योगी अरविन्द की अमृतवाणी

December 1951

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आत्मा को बिना जाने या बिना प्राप्त किये जो नवीन समाज के गठन का स्वप्न देखा जा रहा है वह सफल न होगा। आत्मा को लेकर ही मानव का जीवन है। जीवन के आडम्बर के भीतर सत्य वस्तु ढ़क गई है। ज्ञान का विकास होने पर ही आत्म-लाभ होगा। इसके लिए शिक्षा की आवश्यकता है। यह शिक्षा योग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

-योग के पथ में अग्रसर होने पर, जो समृद्धि और सम्पत्ति उद्भूत होगी, उसी का बाहरी रूप स्वराज्य है। अपने को पा जाने और जान लेने से स्वराज्य प्राप्त होता है, स्वराज्य प्राप्त होने के पश्चात् ही सामाजिक रचना हो पाती है।

-हमारी साधना किसी जाति विशेष के लिए नहीं होगी। जितनी जातियाँ हैं, उन सब की मुक्ति और शुभ कामना ही हमारी चिन्ता का मुख्य उद्देश्य होगा।

-यह साधना किसी एक आदमी पर निर्भर नहीं है, एक आदमी के सिद्धि प्रवाह में बहने से तो प्राचीन युग के समान जाति का जीवन मिट्टी में मिल जायेगा। सब के जीवन का समान रूप से उन्नायक होना चाहिए।

-साधनावस्था में साधक को सहनशील रहना चाहिए, सिद्धावस्था में केवल शक्ति की ही साधना करनी पड़ती है। क्योंकि इसी शक्ति ने जीव के साथ ईश्वर के व्यवधान की सृष्टि करके दरवाजा बन्द कर रखा है।

-इस बन्द दरवाजे को हम लोग अपने आप नहीं खोल सकते। इसे तो शक्ति ही खोल सकती है। किंतु यह शक्ति विश्वशक्ति है।

- जो लोग इस शक्ति का दर्शन सिद्ध कर लेते हैं, उनकी वाणी तलवार की धार के समान और कर्म आनन्द की लहरी के तुल्य हो जाता है।

-प्रकृति की सहायता से ही धीरे-धीरे ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होगी। जीवन की समूची लीलाओं को आत्मा की लीला में परिणत कर देना चाहिए।

-भगवान् को आत्मसमर्पण करके, एक इसी की ओर दृष्टि रखकर, संघबद्ध होकर, काम करते जाओ। ध्यान रखो कि कर्म ही जीवन का उद्देश्य नहीं है, ज्ञान का उदय ही सृष्टि का मूल मन्त्र होगा।

-ज्ञान जिस समय भक्ति और शक्ति के सम्मिश्रण का स्वरूप धारण करेगा, उस समय यह विश्व सार्थक हो जाएगा।

-भाव और कर्म की तरंग से ही काम नहीं चल सकता, उस के साथ ज्ञान का मिश्रण चाहिए। ज्ञान का मिश्रण हुए बिना सब निष्फल हो जाएगा। पूर्ण साधना में ही ज्ञान और शान्ति है।

-अक्षर ब्रह्म का जो ज्ञान है उसमें कर्म एवं भक्ति का आनन्द नहीं है। किन्तु पूर्ण ज्ञान में दोनों का ही स्थान है।

-इस अवस्था में दूसरों के हृदय का कार्य भी स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है। कुछ भी कमी नहीं रह जाती।

-और हम उस समय स्वभावतः यह उद्गार प्रकट करने लगते हैं-’यह शरीर, मन, वचन, बुद्धि सब कुछ वही है और जो कुछ वह हैं वही मैं हूँ।’

-इस प्रकार शुद्ध, सिद्ध, आनन्दमय पद को प्राप्त कर, इस जीवन को भगवान का समझ कर साधना करनी होगी। बिना इस साधना के कहीं भी किसी को सिद्धि नहीं मिली है।


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