एक सुगम गायत्री साधना।

May 1950

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ईश्वर की अनेक शक्तियाँ हैं। उनमें से कितनी ही रचनात्मक और कितनी ही विनाशात्मक हैं। जिन विनाशात्मक शक्तियों के द्वारा युद्ध, महामारी, भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बीमारी, मृत्यु, विस्फोट संघर्ष हानिकारक जीवों की उत्पत्ति आदि होती हैं वे मनुष्यों के लिए अरुचिकर एवं दुखदायक होती है। सृष्टा का प्रयोजन चाहे कितना ही महान क्यों न हो पर उन ईश्वरीय शक्तियों से मनुष्य घबराता है और चाहता है कि वे जितनी दूर रह सकें उतना ही अच्छा है।

ईश्वर की कुछ शक्तियाँ ऐसी हैं जिनके द्वारा मनुष्य जाति को अतीव आनन्द और सन्तोष होता है। अन्न, दूध, फल, जल, रस, वनस्पति, रत्न, धातु आदि की वृद्धि करने वाली ईश्वरीय शक्तियाँ सबको पसंद है। आरोग्य, बल, श्री, समृद्धि, निर्विघ्नता, एवं सुख शान्तिमय परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाली देवी शक्तियों की सभी सत्ता को सब लोग चाहते हैं। योग साधना, पूजा, उपासना, यज्ञ, तप आदि का प्रयोजन यह होता है कि व्यक्तिगत या सामूहिक प्रयत्नों द्वारा उन ईश्वरीय शक्तियों को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त किया जाय जो मनुष्य के लिए हितकर, लाभदायक एवं आनन्दप्रद हैं।

धरती माता के गर्भ में अनेक प्रकार की हानिकारक और लाभदायक वस्तुएं भरी पड़ी हैं। जो जिस वस्तु को जितने पुरुषार्थ से लेना चाहता है प्रसन्नता पूर्वक ले लेता है। हाथी दिन भर में मन पत्ते खाता है बकरी को पाँच सेर काफी रहता है। धरती पर वनस्पति का अपार भंडार भरा पड़ा है हाथी अपने पुरुषार्थ के अनुरूप और बकरी अपने पुरुषार्थ के अनुरूप पदार्थ हजार जन्मों तक लेते रहें तो भी धरती माता को कोई हानि या आपत्ति कभी नहीं हो सकती। इसी प्रकार ईश्वर के महान शक्ति भंडार में अकूत वैभव श्री भरी पड़ी है। जो चाहे अपने प्रयत्न और पुरुषार्थ से जिस वस्तु को चाहे, जिस शक्ति को चाहे जितनी मात्रा में ले सकता है। ईश्वर की उपयोगी, लाभदायक, आनन्दप्रिय शक्तियों को यदि हम चाहें तो व्यक्तिगत प्रयत्न द्वारा व्यक्तिगत लाभ के लिए और सामूहिक प्रयत्न द्वारा सामूहिक लाभ के लिए प्राप्त कर सकते हैं। हमारे प्रयत्न और पुरुषार्थ को देख कर परमपिता और अधिक प्रसन्न होता है तथा हमें सफलता का पुरस्कार देने में अधिक उदारता एवं उत्साह दिखाता है।

मनुष्य के लिए लाभदायक ईश्वरीय शक्तियों में गायत्री शक्ति का स्थान सर्वोपरि है। यह मानव प्राणी की इच्छा, अभिलाषा, उन्नति, आवश्यकता, समृद्धि, सुरक्षा एवं शान्ति को पूरा करने में इतनी अधिक सक्षम है कि सूक्ष्मदर्शी, आत्मविद्या के पारंगत ऋषि मुनियों ने उसको अधिकाधिक मात्रा में ग्रहण करना, नित्य उसके संपर्क में रहना एक अत्यन्त आवश्यक कर्त्तव्य बताया है। शास्त्रों में वर्णन है कि जो गायत्री को नहीं जानता वह शूद्र है। शूद्र को निन्दित और बहिष्कृत ठहराने का अर्थ यही है कि गायत्री, को त्यागने की हानि उठाने की भूल करने वाला सामाजिक बहिष्कार का दंड भुगते।

