विपत्तियों के प्रयोजन का तत्त्व ज्ञान

December 1951

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भगवान को दया सिन्धु एवं करुणा सागर कहा जाता है। उनके वात्सल्य, दान और उपकार का कोई अन्त नहीं। साधारण प्राणियों का जब अपनी कृतियों पर, अपनी संतति पर इतना ममत्व होता है तो उस महान प्रभु का अपने बालकों पर कितना स्नेह होगा इसकी कल्पना करना भी सहज नहीं है। चित्रकार अपने चित्र को, माली अपने बाग को, मूर्तिकार अपनी मूर्ति को, किसान अपने खेत को, गडरियाँ अपनी भेड़ों को अच्छी, उन्नत, विकसित स्थिति में रखना चाहता है। उन्हें अच्छी स्थिति में देखकर प्रसन्न होता है, फिर परमात्मा अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य को अच्छी स्थिति में न रखना चाहे, ऐसा नहीं हो सकता है। निश्चय ही प्रभु का यह प्रयत्न निरन्तर रहता है कि हम सब सुखी एवं सुविकसित हों। उनकी दया और करुणा निरन्तर हमारे ऊपर बरसती रहती है।

इतना होते हुए भी देखा जाता है कि कितने ही मनुष्य अत्यन्त दुखी हैं। उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट और अभाव सता रहे हैं। भय, पीड़ा, वियोग, आस, अन्याय एवं अभाव से संत्रस्त हुए कितने ही व्यक्ति बुरी तरह दुख सागर में गोते लगा रहे हैं किसी किसी पर ऐसी आकस्मिक विपत्ति आती है कि देखने वालों का हृदय दहल जाता है। ऐसे अवसरों पर ईश्वर की दयालुता पर सन्देह होने लगता है। कई बार तो कष्टों को दैवी कोप, ईश्वरीय निष्ठुरता मान लिया जाता है। परन्तु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। प्रभु एक क्षण भर के लिए भी करुणा रहित नहीं हो सकते उनकी अनन्त दया का निर्झर एक क्षण के लिये भी नहीं रुक सकता। जिसे हम विपत्ति समझते हैं, वह भी एक प्रकार से उनकी दया ही होती है।

माता का अपने बच्चे पर असाधारण प्यार होता है, वह उसे सुखी बनाने के लिए अपनी समझ के अनुसार कोई बात उठा नहीं रखती तो भी उसके कई कार्य ऐसे हैं जो बालक को अप्रिय होते हैं। बालक किसी स्वादिष्ट भोजन को बहुत अधिक मात्रा में खाना चाहता है, माता जानती है कि अधिक खाने से यह बीमार पड़ जायेगा। इसलिए वह बच्चे के रूठने, रोने, हाथ पाँव पीटने की कुछ भी परवा न करके उतना ही खाने देती है जितना कि आवश्यक है। आग, हथियार, बारूद आदि से बच्चे को दूर रखा जाता है वह उनसे खेलना चाहे तो बलपूर्वक रोक दिया जाता है, घर के पशुओं के साथ खेलना चाहे तो भी उसे रोका जाता है ताकि उनके पैरों की चपेट में आकर कहीं कुचल न जाए। बच्चा खिड़की छज्जे में से बाहर की ओर झुक कर देखना चाहे तो उसकी स्वाधीनता को तुरन्त रोक दिया जाता है। कोई अनुचित काम करने पर चपत भी लगाये जाते हैं और डराने के लिए कोठरी में भी बन्द कर दिया जाता है। कई बार उसे मुर्गा बनाना, धूप में खड़ा होने, कान पकड़ कर उठने बैठने, भूखा रहने, आदि की सजा दी जाती है। बीमार होने पर माता उसे कड़वी दवा जबरदस्ती पिलाती है और उसके कष्ट की परवाह न करके आवश्यक होने पर इंजेक्शन या आपरेशन कराने के लिए भी छाती कड़ी करके तैयार हो जाती है।

