क्रोध हमारा आन्तरिक शत्रु है।

May 1950

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

क्रोध प्राणहरः शत्रुः क्रोधऽमित्रमुखो रिपुः।

क्रोधोऽसि महातीक्षणः सर्व क्रोधोऽर्षति॥

त्पते यतते चैव यच्च दानं प्रयच्छति।

क्रोधेन सर्व हरति तस्मात क्रोधं विवजयेत्॥

(बाल्मीकि रामायण उत्तर. 71)

अर्थात् क्रोध प्राण हरण करने वाला शत्रु, क्रोध अमित्र - मुखधारी बैरी है, क्रोध महा तीक्ष्ण तलवार है, क्रोध सब प्रकार से गिराने वाला है, क्रोध तप, संयम, और दान सभी हरण कर लेता है। अतएव, क्रोध को छोड़ देना चाहिए।

क्रोध त्याग की महिमा बताते हुए श्री शुक्राचार्य जी अपनी कन्या देवयानी से कहते हैं- “देवयानी! जो नित्य दूसरों के द्वारा की हुई अपनी निन्दा को सह लेता है, तुम निश्चय जानो कि उसने सब को जीत लिया। जो बिगड़ते हुए घोड़ों के समान उभरे हुए क्रोध को जीत लेता है, उसी को साधु लोग जितेन्द्रिय कहते हैं, केवल घोड़ों की लगाम हाथ में रखने वाले को नहीं। देवयानी! जो पुरुष उभड़े हुए क्रोध का अक्रोध के द्वारा शान्त कर देता है, तुम निश्चय जानों, उसने सब जीत लिया। जो पुरुष उभरे हुए क्रोध को क्षमा के द्वारा शान्त कर देता है और सर्प के द्वारा पुरानी केंचुली छोड़ने के समान क्रोध का त्याग कर देता है, वास्तविक अर्थों में वहीं “पुरुष” कहलाता है। जो क्रोध को रोक लेता है, निन्दा को सह लेता है और दूसरों के द्वारा सताये जाने पर भी उनको बदले में नहीं सताता, वहीं परमात्मा की प्राप्ति का अधिकारी होता है। जो सौ वर्षों तक हर महीने बिना थके लगातार यज्ञ करता रहे और (जो कभी किसी पर क्रोध न करे- इन दोनों में क्रोध न करने वाला पुरुष ही श्रेष्ठ है।

(महाभारत आदिपर्व)

क्रोध दुःख के चेतन कारण के साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। कभी-2 हम दुःख के अनुमान मात्र से उद्विग्न हो उठते हैं। अमुक ने हमारे लिए ऐसा बुरा सोचा, या कोई षड्यन्त्र बनाया-ऐसा सोच कर हम क्रोध से तिलमिला उठते हैं, आँख भौं सिकोड़ लेते हैं, चेहरा सुर्ख हो उठता है और हम यह अवसर देखा करते हैं कि कब वह व्यक्ति आये और कब हम प्रतिशोध लें।

क्रोध में दो भाव मूल रूप से विद्यमान रहते हैं- (1) साक्षात्कार के समय दुःख (2) उसके कारण के सम्बन्ध का परिज्ञान। दुःख के कारण की स्पष्ट धारणा जब तक न हो, तब तक क्रोध की भावना का उदय नहीं होता। कारण का ज्ञान क्रोध की उत्पत्ति में सहायक होता है। यदि किसी ने हमारा अहित किया है और हम उससे अप्रसन्न हैं, तो क्रोध का भाव मन की किसी गुप्त कन्दरा में छिपा रहता है।

