(श्री दौलतरामजी कटरड़ा, बी. ए. दमोह)
इस सत्य के बावजूद कि मनुष्य अपने मनोविकारों का फल भोगने से बच नहीं सकता और उसकी आत्मा ही उसके पाप पुण्यादि अनेक कर्मों के फल की विधाता है यह कहना कि वह केवल अपने मनोविकारों और कर्मों का ही फल भोगता है, विचार करने पर गलत मालूम होता है। ऐसी कई आपत्तियां हैं जो मनुष्य पर केवल प्रकृति में होने वाली हलचलों के कारण आती हैं। कभी अतिवृष्टि होती है और कभी अनावृष्टि। कभी सदफल अधिक बढ़ता है और कभी गमफल। कहीं भूकम्प होता और ज्वालामुखी का विस्फोट होता है और लोग बेघरबार हो जाते हैं। कहीं भीषण बाढ़ आती है और गाँव के गाँव जलमग्न हो जाते हैं। कही अकाल पड़ते है और संक्रामक बीमारियाँ फैलती हैं और सैंकड़ों घरों के लोग बरबाद हो जाते हैं। अंतिम दो को छोड़ शेष सारी की सारी घटनाएं पूर्णतया प्रकृति की गतिविधि में अचानक होने वाले परिवर्तनों के फल-स्वरूप होती है और उन्हें सभी लोग क्या पुण्यात्मा और क्या पापात्मा समान रूप से भोगते हैं। यह दूसरी बात है कि एक ही परिस्थिति में पड़ जाने पर भी दोनों का दृष्टिकोण इस विपत्ति के प्रति भिन्न भिन्न रहता है जिसके कारण एक का दुःख हल्का और दूसरे का भारी होता है।
परिस्थितियों के प्रति दृष्टिकोण भिन्न भिन्न भले ही हों पर परिस्थितियाँ का प्रभाव तो पापी और पुण्यात्मा सब पर एक जैसा पड़ेगा ही। भूमंडल पर रहते हुए भौगोलिक परिस्थितियों से दूर कैसे रहा जा सकता है? चाहे कोई जीव मुक्त हो या बद्ध जीवन, पर वह इन भौगोलिक परिवर्तनों के प्रभाव से कैसे बचेगा। अतएव यह कहना कि मनुष्य केवल अपनी भूलों और मनोविकारों का ही परिणाम भोगता है गलत मालूम होता है। वह ऐसे कारणों से भी कष्ट भोगता है, जिनके लिए वह तनिक भी उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। वह अपने संपूर्ण ज्ञान का प्रयोग कर भी उन कष्टों से नहीं बच सकता। ऐसी अवस्था में मनुष्य पर जो आपत्तियाँ पड़ती है उन्हें हम उसके पूर्व-कृत कर्मों का फल नहीं कह सकते।
मनुष्य की अनेक आपत्तियों का कारण सामाजिक और राजकीय दुर्व्यवस्था होती है। जिस प्रकार एक मनुष्य का भाग्य इस पृथिवीमंडल के भाग्य से जुड़ा हुआ है उसी प्रकार उसका भाग्य संपूर्ण मानव समाज के भाग्य से भी संबद्ध है। यदि किसी देश में गृह-युद्ध आरंभ होता है तो उसमें सभी को बराबर शामिल होना पड़ता है और उसका सुपरिणाम अथवा दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। गृह-युद्ध को न चाहने वाले अनेक व्यक्ति भी उसके शिकार हो जाते हैं। यदि कहीं साम्प्रदायिक दंगे होते है तो उनका विरोध करने वाले अनेक निडर व्यक्ति भी मारे जाते है। पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, सीमा प्राँत और सिंघ के निष्क्रमणार्थियों ने जो मुसीबतें भोगी हैं क्यों उन्हें ईश्वर की न्याय-परायणता पर विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति उन सभी व्यक्तियों के पूर्वकृत कर्मों का न्यायोचित फल कह सकता है?
