(प्रो. लाल जी राम जी शुक्ल, एम. ए.)
हमारे जीवन का सुख और दुःख हमारे विचारों पर ही निर्भर रहता है। आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों से पता चलता है कि मनुष्य का न सिर्फ आन्तरिक जीवन वरन् उसके समस्त जीवन का व्यवहार तथा शारीरिक स्वास्थ्य भी मन की क्लिष्ट तथा अक्लिष्ट गतियों का परिणाम मात्र है। अशुभ विचारों का लाना ही अपने जीवन को दुखी बनाना है तथा शुभ विचारों का लाना सुखी बनाना है।
बुरे विचारों के निरोध का उपाय सबसे प्रथम उनको पहचानना ही है। जिनके विचारों को हम बुरे विचार मानते ही नहीं, उन्हें हम अपने मन-मन्दिर में प्रवेश करने से क्यों कर रोक सकेंगे? यदि दूसरों के धनापहरण के विचार को हम उत्तम विचार मानते हैं तो उसे अपने मन में आने से रोकने की जगह भली प्रकार से उसका स्वागत करेंगे। जो विचार बुरे होते हैं वे उनके प्रथम स्वरूप में ही बुरे नहीं लगते उनके परिणाम भी बुरे होते हैं। विचारवान व्यक्ति ही इस बात को जान सकता है कि अमुक विचार अन्त में दुःखदायी होगा।
संसार के अत्यधिक मनुष्यों को यह समझाना ही कठिन है कि उनके विचार ही उनके सुख-दुःख के कारण हैं। मनुष्य मात्र में अपने आप पर विवेचना करने की शक्ति का अभाव होता है। हम सब ही बहिर्मुखी हैं। इसलिए अपने कष्टों का कारण दूसरों को मानने में सन्तोष पाते हैं। अपने दोषों को दूसरों में देखते हैं। जिस अवाँछनीय घटना की जड़ हमारे विचारों में ही है उसे हम दूसरे व्यक्तियों में देखते हैं। इस प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति को दोषारोपण की प्रवृत्ति कहते हैं अथवा प्रोजेक्शन कहते हैं। वही मनुष्य बुरे विचारो के निरोध में समर्थ होता है, जो अपने विषय में सदा चिन्तन करता है और जो परोक्ष रूप से भी यह जानता है कि मनुष्य का मन ही सुखों और दुःखों का कारण है। ऐसे ही मनुष्य में भले और बुरे विचारों के पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है।
किसी भी ऐसे विचार को बुरा विचार कहना चाहिए जो आत्मा को दुःख देता हो, उसको भ्रम में डालता हो। बीमारी के विचारों और असफलता के विचारों को सभी बुरा कहेंगे यह प्रत्यक्ष ही है कि इन विचारों से मन को दुःख होता है और अनहोनी घटना हो के रहती है। किन्तु इस बात को मानने के लिए कम लोग तैयार होंगे कि शत्रुता के विचार, दूसरों को क्षति पहुँचाने के विचार भी बुरे विचार है। ये विचार भी उसी प्रकार हमारी आत्मा का बल कम कर देते हैं जिस प्रकार कि असफलता और बीमारी के विचार आत्मा का बल कम कर देते हैं।
हमारा मन अभ्यास का दास है। जिस प्रकार का अभ्यास मन द्वारा कराया जाता है उसी प्रकार उसका अभ्यास सदा के लिये बन जाता है। जिस मनुष्य को पढ़ने लिखने का अभ्यास रहता है, उसका मन रुचि के साथ ऐसे काम को करने लगता है। ऐसे व्यक्ति से बिना पढ़े-लिखे रहा ही नहीं जाता। जिस मनुष्य को दूसरों की निन्दा करने का अभ्यास है, जो दूसरों के अहित का सदा चिन्तन किया करता है, वह भी उन कर्मों को किये बिना रह नहीं सकता। ऐसे कार्य उसके लिए एक प्रकार के नशा जैसे व्यसन हो जाते हैं। वह व्यक्ति अनायास ही दूसरों की निंदा और अकल्याण सोचने में लग जाता है। दूसरों की स्तुति सुनकर उसे बुखार जैसा आ जाता है।
