मनुष्य की महानता का रहस्य।

May 1950

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मनुष्य को सब प्राणियों से श्रेष्ठ माना गया है। वह दो हाथों और दो पैर वाले शरीर के कारण नहीं, परन्तु अपने देवी स्वभावों के कारण है। अधिक मोटे तथा बलवान पशु इस जगत में मौजूद हैं कि जिन पर स्थूल दृष्टि से मनुष्य का स्वामित्व नहीं चल सकता। परन्तु उसने स्वाभाविक रीति से मिली मानसिक, नैतिक तथा आत्मिक शक्ति का उपयोग करके इन पशुओं के ऊपर वह अपना स्वामित्व चला सकता है। जो काम शरीर बल से नहीं हो सकता वह मनोबल से हो सकता है। जिस प्रमाण में मनुष्य अपने को जड़ शरीर मानता हुआ अटका नहीं रहता और आत्मा की शक्ति का परिचय पाता हुआ चलता है तथा उसी प्रकार जीवन यापन करता है उसी प्रमाण में दूसरे मनुष्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिवान होकर चलता है।

जिस काम को एक मनुष्य कर सकता है, उसे दूसरा मनुष्य भी कर सकता है, क्योंकि सब जगह एक-सा ही नियम फैल रहा है। हाँ, शक्तिमान होना अथवा शक्तिहीन होना यह तो मनुष्य के स्वयं अपने हाथ में है। जिस मनुष्य को पूर्ण विश्वास होता है कि मैं उच्च स्थिति प्राप्त कर सकता हूँ, वही मनुष्य उच्च स्थिति प्राप्त कर सकता है। मनुष्य जो-जो मर्यादायें अपने लिए बनाता है वे मर्यादाएं ही उसे आगे बाँधकर रखती है, जिस प्रकार दूध की मलाई दूध की अपेक्षा उत्तम होने से ऊपर तैर आती है, उसी प्रकार संसार में जिसे अपने में रहने वाली उच्च शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा हो, वह दूसरों की अपेक्षा उत्तम होने के कारण सामान्य मनुष्यों के ऊपर आ जाता है।

आप बाहरी संयोगों के सम्बन्ध में अनेक बार चर्चाएं करते हैं लेकिन इस बात को निश्चयपूर्वक समझ रखिए कि कोई संयोग मनुष्य को नहीं बनाता मनुष्य स्वयं ही संयोगों को बनाता है। जो इस बात को अच्छी तरह समझता है उसे यह बात मालूम होगी कि अपने परिस्थिति में से अनेक बार तो निकलना आवश्यक भी नहीं होता क्योंकि स्वयं को इस परिस्थिति में से बहुत कुछ सीखने को रहता है। और यदि प्राप्त शक्तियों को योग्य उपयोग किया जावे तो इस वर्त्तमान स्थिति में से वह हितकारी संयोगों को भी उत्पन्न कर सकता है।

उपर्युक्त बात वंश परंपरागत संस्कारों के लिए भी लागू होती है इसीलिए यह प्रश्न बारंबार पूछने में आता है कि क्या वंश परंपरागत ओछे संस्कारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है? परन्तु जिसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता वही ऐसा प्रश्न पूछता है। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जो अपने को ऐसा मानता है कि वंश परंपरागत संस्कारों को हम नहीं जीत सकते तो आप उन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते तथा जैसी की तैसी ही स्थिति रहेगी। आपको जैसे-जैसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता जायेगा तथा अपनी प्रचंड शक्तिओं का ज्ञान होता जायेगा। वैसे - वैसे ही ओछे वंश परम्परागत संस्कार कम होना आरम्भ हो जायेंगे।

ऐसा एक भी उच्च पद नहीं है कि जिसे आप प्राप्त न कर सकते हों, समय आते ही सब पर विजय प्राप्त की जा सकती है। आप से चाहे जितनी भूल हुई हों और हो रही हों फिर भी सुस्त होकर पड़ा नहीं रहना चाहिए, ईश्वर की रक्षण रूपी ढाल पर आधार रखकर प्रयत्नवान होना चाहिए।

अपनी प्रत्येक आदत एवं वासना के ऊपर आप जय पा सकते हैं क्योंकि आप अनन्त परमात्मा के एक अंश है और परमात्मा के बल के आगे ऐसा कुछ भी नहीं है जो टिक सके। अनेक मनुष्य इस प्रकार का जीवन इस तरह बिताते हैं जिसमें व्यक्ति स्वतन्त्र होता ही नहीं है। क्या तुम्हें इस संसार में प्रभावशाली बनना है। तो आप अपने आप पर निर्भर रहो और स्वतन्त्र बनने का प्रयत्न करो। अपने आपको साधारण मनुष्य मत समझो, हम गरीब है, हमसे क्या होगा, ऐसा मत कहो।

यदि आप परमात्मा के ऊपर विश्वास रखकर लोगों की आलोचना से नहीं डरोगे तो प्रभु अवश्य आपको सहायता देगा। यदि लोगों को खुश करने के लिए अपना जीवन बितावेंगे तो लोगों से आप कदापि खुश नहीं रहेंगे बल्कि जैसे-जैसे आप इन्हें खुश रखने में लगेंगे वैसे-वैसे ही आप गुलाम बनते जायेंगे, वैसे वैसे ही आपसे उनकी माँग भी बढ़ती जायगी।

जो कोई स्वाभाविक रीति से अपनी सामर्थ्य का उपयोग करता है वह निश्चित रूप से महान-पुरुष है। जिन मनुष्यों को अपनी मूल शक्ति आत्मशक्ति का भान होता है, वे ओछे और बेकार काम करते हुए नहीं दिखाई देते।

सर्वोत्तम शक्ति को प्राप्त करने का मुख्य रहस्य तथा साधन यह है कि कार्य करने के बाहरी साधन के साथ आपकी आन्तर शक्ति का सम्बन्ध मिलाया जावे। यदि तुम चित्रकार हो तो जितने प्रमाण में तुम अपने इस कार्य के साथ अपनी आन्तर शक्ति का उपयोग करते हो उतने ही प्रमाण में उत्तम प्रकार के चित्रकार बनोगे। तुम्हारी आत्मा द्वारा तुम्हें जो प्रेरणा मिलेगी उसकी अपेक्षा और अच्छा चित्र तुम दूसरी प्रकार से कदापि नहीं बना सकोगे। तुम्हारे अन्तर में उच्च प्रेरणा लाने के लिए तुम्हारे करने के लिए सिर्फ इतना ही है कि तुम अपने अन्तःकरण रूपी दरवाजे को परमात्मा की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए योग्य बनाकर उसकी ओर उसे खुला रखो। ईश्वर की प्रकाश किरणों को अपने अन्तस्तल में आने दो, उसकी प्रेरणा और शक्ति के प्रति अपनी श्रद्धा को केन्द्रित होने दो। ऐसे दिव्य अन्तःकरण के साथ तुम जो कुछ भी कार्य करोगे वह सफल होगा, शान्तिदायक होगा, ऊँचा उठाने वाला और आगे बढ़ाने वाला होगा। अपनी आत्मा और क्रिया में सामंजस्य स्थापित करने वाले मनुष्य ही महापुरुष बनते हैं।


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