ-जहाँ, जिस-जिस को दिखाई देती है सेवा का क्षेत्र उसका वहाँ वहाँ तक विस्तृत होता है। उपनिषदों में इसी तत्त्व का वर्णन करते हुए कहा है कि-”पति, स्त्री, पुत्र, मित्र, बान्धव ये सब पति, स्त्री, पुत्र, मित्र और बान्धवों के कारण प्रिय नहीं होते बल्कि इनका प्रियत्व इस पर निर्भर करता हैं कि उनमें प्रेम करने वाले की आत्मा दिखाई देती है या नहीं। क्योंकि “आत्मनस्तु का काम सर्व प्रिय भवति”-आत्मा के लिए ही सब कुछ प्रिय होता है।

जिन लोगों की आत्मा का विस्तार होता है, जिनका “स्व” अपने प्रसार में संलग्न रहता है वे उतने ही महान् एवं शक्ति सम्पन्न होते हैं। अपनी क्षुद्रता को भूलना, अपनी लघुता को भूलना, ही महानता का चिन्ह है। जैसे-जैसे मनुष्य अपना स्वार्थ छोड़ता जाता है, अपनी आत्मा का विस्तार करता जाता हैं वैसे-वैसे ही उसके आनन्द की सीमा बढ़ती जाती है। इसीलिये सेवा धर्म तो आनन्द मार्ग की कुँजी है। श्रुतियों में इसीलिए कहा है कि-’भूमैव सूखम् नाल्पे सुख मस्ति’-भूभा में- विस्तार में सुख है, अल्पता स्वार्थ परायणता में सुख नहीं है। इसलिए आदेश दिया गया है- आत्मा वाऽरे दृष्टव्यः, श्रोतव्यः मन्तव्यः निध्यासितव्यः-’आत्मा का दर्शन, श्रवण, मनन एवं चिन्तन करो।’

महात्मा शैखसादी की सूक्तियाँ

(संकलन कर्त्ता-डा. गोपाल प्रसाद ‘वंशी,’ बेतिया)

(1) अगर कोई निर्बल शत्रु तुम्हारे साथ मित्रता करे और तुम्हारी आज्ञानुसार चले तो तुमको समझना चाहिए कि वह अपना बल बढ़ाना चाहता है। क्योंकि कहा है- मित्रों की सच्चाई पर भी विश्वास न करना चाहिए, तब शत्रुओं की लल्लो-चप्पों से क्यों भली उम्मीद की जा सकती है? जो निर्बल शत्रु को तुच्छ समझता है, वह उसके माफिक है जो आग की छोटी सी चिनगारी की परवाह नहीं करता। अगर तुम में शक्ति है तो आग को आज ही बुझा दो, क्योंकि जब वह प्रचण्ड रूप धारण करेगी, तब संसार को जला देगी। जब कि तुझमें शत्रु को बाण से छेदने की शक्ति हो, तब तू उसको कमान खींचने का मौका मत दे।

(2) दो दुश्मनों के दरमियान अगर कुछ बात कहो, तो इस भाँति कहो कि यदि आपस में दोस्त भी हो जावे तो भी तुम्हें लज्जित न होना पड़े। दो मनुष्यों की दुश्मनी आग के समान है और जो बातें बनाता है, वह आग में ईंधन डालता है। जब दो दुश्मन आपस में सुलह कर लेते हैं तब वे दोनों ही चुगलखोर को बुरी नजर से देखते है। जो शक्स दो आदमियों के बीच में आग लगाता है, वह खुद अपने तई उसमें जलाता है। अपने मित्रों से इस तरह चुपचाप बात करो कि तुम्हारे खून के प्यासे शत्रु तुम्हारी बात न सुन ले। अगर दीवार के सामने भी कुछ बात करो, तो होश रखो कि दीवार के पीछे कान न लग रहे हों।

(3) जो मनुष्य अपने मित्र के शत्रुओं से मित्रता करता है वह अपने मित्र को नुकसान पहुँचाना चाहता है। ऐ, बुद्धिमान मनुष्य! तू उस मित्र से हाथ धो ले, जो शत्रुओं से मेल-जोल रखता है।

(4) जब तुम्हें किसी काम के आरम्भ करने के समय ऐसा सन्देह उठ खड़ा हो कि इस काम को किस ढंग से जारी करें, तब तुम्हें वह ढंग अख़्तियार करना चाहिए, जिससे तुम्हें नुकसान न पहुँचे। कोमल स्वभाव के मनुष्य से कड़ाई से बातें न करो और वह शक्स जो तुम से मेल रखना चाहता है, उससे लड़ाई झगड़ा मत करो।

(4) जब तक रुपया खर्च करने से काम निकल सके, तब तक जान को खतरे में न डालना चाहिए। जब हाथ से किसी तरह काम न निकले तब तलवार खींचना भी मुनासिब है।

(5) दुष्ट मनुष्य सदा शत्रु के हाथ में गिरफ्तार है। वह चाहे कहीं जावे, किन्तु अपनी सजा के चंगुलों से रिहाई नहीं पा सकता। अगर दुष्ट आदमी आफत से बचने के लिए आसमान पर भी चला जावे, तो भी अपनी दुष्टता के कारण आफत से नहीं बच सकता।

(6) जो शख्स खुद-पसन्द घमण्डी आदमी को नसीहत देता है, वह खुद नसीहत का मुहताज है।


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