मानव जीवन की अशान्ति का हेतु

December 1951

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(श्री रामनाथ जी, ‘सुमन’)

कहा जाता है और मैं मानता हूँ, कि आधुनिक सभ्यता ने, अनेक नवीन सुविधायें हमारे जीवन में पैदा कर दी हैं। यातायात के द्रुत साधनों ने संसार को बहुत छोटा कर दिया है। यात्रा बहुत सुखद हो गई है। रेल में आप घर का सुख प्राप्त कर सकते हैं, जहाजों पर टेनिस खेल सकते हैं और सिनेमा देख सकते हैं, घर बैठे हुए दुनिया के समाचार सुन सकते हैं। प्रत्येक कार्य के लिए मशीन बन गई है। प्रेम की परीक्षा मशीन से होने लगी है। टेलीविजन ने मेघदूत को व्यर्थ बना दिया है। शहरों में बिजली की मोटरें दौड़ने लगी हैं और अत्यन्त सस्ती मनोविनोद, सिनेमा एवं टाकी के रूप में हमारे सामने है। विज्ञान ने शरीर-तत्वों की पूरी खोज कर ली है, और कल चिकित्सा-शास्त्र जिन बातों को असम्भव कहता था, वे संभव हो गई हैं। बुढ़ापे में यौवन की कलम लगने लगी हैं और बड़े गर्व के साथ विज्ञान ने दावा किया है कि वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य मृत्यु पर विजय पा लेगा और काम-चलाऊ आदमी बनाये जा सकेंगे। मामूली काम करने वाले मशीन के आदमी तो बन भी गये हैं।

पर जहाँ नित्य नये-नये आविष्कार हो रहे हैं और विज्ञान ने प्रकृति पर विजय पाने की घोषणा की है, और जहाँ आराम की सुविधायें हैं, वहाँ यह मनुष्य इतना अशान्त क्यों है? ऐसा असंतुष्ट क्यों है? इतना प्यासा क्यों है? उसके अन्दर शान्ति क्यों नहीं? तृप्ति क्यों नहीं? वह इतना खोया-2 कैसे है? और उसका सन्तोष एवं सुख बढ़ता क्यों नहीं है? आधुनिक सभ्यता एवं विद्वान के सामने यह सवाल एक चैलेंज है।

पाश्चात्य सभ्यता ने जीवन को उन्माद से भर दिया है। लोग एक नशे में, जल-धारा के तिनके की भाँति, बहे चले जा रहे हैं- अपनी शक्ति से नहीं, एक प्रबल धारा के वेग से। मनुष्य मशीन बन गया है। उसने अपना आत्म विश्वास, अपना ईश्वरत्व खो दिया है और असहाय-सा, पर अपनी शक्ति के दंभ का प्रदर्शन करते हुए, न जाने कहाँ जा रहा है। पाश्चात्य सभ्यता ने सबसे बड़ा अकल्याण- जिसे पाप कहने में अत्युक्ति न होगी, जो किया है, वह यह कि उसने मनुष्य को बिल्कुल अचेत कर दिया है और उसकी दैवी सम्भावनाओं को हर लिया है। आज किसी से ब्रह्मचर्य की बातें करो, वह अविश्वास की हँसी हँस देगा-’यह हम जैसे साधारण मनुष्यों का काम नहीं।’ जीवनहीन मूर्खता से भरे हुए ये शब्द क्यों? मनुष्य, जो जगत् का श्रेष्ठ उपादान है, जो भगवान की श्रेष्ठ विभूति है, उसके मुख से ऐसे दीनता, दुर्बलता और असहायता के शब्द क्यों?

बात यह है कि जीवन की बाह्य तड़क-भड़क में हम भूल गये। आधुनिक सभ्यता के विष ने, हमारे अन्दर जो दिव्य ईश्वरीय विरासत थी, उसे गदा मार कर चकनाचूर कर दिया है। उसने हमें रेलगाड़ियाँ दी, हवाई जहाज दिये। उसने घर में बैठे हुए पृथ्वी के उस छोर तक हमारी आवाज मिनटों-क्या सेकेण्डों में पहुँचाई। उसने सुबह कलकत्ता तो शाम को हमें बगदाद में ले जाकर बैठाया। यह मायाविनी बिजली में चमकती है, वायुयानों पर हवा खाती है, मोटरों में दौड़ती है, तोपों में दहाड़ती और अट्टहास करती है। उसकी मुस्कराहट पर भूल बैठे, उसके आलिंगन ने हमारा विवेक हर लिया। हम उसकी सुविधाओं का गान गाते हैं, पर हम यह भूल गये कि हमारा जो कुछ परमतत्व था, हममें जो जीवित मनुष्य था, वह निष्प्राण हो गया है। उसने हमें विश्व के संग्रहालय में संसार की प्रदर्शिनी में मोहक रूप में सजे हुए मुर्दे की भाँति रख छोड़ा है। सुविधायें जरूर बढ़ी, पर सुख न बढ़ा, शान्ति न बढ़ी। उलटे हमारी चिन्तायें ज्यादा हो गई हैं, हमारे दुःख बढ़ गये हैं मानसिक, नैतिक और शारीरिक शक्तियाँ बरफ की भाँति गल गई हैं। मानवता दुःख, दंभ, ईर्ष्या, द्वेष के अन्धकार में भटक रही है।

