जीवन की परिभाषा (Kavita)

December 1951

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जो मरण को जन्म समझे मैं उसे जीवन कहूँगा।

वह नहीं बंधन कि जो अज्ञानता में बाँध ले मन।

और फिर सहसा कभी जो टूट सकता हो अकारण॥

मुक्ति छू पाये न जिसको मैं उसे बन्धन कहूँगा॥

जो मरण को जन्म समझे मैं उसे जीवन कहूँगा।

वह नहीं नूतन कि जो प्राचीनता की जड़ हिला दे।

भूत के इतिहास का आभास भी मन से मिटा दे॥

जो पुरातन को नया कर दे उसे नूतन कहूँगा॥

जो मरण को जन्म समझे मैं उसे जीवन कहूँगा।

वह नहीं पूजन कि जो देवत्व में दासत्व भर दे।

सृष्टि के अवतंस मानव की प्रगति को मन्द करदे॥

भक्त को भगवान कर दे मैं उसे पूजन कहूँगा॥

जो मरण को जन्म समझे मैं उसे जीवन कहूँगा।

(श्री बलबीर सिंह, रंग)


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