(प. मदनमोहनजी विद्याधर)
(1) विद्वान् लोग प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करके जिस प्रकार स्वयं परम गुणमय, सुखदायक, विद्यानन्द का उपयोग करते हैं, उसी प्रकार वे दूसरों को भी उसका अनुभव कराते हैं। विद्वानों को चाहियें कि अपने सत्य, उपदेश, विद्या, धर्म और आनन्द से प्रजा को भी लाभ पहुँचाएं।
(2) राजा तथा अन्य सब मनुष्यों को उचित है कि मृगया एवं मद्यपानादि दुष्कर्मों में न फंसे तथा दुर्व्यसनों से दूर रहकर धर्मयुक्त गुण, कर्म और स्वभावों में बर्तते हुए सदा अच्छे काम किया करें।
(3) वे ही लोग धन्यवाद के पात्र एवं कृतकृत्य हैं, जो ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षा और विद्या के द्वारा अपनी सन्तानों के शारीरिक तथा आत्मिक बल को पूर्णतया बढ़ाते हैं, जिससे कि वे माता, पिता, पति, सास, ससुर, राजा, प्रजा, पड़ोसी, दुष्ट-मित्र एवं अपनी सन्तानों के साथ यथायोग्य धर्मानुकूल व्यवहार करने में समर्थ होते हैं।
(4) सब मनुष्यों को सर्वदा सच्चे, मीठे, कल्याणकारी और प्रिय वचन बोलने चाहिये। उन्हें यह निश्चय कर लेना चाहियें कि उनकी जानकारी में जो बात जैसी हो, वे उसे जीभ से उसी प्रकार प्रकाशित करें, उससे विपरीत नहीं। सब लोगों को अपनी ही वस्तु को अपनी बतानी चाहिये, दूसरों की चीज को नहीं। अर्थात् उन्हें धर्मानुकूल पुरुषार्थ से जितना प्राप्त हुआ है, उतने ही में सन्तोष रखें। सब दिन सुगन्धादि द्रव्यों का अच्छी प्रकार संस्कार कर उन्हें सारे जगत के उपकार के लिये होम किया करें तथा मिथ्या वादकों को छोड़कर सत्य ही भाषण करें।
(5) प्रत्येक को केवल अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहियें।
(6) सच तो यह है कि इस अनिश्चित एवं क्षणभंगुर जीवन में परायी हानि करके लाभ से स्वयं वंचित रहना और दूसरों को भी रखना मनुष्यता के विरुद्ध है।
(7) जो यथार्थ वक्ता, धर्मात्मा और सबके सुख के लिये प्रयत्न करता है, उसी को मैं आप्त समझता हूँ।
(8) जो छलादि दोषों से रहित धर्मात्मा, विद्वान् और सत्य का उपदेश करने वाला पुरुष सब पर कृपादृष्टि करके अविद्यान्धकारकों को निवृत्त कर अज्ञानी लोगों की आत्माओं में सर्वदा विद्या रूपी सूर्य को प्रकाश करे उसे आप्त कहते हैं।
(9) जिससे सब लोगों के दुराचार और दुःख दूर हों तथा श्रेष्ठ आचरण एवं सुख की वृद्धि हो, ऐसे कर्म को मैं परोपकार कहता हूँ।
(10) वे मनुष्य परम धन्य हैं, जो अपने ही समान दूसरे लोगों के सुख में सुख और दुःख में दुःख का अनुभव कर धार्मिकता को कभी नहीं छोड़ते।
(11) जितने मनुष्येत्तर प्राणी हैं, उनमें दो प्रकार का स्वभाव देखा जाता है -बलवान से डरना और निर्बल को डराना तथा उसे पीड़ा देकर अर्थात् उसके प्राण तक निकाल कर अपना मतलब साध लेना। जिस मनुष्य का ऐसा ही स्वभाव है, उसे तो इन्हीं में गिनना उचित है। मनुष्य का निजी गुण तो निर्बलों पर दया करना तथा उन्हें पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से तनिक भी भय या शंका न करके उन्हें उस दुष्कर्म से हटाकर तन-मन-धन से सर्वदा निर्बलों की रक्षा करना है।