क्रोध का सम्बन्ध मन के अन्य विकारों से बड़ा घनिष्ठ है। क्रोध के वशीभूत होकर हमें उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता और हम हाथापाई कर उठते हैं बातों-बातों ही में उखड़ उठना, लड़ाई झगड़ा साधारण सी बात हैं। यदि तुरन्त क्रोध का प्रकाशन हो जाय, तब तो मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक है, पर यदि वह अन्त प्रदेश में पहुँच कर एक भावना ग्रन्थि धन जाय, तो बड़ी दुःखदायी होती है। बहुत दिनों तक टिका हुआ क्रोध वैर कहलाता है। वैर एक ऐसी मानसिक बीमारी है जिसका कुफल मनुष्य को दैनिक जीवन में भुगतना पड़ता है। वह अपने आपको संतुलित नहीं रख पाता। जिससे उसे वैर है, उसके उत्तम गुण, भलाई, पुराना प्रेम, उच्च संस्कार इत्यादि सब विस्मृत कर बैठता है। स्थायी रूप से एक भावना ग्रन्थि बन जाने से क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है किन्तु दूसरे व्यक्ति को सजा देने, नुकसान पहुँचाने या पीड़ित करने की कुत्सित भावना निरन्तर मन को दग्ध किया करती है।

वैर पुरानी जीर्ण मानसिक बीमारी है, क्रोध तत्कालीन और क्षणिक प्रमाद है। क्रोध में पागल होकर हम सोचने का समय नहीं देखते, वैर उसके लिए बहुत समय लेता है। क्रोध में अस्थिरता, क्षणिकता, तत्कालीनता, बुद्धि का कुँठित हो जाना, उद्विग्नता, आत्म रक्षा, अहं की पुष्टि असहिष्णुता, दूसरे को दंडित करने की भावनाएं संयुक्त हैं। वैर में सोचने समझने प्रतिशोध लेने का समय होता है। हम अच्छी तरह सोचते हैं, कुछ समय लेते है और तब बदला लेते हैं। पं. रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “दुःख पहुँचने के साथ ही दुःखदाता को पीड़ित करने की प्रेरणा करने वाला मनोविचार क्रोध और कुछ काल बीत जाने पर प्रेरणा करने वाला भाव वैर है, किसी ने आपको गाली दी यदि आपने उसी समय उसे मार दिया तो आपने क्रोध किया। मान लीजिए कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद आपको मिला। अब यदि आपने उससे बिना फिर गाली सुने, मिलने के साथ ही उसे मार दिया तो यह आपका वैर निकालना हुआ।”

वैर में धारणा शक्ति अर्थात् भावों को संचित कर मन में रोक रखने की शक्ति की आवश्यकता होती है। जिन प्राणियों में पुराने क्रोध का संचित रखने की शक्ति विद्यमान हैं, वे ही वैर कर सकते हैं। क्रोध तो पशु, पक्षी, मनुष्य, अर्थात् सभी प्राणियों को अस्थिर और पागल करने में पूर्ण समर्थ है किन्तु वैर यह कार्य नहीं कर सकता। वैर में स्थायित्व है।

क्रोध की मात्रा कम या अधिक, तेज या हलकी हो सकती है। चिड़चिड़ाहट क्रोध का हलका रूप है। साधारण भूलों या मामूली खराबियों, कमजोरियों या भद्दी बातों पर हम उद्विग्न तो होते हैं पर यह उग्रता उतनी तेज नहीं होती। थोड़ी देर रह कर शान्त हो जाती है। कभी हम अन्य किन्हीं कारणों से परेशान रहते हैं, कुछ अप्रिय हो जाने से दुःखी होते हैं, ऐसी मनोदशा में साधारण सी बात होते ही हम चिड़चिड़ा उठते हैं।

चिड़चिड़ाहट में सामान्य कारण ही उद्विग्नता उत्पन्न करने में समर्थ हैं। वह एक मानसिक दुर्बलता है जो अनेक कारणों से उत्पन्न हो सकती हैं। जिस व्यक्ति को पुनः पुनः डराया, धमकाया, या अधिक कार्य लिया जाय, क्रोध के अधिक अवसर प्राप्त हों और मन शान्त दशा में न आ सके, तो क्रोध स्वभाव का एक अंग बन जाता हैं। यह फिर जरा जरा सी असुविधा या कठिनाई में हलके रूप में प्रकाशित हुआ करता है।