अन्य बातों में शास्त्र तथा ऋषियों के बीच मतभेद रहे हैं पर गायत्री के संबंध में सभी शास्त्र तथा ऋषि मुनि एक मत हैं नित्य की उपासना में सबने गायत्री को प्रमुख स्थान दिया है। उपासना क्या है। उपासना एक ऐसी वैज्ञानिक विधि को कहते हैं जिसके द्वारा अपने शरीर और मन में निवास करने वाली अनेक प्रसुप्त शक्तियों का जागरण एवं एकीकरण करके उनकी आकर्षण शक्ति द्वारा ईश्वरीय शक्ति भंडार में से किसी विशेष शक्ति को खींच लाया जाय।

अध्यात्म विज्ञान वेत्ताओं ने शरीर और मन के अंतर्गत रहने वाले अनेक कोषों, प्रत्यावर्तनों, चक्रों, घटकों, ग्रन्थियों आवरणों भूमिकाओं, मातृकाओं एवं संधियों की भारी शोध करने के पश्चात गायत्री साधना की महत्वपूर्ण प्रक्रिया का निर्माण किया है। इस साधना द्वारा कुछ ऐसी सुप्त शक्ति ग्रंथियाँ जागृत हो जाती हैं जिनके चुम्बकत्व द्वारा ईश्वरीय महाशक्ति भण्डार से मंगलमयी गायत्री शक्ति प्रचर मात्रा में साधक के पास एकत्रित हो जाती है। इस शक्ति द्वारा वह अनेकों प्रकार के भौतिक और आत्मिक लाभ प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।

सृष्टि के आदि से लेकर अब तक असंख्य विज्ञ पुरुषों ने गायत्री की साधना की है और इन सभी ने आशातीत लाभ उठाया है। समस्त ऋषि-मुनि एक स्वर से गायत्री की महिमा गान करते हैं, समस्त धर्म शास्त्रों में गायत्री की गुणगरिमा भरी पड़ी है। अनेक साधकों को जो लाभ हुए हैं उनका संक्षिप्त सा वर्णन “गायत्री ही कामधेनु है।” पुस्तक में किया जा चुका है। हमारा अपना दीर्घ कालीन अनुभव इस संबंध में है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि-गायत्री ही भूलोक की कामधेनु है। यही मन्त्र पृथ्वी का कल्पवृक्ष है। लोहे को स्वर्ण बनाने वाली तुच्छ को महान बनाने वाली पारस मणि गायत्री ही है। यह वह अमृत निर्झरिणी है जिसका आचमन करने वाले को परम तृप्ति और अगाध शान्ति प्राप्त होती है। गायत्री की आध्यात्मिक ज्ञान गंगा में स्नान करके मनुष्य अनेक प्रकार के पाप-तापों से छुटकारा पा सकता हैं। हमारा सुदृढ़ विश्वास है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। प्रारब्ध वश प्रधान कामना पूरा न हो तो भी अनेकों अन्य प्रकारों से आपत्तियों की निवृत्ति और सम्पत्तियों की प्राप्ति होती है। इन्हीं सब आत्मिक और भौतिक लाभों के कारण गायत्री को माता की उपमा दी जाती है मातृभाव से गायत्री की पूजा की जाती है।

छोटे और बड़े साधन अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार किये जाते हैं। नित्य की दैनिक उपासना माता का नित्य दूध पीने के समान, नित्य व्यायाम करके शरीर पुष्ट करने के समान नित्य कर्म है। उसमें भूल नहीं करनी, चाहिए। साथ ही कभी कभी विशेष शक्ति का उपार्जन एवं संचय का आयोजन करने के लिए विशेष साधन भी करने चाहिए। अपनी निष्ठा, श्रद्धा, स्वास्थ्य, अवकाश, मानसिक स्थिति आदि का ध्यान रखते हुए छोटे या बड़े साधन किये जाते हैं। कोई विशेष कार्य माता से कराना होता है तो बालक विशेष मनोयोग विशेष भावनाओं के साथ माता से प्रार्थना करता है ऐसी ही विशेष प्रार्थना जब गायत्री माता से की जाती है तो उसे अनुष्ठान या पुरश्चरण कहते हैं। जैसे प्रत्येक मनुष्य नित्य के साधारण कार्यक्रम में परिवर्तन करके कभी कभी यात्रा, पर्यटन, उत्सव, त्यौहार, आदि का विशेष आयोजन उत्साह पूर्वक करते हैं वैसे ही समय पर विशेष साधना करने की भी आवश्यकता है। यह विशेष रूप से किया गया आत्मबल का संचय, विशेष संचित पूँजी की तरह जमा रहता है और किसी विशेष अवसर पर दैवी वरदान की तरह बड़ी महत्व पूर्ण सहायता देता है।

अनुष्ठान कैसे करें?

