शास्त्र मंथन की नवनीति।

May 1950

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निर्गुणेधषि सर्वेषु दयाँ कुर्वन्ति साधवः।

नहि संहरते ज्योत्सनाँ चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनः॥

गुणहीन प्राणियों पर भी सज्जन दया ही किया करते हैं। चन्द्रमा चाँडाल के घर पर से अपनी चाँदनी हटा नहीं लेता।

यत्र विद्वज्जनो नास्ति श्लाध्यस्तत्रालधीरषि।

निरस्तपादपे देशे एरण्डोपिद्रु भायते॥

जहाँ विद्यावान् मनुष्य नहीं होता, वहाँ थोड़ी बुद्धि वाला भी सराहा जाता है। जहाँ पेड़ नहीं होते वहाँ एरंड ही पेड़ मान लिया जाता है।

उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे।

राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स वान्धकः॥

उत्सव में, व्यसन में, दुर्भिक्षम में, गदर के समय, कचहरी में और श्मशान में जो साथ है, वही बान्धव है

रहस्य भेदो याञ्चा च नैष्ठुर्य चलचित्तता।

क्रोधा निःसत्यता द्यू तमेतन्मित्रस्य दूषणम्॥

मित्र में यह दोष न होने चाहिए-गुप्त बातों का प्रकट करना, माँगना, कठोरता, चित्त की चपलता, क्रोध, असत्य ओर जुआ खेलना।

प्रनस्यन्यत्वचस्यन्यत्क मएयन्यद् दुरात्मनाम्।

मनस्येकं वचस्यकं कर्मण्यक महात्मनाम्॥

दुरात्मा लोगों के मन में कुछ, वाणी में कुछ, कर्मों में कुछ ओर ही होता है। पर महात्माओं के मन में, वाणी में और कम में एक ही बात होती है।

अर्थनाशं मनस्तापं गृह दुश्चारतानि च।

यश्चन चापमानं च मातमात्र प्रकाशयंत्॥

धन का नाश, मन का दुःख, घर के दुःश्चरित, ठगी और अपमान की बातें बुद्धिमान किसी से न कहे।

कःकालः कानि मित्राणि को देशःकौ व्ययागमौं।

को वाष्द्वं का च में शक्तिरिति चित्यंमुर्ह्मुहुः॥

क्या समय है, कौन मित्र है, कौन सा देश है, आय-व्यय कैसे हैं, मैं कौन हूँ और मेरी शक्ति कितनी है ? ये बातें मनुष्य को बार-बार सोचनी चाहिएं।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

हमे संसंविते येन सफलं तस्य जीवनम्॥

माता और जन्मभूमि ये दोनों स्वर्ग से भी बड़ी हैं। जिसने इन दोनों की सेवा कर ली, उसका जन्म सफल हो गया।

कुप्रामवासः कुजनस्य सेवा

कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या

मूर्खश्च पुत्रों विधवा च कन्या

विनाग्निना संदडते शरीरम्॥

बुरे गाँव का वास, बुरे आदमी की सेवा, बुरा भोजन, क्रोध वाली स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा कन्या ये सब आग बिना ही शरीर को भस्म करते हैं।

घनिनोष्पि निरुन्मादा युवानोपि न चंचलाः। प्रभवःष्ध्यप्रमप्ताभ्तें महामहिमशालिनः॥

बड़ी महिमा वाले उत्तम पुरुष धनी होने पर उन्मत्त, युवावस्था में चंचल और प्रभुता पाने पर प्रमादी नहीं होते।

अपुत्रस्य गृहं शून्यं सन्मित्र रहितस्य च।

मूर्खस्य च दिशः शून्याः सर्वशून्या दरिद्रता॥

पुत्र और सन्मित्र के बिना घर सूना है मुख की सब दिशायें सूनी है और दरिद्रता सब से सूनी है।

बज्रादपि कठोराणि मृदूणि कुसुमादी॥

उत्तम पुरुषों का हृदय वज्र से भी कठोर और फूल से भी कोमल होता है। उसे नचाने में समर्थ कौन है?


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