बालक समझता है कि माता बड़ी निष्ठुर है, मुझे अमुक वस्तु नहीं देती, अमुक प्रकार सताती है और अमुक कष्ट पड़ने पर भी मेरी सहायता नहीं करती। अल्पज्ञता के कारण वह माता के प्रति अपने मन में दुर्भावना ला सकता है, उस पर निष्ठुरता का दोषारोपण कर सकता है, पर निश्चय ही उसकी मान्यता भ्रमपूर्ण होती है, यदि वह माता के हृदय को देख सकता तो उसे प्रतीत होता कि उसमें कितनी अपार करुणा भरी हुई है और इतना ऊँचा वात्सल्य न होता तो उसके हित याचना के लिए बच्चे के लिए कष्ट के समय होने वाले अपने दुख को, वह किस प्रकार छाती कड़ी करके सहन करती?

गायत्री को ‘सद्बुद्धि’ कहते हैं। माता जिसके मनः क्षेत्र में अपना पर्दा पण करती है उसे बाल बुद्धि से ऊँचा उठाकर दूरदर्शी और बुद्धिमान बना देती हैं। बालक और माता की खींचतान में किसका पक्ष उचित है, इसे कोई भी बुद्धिमत्ता प्राप्त हो जाती है तो वह अपने कष्टों को दैवी कोप या आपत्ति नहीं मानता वरन् माता द्वारा अपने सुधार का अत्यन्त सहृदयता एवं वात्सल्य पूर्ण महान प्रयत्न मानता है। वह तात्कालिक कठिनाइयों को प्रभु की अपार कृपा समझ कर हँसते हँसते सहन कर लेता हैं।

माता के दुलार के तरीके दो प्रकार के होते हैं। एक वे जिनसे बालक प्रसन्न होता है। जब उसे मिठाई, खिलौने, बढ़िया कपड़े आदि दिये जाते हैं और सैर कराने या तमाशे दिखाने ले जाया जाता है तो बालक प्रसन्न होता है और सोचता है कि मेरी माता कितनी अच्छी है। परन्तु जब माता काजल लगाने के लिए हाथ पकड़ कर जबरदस्ती करती है, जबरदस्ती नहलाती है, स्कूल जाने के लिए धमकी फटकार कर विवश करती है तो बच्चा झल्लाता है और माता को कोसता है। बाल बुद्धि नहीं जानती कि कभी मधुर कभी कठोर व्यवहार उनके साथ क्यों किया जाता है। वह माता के वात्सल्य पर शंका करता है जो ‘वस्तु स्थिति’ को जानते हैं उन्हें पता है कि माता बच्चे के प्रति केवल उपकार का व्यवहार ही कर सकती है। मधुर और कठोर दोनों ही व्यवहारों में वात्सल्य भरा होता है। प्रभु की कृपा भी दो प्रकार की होती है एक सुख दूसरी दुख। दोनों में ही हमारा हित और उसका स्नेह भरा होता है। अल्पज्ञता उस वस्तुस्थिति से हमें परिचित नहीं होने देती, पर गायत्री की जब कृपा होती है, सद्बुद्धि का हृदय में प्रकाश हो जाता है, तो ‘कष्ट’ नाम की दुख देने वाली कोई वस्तु शेष नहीं रहती। कठोर एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ एक भिन्न प्रकार का दैवी उपहार प्रतीत होता है और उनसे डरने या दुखी होने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता।