क्या कोई यह कह सकेगा कि अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगने के लिए ही उन सबने एक साथ इन प्रान्तों में जन्म लिया था, नहीं। उनके साथ तो घोर अन्याय हुआ है और इस संबंध में हमारा ईश्वरवादी दोस्त तो कहेगा कि ईश्वर इनके प्रति किए गए अन्याय का अन्यायियों को दंड देगा। पर उन्हें इसका दंड मिले या न मिले हम ये पूछते हैं कि अन्याय के कारण हमारी जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति भी होने की क्या कोई संभावना है। यदि नहीं तो हमारे दुश्मन को दंड मिलने से और इस तरह की प्रतिशोधात्मक आशा दिलाकर हमारे आँसू पोंछने से क्या लाभ? यदि यह भी मान लिया जाय कि भविष्य में पापी को जब दंड मिलेगा तब किसी प्रकार उसे पता लग जावेगा कि उसे वह दंड अमुक पाप के लिए मिला है और इस तरह उसका आत्म सुधार होगा और उसकी विनाशात्मक प्रवृत्ति भी क्षीण हो जायेगी तो उसकी विनाशात्मक प्रवृत्ति के भविष्य में क्षीण होने से आज हमें क्या लाभ? हमारी तो हानि हो ही चुकी और हम अपराध को बिना किए ही कष्ट उठा चुके। अपराधियों को भले ही न्याय मिला हो पर हमें तो न्यायकारी परमेश्वर द्वारा न्याय नहीं मिला। क्या हम यह आशा करें कि भयंकर अत्याचारों का शिकार होने के कारण हमें अगले जन्म में बड़ा सुख मिलेगा, यदि ऐसा हो तो फिर अन्याय सहने में कोई पाप न होगा - प्रत्युत वह धर्म ही हो जायेगा।
इन सब बातों पर विचार करने से पता चलेगा कि जिन पर अन्याय होता है और जो इस प्रकार कष्ट उठाते हैं उनका कष्ट सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम होता है। बेकारी, निर्धनता और बंगाल के अकाल सदृश अकाल से कष्ट भोगने वाले व्यक्ति बहुधा सामाजिक और राजकीय दुर्व्यवस्था के कारण कष्ट भोगते हैं सर्वथा अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण नहीं। ऐसे अकाल आदि ईश्वर कृत नहीं होते बल्कि मनुष्य-कृत होते हैं सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के परिणाम होते हैं। यदि कोई शासक अपनी प्रजा के बहुत से लोगों को, उनकी सुधारवादी आकाँक्षाओं का दमन करने के लिए जेल के सीकजों के भीतर बन्द कर नाना प्रकार की यातनाएं दे अथवा कृत्रिम अकाल फैलाकर लोगों को मौत के घाट उतार दे, अथवा किसी संक्रामक बीमारी को रोकने में प्रमाद कर सैकड़ों को सहज ही मर जाने दे तो यह कथन कि कष्ट भोगने वाले लोगों ने केवल अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगा है क्या उन व्यक्तियों का कथन न कहा जायगा जो कि अन्याय के दुवृत्त समर्थक हैं। अन्याय को निजकृत कर्मों का फल भोग कहने वाले व्यक्तियों का क्या यह अभिप्राय नहीं है कि शासकों की हरकतें जारी रहें, सामाजिक लूट बरकरार रहे और जनता उसके खिलाफ आँदोलन करने का विचार छोड़ चुपचाप उन कष्टों को सहती रहे। क्या अन्याय को ईश्वर और भाग्य के नाप पर मढ़ने वाले व्यक्ति धूर्त नहीं हैं और उनका, जनता को असली बात न बताकर उन्हें भुलावे में रखना कोई नशीली वस्तु पिलाकर उन्हें बेहोश रखना जैसा नहीं हैं।