चिड़चिड़ाहट प्रायः वृद्धों में अधिक देखने में आती है। रोगी अपनी दुर्बलता के कारण जरा-2 सी बात पर तिनक उठते हैं, औरतें काम से परेशान होकर इतनी उद्विग्न रहती हैं कि मामूली सी बात पर चिड़चिड़ा जातीं हैं। अध्यापक विद्यार्थियों की काँव-कांव सुनते-2 इतने दुःखी से हो उठते हैं कि तिनक उठते हैं। दुकानदार प्रायः ग्राहकों से जलभुन कर इस मानसिक दुर्बलता के शिकार बनते हैं। धार्मिक वृत्ति वाले रूढ़िवादी दुनिया की प्रगति देख-देखकर जीवन भर बड़बड़ाया करते हैं।

क्रोध मन को एक उत्तेजित और खिंची हुई स्थिति में रख देता है जिसके परिणामस्वरूप मन दूषित विकारों से भर जाता है। क्रोध से प्रथम तो उद्वेग उत्पन्न होता है। मन एक गुप्त किन्तु तीव्र पीड़ा से दुग्ध होने लगता है। रक्त में गमफल आ जाती है, और उसका प्रवाह बड़ा तेज हो जाता है। इस गमफल में मनुष्य के शुभ भाव, दया, प्रेम, सत्य, न्याय, विवेक, बुद्धि जल जाते हैं।

जिस पर क्रोध किया गया है यदि वह क्षमावान् और शान्त प्रकृति का हो और क्रोध से विचलित न हो, तो क्रोध करने वाले को बहुत दुःख होता है। वह जलभुन कर राख हो जाता है। मन में एक प्रकार का तूफान सा उठता है जिसका वेग इतना प्रबल होता है कि मनुष्य अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पाता। विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है, शिष्टता एवं शान्ति से वह हाथ धो बैठता है। कई बार क्रोध से उत्तेजित होकर क्रोधी व्यक्ति दूसरे की हिंसा और आत्मघात तक कर बैठते हैं।

क्रोध एक प्रकार का भूत है जिसके संचार होते ही मनुष्य आपे में नहीं रहता। उस पर किसी दूसरी सत्ता का प्रभाव हो जाता है। मन की निष्ठ वृत्तियाँ उस पर अपनी राक्षसी माया चढ़ा देती हैं, वह बेचारा इतना हत बुद्धि हो जाता है कि उसे यह ज्ञान ही नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है।

आधुनिक मनुष्य का आन्तरिक जीवन और मानसिक अवस्था अत्यन्त विक्षुब्ध है, दूसरों में वह अनिष्ट देखता है, उनसे हानि होने की कुकल्पना में डूबा रहता है, जीवन पर्यन्त इधर उधर लुढ़कता, ठुकराया जाता रहता है, शोक दुःख, चिंता, अविश्वास, उद्वेग, व्याकुलता आदि विकारों के वशीभूत होता रहता है। ये क्रोध जन्य मनोविकार अपना विष फैलाकर मनुष्य का जीवन विषैला बना रहे हैं। उसकी आध्यात्मिक शक्तियों का शोषण कर रहे हैं। साधना का सबसे बड़ा विघ्न क्रोध नाम का महाराक्षस ही है।

क्रोध शान्ति भंग करने वाला मनोविकार है। एक बार क्रोध आते ही मन को अवस्था विचलित हो उठती है, श्वासोच्छवास तीव्र हो उठता है, हृदय विक्षुब्ध हो उठता है। यह अवस्था आत्मिक विकास के विपरीत है। आत्मिक उन्नति के लिए शान्ति, प्रसन्नता, प्रेम और सद्भाव चाहिए।

जो व्यक्ति क्रोध के वश में है, वह एक ऐसे दैत्य के वश में है, जो न जाने कब मनुष्य को पतन के मार्ग में धकेल दे। क्रोध तथा आवेश के विचार आत्म बल का ह्रास करते हैं।