गायत्री का पूर्ण पुरश्चरण 24 लक्ष जप का होता है जो प्रायः एक वर्ष में पूरा होता है। इससे छोटा एक मध्यम पुरश्चरण है जो सवालक्ष जप का होता है और चालीस दिन में पूरा होता है। कोई-कोई इसे एक मास में भी कर लेते हैं। सब में छोटा अनुष्ठान 24 हजार का है यह 9 दिन में पूरा हो जाता है। चौबीस लक्षण और सवालक्ष की साधना के बारे में फिर कभी लिखेंगे इस अंक में सबसे छोटे 24 हजार के साधन के संबंध में लिख रहे हैं।

जेष्ठ सुदी 10 को गंगादशहरा है। यह गायत्री जयन्ती का पुण्य पर्व है। इसी महापर्व के दिन विश्वामित्र ऋषि ने गायत्री का महाविज्ञान मनुष्यों के सम्मुख प्रकट किया था और इसी दिन भागीरथ ने पुण्य श्लोका गंगा का अवतरण लोक में किया था। जैसे आश्विन और चैत्र की ऋतु संध्याएं -नवदुर्गाएं -गायत्री साधना के लिए उपयुक्त अवसर हैं वैसे ही जेष्ठ सुदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक 24 हजार जप पूरे कर लेने चाहिए और गायत्री जयन्ती-गंगादशहरा-के दिन पूर्णाहुति का हवन एवं ब्रह्मदान करना चाहिए।

नौ दिन में 24 हजार जप पूरे किये जाये जो प्रति दिन करीब 2667 मंत्र जपने होते है मात्रा में 108 दाने होने से 24 मालाएं प्रति दिन जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है। इतने मन्त्र जपने में करीब 2 घन्टे लगते हैं। आजकल गर्मियों के दिनों में प्रातःकाल शौच स्नान से निवृत्त होकर 4 बजे साधना पर बैठ जाना कुछ कठिन नहीं हैं। 7 बजे जप पूरा हो जाता है। जिन्हें प्रातःकाल जल्दी ही कोई काम करना हो वे 1 घन्टे सवेरे 1 घन्टा शाम को अपना समय विभाजित कर सकते हैं।

साधना आरंभ करने से पूर्व किसी सुयोग्य गायत्री उपासक को पथ प्रदर्शक आचार्य नियुक्त कर लेना चाहिए। उसके संरक्षण पथ प्रदर्शन के साधन करना उचित होता है। गायत्री को माता, आचार्य को पिता, मानकर आत्मोन्नति के व्रत का प्रतीक यज्ञोपवीत कंधे पर धारण करके साधना करनी चाहिए। अनियंत्रित, मनमानी, अविधिपूर्वक की हुई ऊटपटाँग साधना प्रायः निष्फल रहती है।

शौच स्नान से निवृत्त होकर शुद्ध वस्त्र धारण करके साधना के लिए कुश के या खजूर बेत आदि वनस्पतियों से बने आसन पर बैठना चाहिए। मुख प्रातःकाल पूर्व को, सायंकाल 2 घन्टे सूर्योदय से पूर्व और शाम को सूर्यास्त के 1 घन्टे पश्चात् इन तीन घन्टों को छोड़ कर रात्रि के अन्य भागों में गायत्री जप नहीं करना चाहिए। पालथी मार कर बैठें रीढ़ की हड्डी सीधी रहे। खुली हवा का एकान्त स्थान ढूँढ़ना चाहिए। यदि बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो तो कपड़े से माला को ढक लेना चाहिए या गौमुखी में हाथ डाल लेना चाहिए।

माला चन्दन या तुलसी की लेनी चाहिए। तर्जनी उंगली से जप के समय माला का स्पर्श नहीं करना चाहिए। बीच का बड़ा दाना (सुमेरु) उल्लंघन नहीं करना चाहिए। माला पूरी हो जाने पर उसे पीछे को ही लौटा लेना चाहिए। जहाँ माला न हो वहाँ उंगलियों के पौरों से भी जप की गणना की जा सकती है। जप इस प्रकार करना चाहिए कि कंठ से ध्वनि होती रहे होठ हिलते रहें पर पास बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। जो ब्रह्म संध्या की विधि जानते हैं वे पहले ब्रह्म संध्या करके तब जप आरंभ करें जो नहीं जानते हैं वे उसे छोड़ दे और गायत्री और गुरु का ध्यान एवं पूजन करके जप आरम्भ कर दें।