बात यह है कि हमने सुविधाएँ देखी, पर प्रकाश को ग्रहण न किया। दुनिया के बाजार जीवन की अहंकार सामग्री से भरे हुए हैं, पर हमको जीवन को पुष्ट करने वाला खाद्य नहीं मिल रहा है। इस चमक-दमक में उस चीज को हम भूल गये हैं जिससे मनुष्यता महत्त्वशाली है और जिसका प्रकाश अन्धा नहीं करता है। आज हमें अपने अन्दर की बिल्कुल सुधि नहीं है। हमारा जीवन ऐसे बन्धनों से बँध गया हैं जो अन्तः करण की आवाज को दबाते हैं और आत्मा को मूर्छित करते हैं। जीवन के प्रति सारा दृष्टिकोण अत्यन्त स्थूल स्वार्थ-भावनाओं से भर गया है। फलतः मनुष्य श्रेय को भूल कर प्रेय के पीछे दौड़ रहा है। इस लिए यह दुःख है और इसलिए यह अतृप्ति है।

जगत् में ऐसा कौन है जो सुख नहीं चाहता? पर ऐसे कितने हैं जिनको सुख मिलता है? ऐसी बात नहीं कि सुख कोई अत्यन्त अलभ्य वस्तु है। जो आनन्द मनुष्य के लिए अत्यन्त स्वाभाविक है और जिसकी खोज में, जिसकी साधना में, जिसकी प्राप्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ से मनुष्य लगा हुआ है, जिसके लिए उसने समाज की रचना की और सभ्यता का विकास किया और खान में, अज्ञान में प्रतिक्षण जिस आनन्द की खोज और यात्रा जारी है, उसे हम पाते क्यों नहीं हैं? उसका आज इतना अभाव क्यों हो रहा है? गृह-गृह में कलह क्यों है? स्त्रियाँ पुरुषों को दोष देती हैं, और पुरुष स्त्रियों को ताना देते हैं। युवक बूढ़ों को कोसते हैं, और बूढ़ों का कहना है कि यह सारी आफत युवकों की लाई हुई है। पुत्र का कहना है कि जमाना पिता की आज्ञा के विरुद्ध जाने को प्रेरित करता है। पिता का चार्ज है कि पुत्रों में गुरुजनों के प्रति अवज्ञा की भावना फैलती जा रही है। पति स्त्री से और स्त्री पति से असन्तुष्ट है, और स्नेह के स्थान पर अधिकार उसका लक्ष्य बन गया है। बहू सास की सेवा में अपनी गुलामी और दासता का अनुभव करती है, और सास की शिकायत है कि आजकल की बहुएँ तो तस्वीरों की तरह केवल दर्शन की चीज रह गई हैं। मतलब यह कि समाज शरीर का प्रत्येक अंग बेचैन एवं अतृप्त है। सर्वत्र अशान्ति है, सर्वत्र असन्तोष है, सर्वत्र पीड़ा है।

सुख को पहचानने में जो भूल आज हो रही है, उससे सुख चाहने एवं सुख प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होने पर भी, हम अतृप्त हैं। हमने सुख को वहाँ समझ रखा है, जहाँ वह नहीं है। हम भूल गये हैं कि आनन्द का स्त्रोत प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर में ही है। भ्रमित कस्तूरी-मृग की नाईं हम सुख की सुगन्ध में पागल, उसकी खोज में फिर रहे है, जब कि आनन्द हमारे अन्दर ही पड़ा है। हमने इसका सुख ढ़क रखा है। यदि उसके मुख पर से ढक्कन हटा दें तो स्त्रोत निर्बन्ध होकर बह निकले और आनन्द का फव्वारा हमारे जीवन को ओत प्रोत कर दे।