ठीक उसी प्रकार जब एक राज्य से दूसरे राज्य की नीति का सामंजस्य न होने से युद्ध ठन जाता है तब युद्ध का सक्रिय विरोध करने वाले निरपराध व्यक्तियों को भी विदेशी शत्रु के भयंकर बमों और गैसों से जो कष्ट भोगना पड़ता है क्या उसके लिए हम उन व्यक्तियों को ही उत्तरदायी ठहरा सकते हैं। इन व्यक्तियों का यदि कोई अपराध है तो केवल यही कि वे युद्ध चाहने वाले राज्य के प्रमुख व्यक्तियों को युद्ध से विरत कराने के लिए उनके विरुद्ध यथेष्ट मात्रा में जनमत को संगठित नहीं कर पाते। ऐसी दशा में यदि हम मनुष्य की कमजोरी और सीमित शक्ति को ही पाप का पर्यायवाची मानते तो उस हालत में हम अवश्य ही यह कह सकेंगे कि मनुष्य अपने पूर्वकृत पाप का परिणाम भोगता है, अन्यथा नहीं। समाज के अन्य मनुष्य जो मूकवत् राज्य की इच्छाओं को शिरोधार्य करते हैं उनके लिए भी हम यह अवश्य कहेंगे कि उन्हें अपनी अज्ञानता, कमजोरी, सीमित शक्ति, उदासीनता तथा मूकाचरण का दण्ड अपराध से कई गुना अधिक भोगना पड़ता है। सच तो यह है कि बहाना लेकर आक्रमण करने वाले देश का शासक वर्ग अपने हित को दृष्टि में रखकर दूसरे राज्य से युद्ध छेड़ता है और यह प्रचार करता है कि वह युद्ध देश हित को दृष्टि में रखकर दूसरे राज्य से युद्ध छेड़ता है और यह प्रचार करता है कि वह युद्ध देश हित को दृष्टि में रख कर छेड़ा गया है। क्या आल्हा और ऊदल मोबे की आन की रक्षा के लिए अपने सैनिकों को प्रचारित नहीं करते थे और वस्तुतः उनके द्वारा युद्ध क्या व्यक्तिगत मर्यादा की रक्षा के लिए नहीं लड़े जाते थे? अकबर के देश की जनता का प्रताप ने क्या बिगाड़ा था कि उन पर चढ़ाई कर लाखों व्यक्तियों को कटवाया गया। सच तो यह है कि पहले के राजा लोग अपनी व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए युद्ध करते आए हैं और पुरोहित वर्ग बहुधा जनता को भुलावे में रखता हुआ उनका पद-चुँबन करता आया है। ऐसी दशा में हमें कभी-कभी छुटपन से ही जो यह पाठ पढ़ाया जाता है कि प्रत्येक मनुष्य सदा अपने कर्मों का ही फल भोगता है, गलत मालूम होता है। किन्तु यदि उपरोक्त वाक्य में यह संशोधन कर दिया जावे कि “प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों का भी फल भोगता है” तो हम समझते हैं कि इस कथन पर फिर किसी को कोई आपत्ति न होगी।
यह स्पष्ट कर देने पर भी कि मनुष्य जो फल भोग करता है वह सब उसके किए का फल नहीं होता, यह सिद्ध करने के लिए रह ही जाता है कि उस फल का विधायक अकेला उसका आत्मा ही नहीं हो सकता। यह सत्य है कि आत्मा उसके कर्म के फल के विधान में सहायक होता है उसके कर्मों का संस्कारों के रूप में रिकार्ड सा रखता है और फिर इन संस्कारों के कारण हमें परिस्थिति के अनुसार अधिक या कम, दंड या पुरस्कार दिलाता है। लेकिन यदि यह कहा जावे कि आखिर दंड या पुरस्कार को दंड या पुरस्कार के रूप में मन से ही तो देखा जाता है। (क्योंकि मनोनाश होने पर न कुछ दंड है और न पुरस्कार) अतएव आत्मा ही समस्त कर्मफल का विधाता हुआ तो इस तर्क से उलटे ही मन का विधातृत्व सिद्ध होता है, आत्मा का नहीं।