सुख से मनुष्य को कई लाभ हैं, चित्त प्रसन्न रहता है, इन्द्रियाँ तृप्त होती हैं, मन में उत्साह रहता है, उन्नति करने के साधन उपलब्ध होते हैं, इच्छाएँ पूरी करने में सुविधा रहती है, मित्र बढ़ जाते हैं साहस बढ़ता है, मान बड़ाई के अवसर मिलते हैं। इस प्रकार के और लाभ भी कम नहीं हैं। दुख से मनुष्य की खोई हुई प्रतिभा का विकास होता है, कष्ट से निवारण पाने के लिए मन के सब कल पुर्जे बड़ी तत्परता से क्रियाशील होते हैं, शरीर भी आलस्य छोड़कर कर्म निष्ठ हो जाता है। घोड़े को अच्छी चाल सिखाने वाले रईस उसके चूतड़ पर हंटर फटकारते हैं जिससे घोड़ा उत्तेजित होकर जल्दी जल्दी कदम बढ़ाता है, इसी समय लगाम के इशारे से उसे बढ़िया चाल चलाने का अभ्यास कराया जाता है। दुख, एक प्रकार का हंटर है जो हमारी शिथिल हुई शारीरिक और मानसिक शक्तियों को भड़का कर क्रियाशील बनाता है और साथ ही धर्माचरण की शिक्षा देकर चाल चलना सिखाता है।

फोड़ा चिर जाने से उसमें भरा हुआ मवाद निकल जाता है, दस्त हो जाने से पेट में संचित मल की शुद्धि हो जाती है, लंघन हो जाने से कोष्ठ गत दोषों का शमन हो जाता है। दुख भोगने से संचित पाप भार उतर जाता है और अन्तः चेतना बड़ी शुद्ध, निर्मल एवं हल्की हो जाती है। सोने को अग्नि में डालने से उसके साथ चिपटे हुए दूषित पदार्थ छूट जाते हैं और कान्तिमान तपा हुआ तथा शुद्ध स्वर्ण प्रत्यक्ष हो जाता है। मनुष्य की कितनी ही बुराइयाँ बुरी आदतें, दूषित भावनाएं और विचार धाराएं तब तक नहीं छूटती जब तक कि वह किसी विपत्ति में नहीं पड़ता। कुदरत का एक बड़ा तमाचा खाकर उस बेहोश को होश आता है और तब वह उस बेढंगी चाल को संभालता है। जो ज्ञान बड़े बड़े उपदेशों, प्रवचनों और कथाओं के सुनने से नहीं होता वह विपत्ति की एक दुलत्ती खा लेने पर बड़ी सरलता से हृदयंगम हो जाता है। इस प्रकार कई बार काल दंड का एक आघात, हजार ज्ञानी गुरुओं से अधिक शिक्षा दे जाता है।

सुख में जहाँ अनेक अच्छाइयाँ हैं वहाँ यह एक भारी बुराई भी है कि मनुष्य उन सुख साधनों को सत्कर्म बढ़ाने में लगाने का सदुपयोग भूल कर, ऐश उड़ाने, अहंकार में डूब जाने, अधिक जोड़ने, के कुचक्र में पड़ जाता है। उसके समय का अधिकाँश भाग तुच्छ स्वार्थों में लगा रहता है। परमार्थ की ओर से वह प्रायः पीठ ही फेर लेता है। इस बुरी स्थिति से अपने पुत्र को बचाने के लिए ईश्वर उसकी धन सम्पत्ति छीन लेते हैं। पढ़ने से जी चुराकर हर घड़ी खिलौने से उलझे रहने वाले बालक के खिलौने जैसे माता छीन कर छिपा देती है वैसे ही धन, सन्तान, स्त्री, वैभव आदि के खेल खिलौनों को छीनकर ईश्वर हमें यह प्रेरणा करता है कि इस झंझट की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करने को आपके लिए पड़ा हुआ है। ‘खेल छोड़ो और स्कूल जाओ’ की शिक्षा के लिए कई बार हानि का, आपत्ति का दैवी आयोजन होता है।