अवश्य ही दुनिया में धन का भी महत्व है, और चीजों का भी महत्व है, जो वैभव के सामूहिक नाम से पुकारी जाती है। मैं यह नहीं कहता कि तुम धन की अपेक्षा करो और न मैं यह कहता हूँ कि तुम दुनिया और उसकी तड़क-भड़क की ओर से आंखें बन्द कर लो। मैं कहता केवल यह हूँ कि ये सब चीजें अपनी-अपनी जगह पर ठीक हैं और इनका अपना उपयोग है। मैं कहता यह हूँ कि इन चीजों को उतना ही महत्त्व देना चाहिए, जितने की वे अधिकारिणी हैं। मैं यह नहीं कहता कि धन उपेक्षणीय है, और इसका कोई उपयोग नहीं। मैं कहता यह हूँ कि धन ही सुख नहीं हैं। केवल धन से सुखी होने की कल्पना करना मिथ्या है। आनन्द वह चीज नहीं, जो चाँदी के टुकड़ों से खरीदा जा सके। आनन्द तो दिल का बीज हैं, वह बाजारों में नहीं बिकता, दिलों में बसता है। वह आत्मानुभव की चीज है, वह अपने में अपनी परिपूर्णता देख लेने का परिणाम है।

कहा यह जाएगा की क्या दुनिया पागल है, जो धन के पीछे दौड़ रही है, जो अधिकारों के लिए बेचैन है। मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हाँ, दुनिया यदि धन के पीछे लग कर सुख प्राप्त करना चाहती है, तो पागल है। हम देखते हैं और रोज देखते हैं कि संसार में कितने ही साधारण स्थिति के आदमी बड़े सुखी हैं। उनके जीवन में अशान्ति नहीं, अतृप्ति नहीं, वितृष्णा नहीं, सब ठीक-ठीक चल रहा है। मामूली गृहस्थी हैं, पैसा अधिक नहीं, पर उनको धन का अभाव इतना नहीं खलता कि हमारे जीवन को विषम कर दे। घर में हंसी का दरिया बहता रहता है और दिलों में प्रेम और तृप्ति भरी हुई है। यहाँ पत्नी यह अनुभव नहीं करती कि वह दासी है और काम करते-करते मरी जा रही है। यहाँ जीवन का मार्ग प्रेम के फूलों से मृदुल है और उससे सर्वत्र आनन्द की सुगन्ध है।

इसके विरुद्ध समाज में ऐसे आदमियों की कमी नहीं है, जिसके पास वैभव का संपूर्ण विलास थिरक रहा है, सब प्रकार की सुविधायें उनके लिए एकत्र हैं। मोटरें हैं, बंगले हैं, नौकर हैं, यश है, भरा-पूरा कुटुम्ब है, अच्छा व्यापार या जमींदारी है, धन की कोई चिन्ता नहीं। कल क्या होगा, इस चिन्ता के तीव्र दंश का उनको कभी अनुभव नहीं हुआ। फिर भी जीवन अतृप्त और अशान्त है, वैभव का बोझ ऐसा लद गया है कि जीवन दिन-दिन अचेतन होता जाता है। जीवन का सौख्य धन एवं वैभव की वितृष्णाओं में, और उससे पैदा होने वाले मानो विष प्रलोभनों में डूब गया है। सब कुछ है, पर न जाने क्या नहीं है, जिससे सब कुछ फीका, सब कुछ बेस्वाद हो गया है। रात दिन एक नशे में भूली हुई आत्मा जीवन यात्रा पूरी कर रही है। सुख नहीं, शान्ति नहीं, तृप्ति नहीं, आनन्द नहीं।

यह स्पष्ट है कि मनुष्य का आनन्द उसकी अपनी चीज है और उसके अन्दर ही समाई हुई है, इसे खोजने कहीं दूर नहीं जाना है और यह धन पर, अथवा सुख के नाम पर बाजार में बिकने वाली सुविधाओं पर निर्भर नहीं करता। यह आकाँक्षाओं को निर्बन्ध छोड़ देने से न कभी मिला है, न मिलेगा। क्योंकि जहाँ शान्ति और तृप्ति नहीं है, वहाँ और आनन्द भी नहीं है।

इसलिए यदि तुम सुख चाहते हो तो पहली बात यह है कि जहाँ वह है वहाँ उसको देखने एवं पाने की ओर ध्यान दो। यह जो सुख की छाया है और जिसको तुम रुपयों से खरीदना चाहते हो उसे भूल जाओ। आनन्द का सौदा रुपयों से नहीं हुआ करता, यहाँ तो दिल का सिक्का चलता है। दिल निर्मल, विशुद्ध, खरा होगा तो आनन्द की धारा तुम्हारे जीवन को ओत प्रोत कर देगी।


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