यदि विदेशी आक्रमण के बम के विस्फोट से किसी व्यक्ति की आँख जाती रहे और उसे चोट के कारण भयंकर शारीरिक पीड़ा हो तो उस पीड़ा को केवल मनोजन्य या मनोनिर्मित नहीं कहा जा सकता। यह अवश्य सत्य है कि जब तक शरीर में आत्मा और मन विद्यमान है अर्थात् जब तक वह व्यक्ति जीवित है और उसके मस्तिष्क के ज्ञान-तंतु चेतन अवस्था में हैं तब तक उसे पीड़ा का अनुभव अवश्य होता है तथा समाधि ले लेने पर अथवा मूर्छित अवस्था में वह भुलाई भी जा सकती है पर वह हटाई नहीं जा सकती। मूर्छित अवस्था हटने पर पीड़ा फिर से मालूम होने लगती है। यदि मन उसका जनिता (उत्पन्न करने वाला) होता तो वह उसका संहरण करने वाला भी होता। किंतु मन में ऐसी शक्ति नहीं है। यदि यह आक्षेप हो कि मन में संहरण शक्ति है इसका प्रमाण यही है कि उसके रहने पर पीड़ा मालूम होती है और न रहने पर नहीं मालूम होती तो इस तरह के तर्क से तो हम सब वस्तुओं के विद्यमान रहते हुए भी उनके सहंरणकर्ता होने का दुस्साहस कर सकेंगे। उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति भयंकर ग्रीष्मकालीन आतप से तपते हुए भी आँख बंद कर यह कहने का दुस्साहस करेगा कि मैंने सूर्य का संहरण कर लिया। अतएव यदि आत्मा जैसी कोई वस्तु है तो वह और मन, पीड़ा के निर्माता या जनिता नहीं है केवल उसके साक्षी है। वस्तुतः चोट तो बली ही रहती है पर मूर्छित अवस्था में मस्तिष्क, जो कि शरीर के भीतर अनुभूतियों के लिए केवल एक घटना प्रबन्ध है और शरीर का केवल एक अवयव मात्र है, जब अपना कार्य नहीं करता तो शरीर में पीड़ा (अनुभूति) नहीं होती। अतएव बम विस्फोट से आँख जाती रहती है और हमारा मकान नष्ट हो जाता है तथा प्रिय परिजनों की मृत्यु हो जाती है तो नेत्र की चोट की अनुभूति का तथा जन-धन नाश को हानि मानने के इस दृष्टिकोण का विधायक हमारा मन अथवा आत्मा अवश्य होता है किंतु चोट या जन-धन-नाश का विधायक नहीं। हम यह अवश्य मानते हैं कि अनेक अवसरों पर अपनी परिस्थितियों के या अपने पर घटने वाली घटनाओं के जन्मदाता हम स्वयं होते हैं किन्तु यदि मन और आत्मा को समस्त परिस्थितियों और घटनाओं की अनुभूति कराने वाले मानने के स्थान में हम उन्हें अपनी प्रत्येक परिस्थिति या घटना का विधायक, जन्म-दाता या कारण मान ले तो भूल करेंगे।
इस भूल के कारण हम एक बड़े जाल में फंस गए है। प्रत्येक घटना को हम अपने पूर्वकृत कर्मों का फल मानकर निश्चेष्ट होकर बैठे रहते हैं और अपने भाग्य को दोष देते हैं। हम अपनी गरीबी का कारण, अपनी अक्षमता और अपमान जनक दुरावस्था का कारण पूर्णतया अपने आपको ही मान लिया है तथा यह समझने की पूरी पूरी कोशिश नहीं की है कि हमारी इन परिस्थितियों को जन्म देने वाली अन्य शक्तियाँ भी हैं जो संसार में कार्य कर रही हैं, जिनका हमारे लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है तथा जिनको अपने वश में लाकर हमें अपने अनुकूल बनाना है अथवा स्वयं ही उनके अनुकूल बनकर आचरण करना है। दुःख की बात है कि हम सदा अपने आपको अपनी दुरावस्था परिस्थितियों का जन्मदाता मानते रहें किन्तु अब हमें सचेत होना चाहिए और जीवन को प्रभावित करने वाली भौतिक तथा अन्य शक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर अपनी दशा को सुधारना चाहिए।