विचार प्रायः दो प्रकार के होते हैं (1) शान्त और दृढ़ तथा (2) संशयात्मक और डाँवाडोल। दूसरे प्रकार की स्थिति उद्वेग और शंकाशील है। इसी में क्रोध भी सम्मिलित है। उस उद्विग्न मनः स्थिति में मनुष्य कुछ भी उत्कृष्ट बात नहीं सोच सकता, उन्नति की भावना में संलग्न नहीं हो सकता। उसकी शारीरिक मशीनरी यकायक झंकृत हो उठती है। वह समूचा काँप उठता है।

धर्म नीति और शिष्टाचार-तीनों ही दृष्टिकोणों से क्रोध निकृष्ट है। क्रोधी मनुष्य धर्म कार्य किस प्रकार कर सकता है? उसमें धर्म निष्ठा, पूजन, मनन कीर्तन, अध्ययन, चिंतन, इत्यादि कैसे आ सकते है? जिसका शरीर और मन वश में नहीं वह नीति के अनुसार सत्-असत् का विवेक किस प्रकार कर सकता है? जिसे क्रोध आता है वह दूसरे के मान अपमान का विचार क्या करेगा।

एक विद्वान् का विचार है- “एक का क्रोध दूसरे में भी क्रोध का संचार करता हैं। जिसके प्रति क्रोध प्रदर्शन होता है, वह तत्काल अभाव का अनुभव करता है और इस दुःख पर उसकी त्यौरी चढ़ जाती है। यह विचार करने वाले बहुत थोड़े निकलते हैं कि हम पर जो क्रोध प्रकट किया जा रहा है, वह उचित है या अनुचित। इसी से धर्म और नीति में क्रोध के निरोध का उपदेश पाया जाता है। संत लोग तो खलों के वचन सहते ही हैं, दुनियादार लोग भी न जाने जितनी ऊँची-नीची पचाते रहते हैं। सभ्यता के व्यवहार में भी क्रोध नहीं तो, क्रोध के चिन्ह दिखाये दबाये जाते हैं। इस प्रकार का प्रतिबन्ध समाज की सुख−शांति के लिए बहुत आवश्यक है।

क्रोध के प्रेरक दो प्रकार के दुःख हो सकते है - अपना दुःख और पराया दुःख। जिस क्रोध के त्याग का उपदेश दिया जाता है वह पहले प्रकार का क्रोध है।”

क्रोध के द्वारा हम दूसरे व्यक्ति में भय का संचार करना चाहते है। यदि हम दूसरे को डराने में सफल हो जाते हैं और वह विनम्र होकर आत्मसमर्पण कर देता है, तब हमें विशेष प्रसन्नता होती है। यदि दूसरे व्यक्ति में भय उत्पन्न नहीं हो पाता, तो हमें अन्दर ही अन्दर एक प्रकार की गुप्त पीड़ा होती है। कभी-2 क्रोध दूसरे का गर्व चूर्ण करने के हेतु किया जाता है।

क्रोध असुरों की सम्पदा है। यदि हम क्रोध को काबू में न करेंगे तो तामसी, निराशापूर्ण और दुःखित दशा में पड़े रहेंगे। हमारे स्वभाव का राक्षसत्व ही प्रकट होगा। हम ईश्वर के राज्य में प्रवेश न पा सकेंगे। क्रोध के अधम विचारों से हमारी नैतिक, आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक अवनति होती है, अन्तःकरण के क्लेश बढ़ते हैं। क्रोध को मन में छिपाये रखने से प्रतिशोध, अतृप्ति, उद्वेग, शत्रु भाव, ईर्ष्या, असूया आदि विकार मन में उद्दीप्त होते हैं। छिपा हुआ क्रोध अनेक बार जटिल मानसिक रोगों का कारण बनता है। अनेक भावना ग्रन्थियाँ इसी शत्रुभाव की वजह से हमारे अन्तःप्रदेश में निर्मित होती है।

“क्रोधान्द्रवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रण्श्यति॥

-गीता

“अर्थात् क्रोध से अविवेक होता है, अविवेक से स्मरण में भ्रम हो जाता है, स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धिनाश होता है, बुद्धि के नष्ट होने से प्राणी नष्ट हो जाता है।”


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