जिस व्यक्ति का इस प्रकार का अभ्यास हो जाता है वह जब अपने आप के विषय में अशुभ विचार लाता है तो उन विचारों का भी विरोध नहीं कर सकता। जिसको दूसरों की बुराई का चिन्तन भला लगता है वह अपनी बुराई का भी चिन्तन करने लगता है। फिर इस प्रकार के विचार उनके मन को नहीं छोड़ते। अब यदि वह चाहे कि अमुक अशुभ विचार को छोड़ दे, तो भी अब वह उसे छोड़ने में असमर्थ होता है। वही मनुष्य अपने विचारों पर नियंत्रण कर सकता है जिसकी आत्मा बलवान और विवेकी है। जो यह जानता है कि जिस साँप को हम दूसरों के काटने के लिए पाले हैं, वही साँप किसी असावधानी की अवस्था में हम को काट सकता है। दूसरों को दुःख देने के विचार साँप के सदृश हैं। अतएव सबका सदा कल्याण सोचना, किसी का भी अहित न सोचना, बुरे विचारों के निवारण का पहला उपाय है।
जिस व्यक्ति के प्रति हम बुरे विचार लाते हैं उससे हम घृणा करते लगते हैं। घृणा की वृत्ति उलट कर भय की वृत्ति बन जाती है। जो दूसरों की मान-हानि का इच्छुक है उसके मन में अपने आप ही अपनी मान हानि का भय उत्पन्न हो जाता है। जो दूसरों की शारीरिक क्षति चाहता है, उसे अपने शरीर के विषय में अनेक रोगों की कल्पना अपने आप उठने लगती है। जो दूसरों की असफलता चाहता हैं वह अपनी सफलता के विषय में सन्देहात्मक हो जाता है।
हमें यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी भावना व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित नहीं रहती। हम किसी समय एक विशेष व्यक्ति से डर रहे हों, सम्भव है वह व्यक्ति हमारा कुछ भी बुरा न कर सके, वह किसी कारण से हमसे दूर हो जाए। किन्तु इस प्रकार व्यक्ति विशेष से दूर हो जाने पर हम अपनी दुर्भावना से मुक्त नहीं होते यह भावना अपना एक दूसरा विषय खोज लेगी। अब हम जितना भय पहले व्यक्ति के प्रति रखते थे उतना ही दूसरों के प्रति रखने लगेंगे। दूसरों को अपने समीप से चले जाने की चाह न रख कर उसे अपने बुरे विचारों को ही विदा कर देना चाहिए। स्थान के बदल देने से भी दुखी मनुष्य सुखी नहीं हो जाता, जैसा कि इमर्सन महाशय ने लिखा है -”उसका भूत सदा ही उसके साथ चलता रहेगा, वह जहाँ भी जाएगा, वहीं अपने दुखों को पायेगा। यदि कोई मनुष्य सुखी हो सकता है तो परिस्थिति परिवर्तन से नहीं, अपने आपके परिवर्तन से।”
बुरे विचार के प्रवेश को रोकने का दूसरा उपाय यह है कि मनुष्य सदा अपने आपको किसी न किसी भले काम में लगाए रहें। श्रीमद्भागवत् में जो मन रूपी भूत को वश में करने का उपाय बताया गया है वह बड़ा ही शिक्षाप्रद है। मन को सर्वदा नेक कामों में लगाये रहने से ही वह बस में रहता है। एक मेरे परिचित, देश सेवक सज्जन एक दिन कुछ लोगों के बीमार होने पर बातचीत करते समय कहने लगे कि आप लोगों को बीमार होने की फुरसत कहाँ मिल जाती है, हमें तो बीमार होने की फुरसत ही नहीं मिलती। वास्तव में, बीमारी एक फुरसत का विचार है। जब हमारा मन फुरसत में रहता है, तब हम अनेक प्रकार की दुर्भावनाएं अपने मन में लाने लगते हैं, जो बीमारी के रूप में प्रादुर्भूत हो जाती हैं।
बुरे विचारों के रोकने का तीसरा उपाय प्रतिभावान है। प्रत्येक मनुष्य को अपने आपके प्रति सचेत रहना चाहिए। जब भी कोई विचार उसके मन में आये, उसे उसका भली प्रकार से निरीक्षण करना चाहिए। सम्भव है कि जिसे वह अपने कल्याण का विचार समझता हो वही उसके अकल्याण का विचार हो। शत्रु के प्रति घृणा करना यह हमारे मन का सहज स्वभाव है उसका अकल्याण चाहना स्वाभाविक है। विचारवान् व्यक्ति को शत्रु के गुणों का चिन्तन करना चाहिए। कृष्ण भगवान् ने दुर्योधन का वध कराया, किन्तु यह उसके कल्याण के लिए। जो व्यक्ति किसी का स्वप्न में भी अकल्याण नहीं चाहता वह अपने विषय में भी अकल्याण के विचार न पायेगा। यदि ऐसे व्यक्ति के मन में अपने विषय में अकल्याण का विचार आ भी जाए, तो वह उस विचार के अपने पूर्व अभ्यास के कारण शीघ्र ही मुक्त हो जाएगा। ऊपर कहा जा चुका है कि अभ्यास के कारण ही मनुष्य अपने आपके अकल्याण के विचारों को रोकने में असमर्थ होता है।
