(श्री शाँति मेहरोत्रा एम. ए.)
अब वैभव के गीत न गाना और न करुणा कराहें।
अब अतीत में लीन हो चुकी, परवशता की आहें॥
जिसे चरण से कुचला तूने, वह विषधर बन जागा।
अपना खोया स्वत्व पुनः जग करके उसने माँगा॥
जिसका भी साहस हो आगे बढ़कर उसे दबाये।
देवासुर संग्राम छिड़ा जिसको आना हो आये॥
आज राज महलों पर फिर से कुटियों ने जय पाई।
जर्जरता पर विजय पा चुकी है युग की तरुणाई॥
अधरों पर प्रतिबंध हटा वाणी ने है स्वर पाया।
अब मिट्टी की मूर्ति बनी कल की कंचन की माया॥
फिर से भारत में आई है अब ममता की सीता।
पौरुष और कर्म मिलकर के आज रचेंगे गीता॥
अरुणोदय के साथ व्योम ने यही दिया है नारा।
टूट चुकी अब तो सदियों की लौह शृंखला कारा॥
शेष नहीं मानव मानव में अब है कोई अन्तर।
घुमड़ घुमड़ कर बादल कहते गरज गरज कर सागर॥
कंधे से कंधे मिल जायें फिर बाँहों से बांहें॥
अब वैभव के गीत न गाना और न करुणा कराहें॥