अनुष्ठान के दिनों में ब्रह्मचर्य में रहना आवश्यक है। बीच में स्वप्न दोष हो जाय तो उसके प्रायश्चित्य स्वरूप एक माला अधिक जप लें। सिर के बाल नहीं कटाने चाहिए। ठोड़ी की हजामत अपने हाथ से बनाई जा सकती है। चारपाई या पलंग त्याग कर तख्त या जमीन पर सोना चाहिए। आहार-विहार सात्विक रखें। अपने शरीर और वस्त्रों को जहाँ तक हो सके कम ही स्पर्श होने देना चाहिए। अनुष्ठान के दिनों में एक समय अन्नाहार एक समय दूध फल इस प्रकार का अर्ध उपवास चल सके तो और भी उत्तम है।

जप के समय हृदय या मस्तक से ज्योतिर्मयी गायत्री का भक्ति भावपूर्वक ध्यान करते चलना चाहिए। जप पूरा हो जाने पर कम से कम 108 आहुतियों का हवन करना चाहिए, हवन बिना किसी पंडित आदि की सहायता के स्वयं भी किया जा सकता है। अकेले करना हो तो घी और सामग्री दोनों वस्तुएं मिला लेनी चाहिए। कई व्यक्ति शामिल होकर करें तो एक घी ले लें अन्य लोग सामग्री ले लें। गायत्री मन्त्र से ही आहुति डाले। प्रति आहुति में कम से कम 3 मासे सामग्री तथा 1 मासे घी होना चाहिए इस प्रकार हवन में कम से कम 6 छटाँक सामग्री और 2 छटाँक घी अवश्य होना चाहिए। पूर्णाहुति में मेवों मिष्ठान्नों की विशेष आहुति अन्त में देनी चाहिए यज्ञ की भस्म को किसी पवित्र स्थान में विसर्जित कर दें।

शास्त्रों में उल्लेख है कि बिना दान का यज्ञ निष्फल होता है। इसलिए अनुष्ठान के अन्त में कुछ न कुछ दान करना आवश्यक है। ब्रह्मभोज, गुरु पूजा, दक्षिणा, महाप्रसाद विवरण आदि अनेक प्रकार से अपनी श्रद्धा और सामर्थ्यानुसार दान किया जा सकता है। इनमें एक अच्छा सस्ता और सर्वोत्तम सुपरिणाम उत्पन्न करने वाला दान यह है कि गायत्री साहित्य का सत्पात्रों को दान किया जाय, जिनमें साधना की ओर प्रवृत्ति है वे चाहे ब्राह्मण हों या अब्राह्मण ऐसे ब्रह्मदान के अधिकारी है। (1) गायत्री ही कामधेनु है (2) वेद−शास्त्रों का निचोड़ गायत्री (3) गायत्री की सर्वसुलभ साधनाएं, यह छह-छह आने मूल्य की हमारी सस्ती पुस्तकें इस प्रकार के दान के लिए बहुत ही उपयुक्त है। गायत्री के 24 अक्षर एवं 14 पद हैं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार 24 या कम से कम 14 पुस्तकें सत्पात्रों का दान करने से अनुष्ठान के अन्त में ब्रह्मदान का उद्देश्य भली प्रकार पूरी हो जाता है। किसी के शरीर को भोजन करा देने की अपेक्षा उसको कल्याण के आनन्द मय मार्ग पर ले जाने वाला ज्ञान-दान देना अधिक महत्व पूर्ण है।

अनुष्ठान प्रत्यक्ष धर्म है। इसका परिणाम तुरन्त दिखाई देता है। इससे अधिक फलदायिनी, नास्तिकों को आस्तिक बनाने वाली साधना दूसरी नहीं हैं। जिन्हें श्रद्धा न हो वे परीक्षा के तौर पर एक छोटा अनुष्ठान करके देखें। इससे उन्हें सन्तोष जनक परिणाम की प्राप्ति होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118