कितनी ही उच्च आत्माएँ तप रूपी कष्ट को अपना परम मित्र और विश्व कल्याण का मूल समझ कर उसे स्वेच्छापूर्वक छाती से लगाती हैं। इससे उनकी कीर्ति अजर अमर हो जाती है और उस तप की अग्नि युग-युगान्तरों तक जनता को प्रकाश देती रहती है। हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, शिव, मोरध्वज, दधीचि, प्रताप, शिवाजी, हकीकतराय, वन्दावैरागी, भागीरथ, गौतम बुद्ध, ईसामसीह आदि ने जो कष्ट सहे, वे उनने स्वेच्छापूर्वक शिरोधार्य किये थे। यदि वे अपनी गति-विधि में थोड़ा सा परिवर्तन कर लेते तो इन आपत्तियों से सहज ही बच सकते थे। पर उनने देखा की यह कष्ट या हानि, उस महान लाभ की तुलना में तुच्छ है इसलिए उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपने कष्टसाध्य मार्ग पर दृढ़ रहना उचित समझा। दूसरे लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने बड़े कष्ट सहे, पर यदि उनकी मनोभूमि का कोई ठीक प्रकार परिचय प्राप्त कर सकेगा तो उसे प्रतीत होगा कि उनकी अन्तरात्मा प्रसन्नतापूर्वक उस सब को सहन कर रही थी।

भगवान जिसे अपनी शरण में लेते हैं, जिसे बन्धन मुक्त करना चाहते हैं, उसके अनिवार्य कर्म भोगों को जल्दी जल्दी भुगतवा कर उसे ऐसा ऋण मुक्त बना देते हैं कि भविष्य के लिए कोई बन्धन शेष न रहें और भक्त को फिर जन्म मरण के चक्र में न पड़ना पड़े। एक ओर तो विपत्ति द्वारा प्रारब्ध भोग समाप्त हो जाते हैं दूसरी ओर उसकी आन्तरिक पवित्रता बहुत बढ़ती है। इन उभय पक्षीय लाभों से वह बड़ी तीव्र गति से परम लक्ष्य की ओर प्रगति करता है। तपस्वी लोग ऐसे कष्टों को प्रयत्नपूर्वक अपने ऊपर आमंत्रित करते हैं ताकि उनकी लक्ष्य यात्रा शीघ्र पूरी हो जाए।

साधारणतः अनेक सद्गुणों के विकास के लिए भगवान समय समय पर अनेक कटु अनुभव कराते हैं। बच्चे की मृत्यु होने पर उसके शोक में ‘वात्सल्य’ का हृदय गत परम सात्विक तत्व उमड़ता है जिसके कारण वह अन्य बालकों पर अधिक प्रेम करना सीखता है। देखा गया है कि जिसकी पहली पत्नी गुजर जाती है वह अपनी दूसरी पत्नी से अधिक सद्व्यवहार करता है क्योंकि एक पत्नी खोने के कारण जो भावोद्रेक मन में हुआ उसके कारण दाम्पत्ति कर्त्तव्यों का उसे ज्ञान हुआ है और अपने प्रथम दाम्पत्य की अपेक्षा दूसरे दाम्पत्ति जीवन में अधिक सफल सिद्ध होता है, एक वियोग उसे उस खोई हुई वस्तु के महत्व को भली प्रकार हृदयंगम करा देता है। धन खोकर मनुष्य यह सीखता है कि धन का सदुपयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए। रोगी हो जाने पर आदमी यह जान पाता है कि संयत आहार विहार का क्या महत्त्व है। गाली देने पर जिसका मुँह पीट जाता है, उसी को यह अकल आती है कि गाली देना बुरी बात है। जिसको अत्याचार सहना पड़ा है वही जानता है कि दूसरों पर यदि जुल्म करूं तो उन्हें कितना कष्ट होगा। जब हम आपत्ति ग्रस्त होकर दूसरों की सहायता के लिए हाथ पसारते हैं और दो नेत्रों से दूसरों की ओर ताकते हैं तब यह पता चलता है कि दूसरे दुखियों की सहायता करना हमारे लिए भी कितना आवश्यक कर्तव्य है।

जब गायत्री माता सद्बुद्धि के रूप में साधक के हृदय कमल पर अवस्थित होती हैं तो अज्ञान जन्य अधिकाँश दुख दरिद्र तो मनोभूमि में से अपने आप पलायन कर जाते हैं तथा अनेक प्रकार की सुख सम्पत्तियों का द्वार स्वयमेव खुल जाता है।


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