भलाई में बुराई और बुराई में भलाई देखने का नाम ही प्रति भावना है। किसी भी प्रकार के लाभ से अत्यानन्दित न होना और किसी भी प्रकार की हानि से अति उद्विग्न न होना प्रतिभावान का परिणाम है। लाभ की अवस्था में जो मनुष्य अति सुख मनाता है उसका मन कमजोर हो जाता है और वह हानि अथवा उसकी सम्भावना की अवस्था में अति दुःख मनाए बिना नहीं रह सकता। किसी प्रकार की साँसारिक वाँछनीय परिस्थिति में दोष छिपा रहता है तथा अवाँछनीय परिस्थिति में गुण रहता है। इस गुण को ढूँढ़ निकालना चाहिए।
इसी नियम का एक स्वरूप यह है कि हम सभी परिस्थितियों को भला समझें। वास्तव में मनुष्य सुखी-दुखी, असफल सफल अपने दृष्टिकोण के कारण होता है। हमें अपने जीवन को सफलीभूत बनाने के लिए सदा यह विचार करना चाहिए कि जो कुछ अभी तक हुआ, सब हमारे भले के लिए ही हुआ। हमारे दुश्मन भी हमारी भलाई अप्रत्यक्ष रूप से कर रहे हैं। यदि हमारा कोई दुश्मन न होता तो हमारे दुर्गुणों को बताने वाला भी कोई न होता। हमारी शक्ति हमारे दुश्मनों के कारण ही बढ़ती है। जिस व्यक्ति को किसी से लड़ना ही नहीं उसे शक्ति संचय की आवश्यकता ही क्या? अतएव प्रत्येक लड़ाई हम अपने आपकी और दूसरों की भलाई के लिए करते हैं।
बुरे विचारों के निरोध का एक भारी उपाय उनके प्रति साक्षी भाव प्राप्त करना है। कितने लोग ऐसे हैं जो किसी विशेष भाव से मुक्त होना चाहते हैं उससे इसलिए ही मुक्त नहीं होते, क्योंकि इससे वे मुक्त होना चाहते हैं। इस प्रकार की दशा निम्नलिखित कथानक से जो श्रीमद्भागवत में आता है, स्पष्ट हो जाएगी।
“कोई एक पुरुष किसी रूपवती महिला को किसी प्रकार अपने वंश में करना चाहता था। इसके लिए वह एक योगी के पास वशीकरण मन्त्र सीखने के लिए गया। योगी जी ने एक मन्त्र उसे बताया और कहा कि एकान्त स्थान में बैठ कर उसका एक हजार बार जप करो। स्थान ऐसा हो जहाँ किसी तरह की आहट न हो और उसे कोई देख नहीं पाये। वह व्यक्ति बड़ी प्रसन्नता के साथ योगी महात्मा के पास से चलने लगा, वह थोड़ी ही दूर गया था कि उसे योगी जी ने फिर बुला कर कहा कि इस जाप में एक शर्त यह है कि इसे जपते समय बन्दर का ध्यान मन में न आने पावे, नहीं तो सिद्धि प्राप्त नहीं होगी।
उस व्यक्ति ने झट एकान्त स्थान में जप का आयोजन किया। किन्तु ज्यों ही उसने पहली बार मन्त्र कहा, उसी समय बन्दर का विचार मन में आ गया। वह इस विचार से जितना ही लड़ा उतना ही वह विचार और दृढ़ होता गया। बेचारा निराश होकर योगी महात्मा के पास आया और कहने लगा कि-महाराज यदि आप यह विचार न सुनाते कि बन्दर का ध्यान न आने पावे तो मुझे कदापि बन्दर का विचार को मन में न आता अब तो हम जितना ही बन्दर के विचार आने देने से रोकते हैं उतना ही वह और दृढ़ होता जाता है।”
कितने ही नींद की बीमारी ( इन्सोमिनिया) वाले लोगों को नींद इसलिए नहीं आती, कि वह नींद लाना चाहते है। अर्थात् अपनी जाग्रत अवस्था से मुक्त होना चाहते हैं किन्तु यह जाग्रत अवस्था से मुक्त होने का विचार ही, उन्हें उस अवस्था से मुक्त नहीं होने देता। जिस व्यक्ति को (इन्सोमिनिया) की बीमारी हो यदि, उस बीमारी के प्रति उदासीन कर दिया जाए तो वह अपने आप सो जायेगा। यही नीति बुरे विचारों के सम्बन्ध में बरतनी चाहिए।