नारी को क्या पढ़ाया जाय? क्यों पढ़ाया जाय?

May 1950

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शिक्षा चाहे स्त्री की हो और चाहे पुरुष की जो हृदय को नहीं खोल सकती वह शिक्षा नहीं हो सकती। देश में आज शिक्षितों की कमी नहीं है, चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष दोनों ही पढ़ते लिखते नजर आते हैं। लेकिन जैसे-जैसे पढ़े-लिखों की संख्या बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही जीवन की अशान्ति भी बढ़ती जाती है। ऐसा मालूम होता है जैसे ये सारे विद्यालय और विश्वविद्यालय अशान्ति की ही शिक्षा दे रहे हों। अशान्ति की शिक्षा पालने के बाद उनके जीवन में कितनी विपत्तियाँ सामने आती हैं इसे तो भुक्त भोगी ही बतला सकते हैं।

जीवन संघर्ष में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का संपर्क अधिक होता है। पुरुष का काम तो कमाई के क्षेत्र तक ही सीमित है लेकिन स्त्रियाँ तो समाज का निर्माण करती हैं इसलिए यदि स्त्रियों की वास्तविक शिक्षा न हुई हो तो समाज में अशान्ति का वातावरण फैलना स्वाभाविक है। इसलिए पुरुषों की शिक्षा की अपेक्षा स्त्रियों की शिक्षा का महत्व अधिक है।

लेकिन आज के विद्यालय स्त्रियों की शिक्षा के काम को पूरा करने में कामयाब नहीं हो पा रहे। उनके सामने शिक्षा का अर्थ पुस्तकीय विद्या है, शायद अक्षर ज्ञान या साहित्यिक ज्ञान। ये शिक्षालय स्त्री को भावुक तो बना देते हैं परन्तु व्यावहारिक बनाने की शिक्षा देने की ओर ध्यान नहीं देते। इसलिए स्कूल या कालेज से प्रमाणपत्र या उपाधि लेकर निकली हुई नारी इतनी कल्पनामय होती है कि वह प्रायः तितलियों की तरह जीवनभर फुदकना और नाचना पसन्द करती है और जरा सा आघात लगते ही प्रलय वर्षा करने की तैयारी कर डालती है। जीवन की वास्तविकता से दूर, बहुत दूर, ऐसी नारी समाज में अशान्ति का बीज बोने के अतिरिक्त और कुछ भी करती नजर नहीं आती।

जबकि समाज के बाहरी तथा भीतरी निर्माण का सारा श्रेय नारी को है तो नारी की ऐसी शिक्षा समाज के विध्वंस का कारण हो उठी है। इसलिए नारी की शिक्षा में तात्विक परिवर्तन की आवश्यकता है।

नारी को यदि रमणी बनाना हो तो कल्पना मूलक शिक्षा की आवश्यकता है लेकिन नारी का चरम लक्ष्य माँ बनना है। नारी समाज की निर्मात्री है, हम समाज में रहते हैं इसलिए घर में रहते हुए इन सबके यथायोग्य निर्माण का काम नारी को करना है। क्योंकि ये सब ही आगे जाकर समाज के सदस्य बनेंगे और समाज संगठन में इनका व्यापक हाथ रहेगा, इसलिए यदि इनमें पिता, पुत्र, भाई, बहिन, माँ और पत्नी की कर्त्तव्य मूलक भावना जाग्रत होगी तो यह दुनिया थोड़े दिनों में ही नन्दनवन बनकर चारों और शान्ति का प्रवाह प्रवाहित कर सकेगी।

बालपन की जिन्दगी पराश्रित जिन्दगी होती है, इसमें उसके सिर पर किसी प्रकार की जिम्मेदारी नहीं होती। हमेशा खाना और बालपन ही नहीं रहता, जवानी भी आती है और बुढ़ापा भी आता है। ऐसा समय भी आता है जब कि जीवन की शक्तियाँ विकसित होती हैं और जवाब भी दे जाती हैं इसलिए जो शिक्षा शक्तियों का व्यावहारिक उपयोग करना सिखाती हैं, जीवन संघर्ष में विजय दिलाती है वही जीवन में निर्माण और शान्ति का कारण होती हैं।

आजकल स्त्रियों को जो शिक्षा दी जाती है उसमें भावनाओं और वासनाओं को तो उत्तेजना मिलती है लेकिन कर्मठता एवं कर्त्तव्य के लिए कोई स्थान नहीं होता, इसका परिणाम यह निकल रहा है कि पढ़ी-लिखी लड़कियाँ स्कूल तथा कालेजों से एक इस प्रकार का कल्पनामय जगत को लेकर बाहर आती हैं जिसका निर्माण करना उन्हें नहीं सिखाया गया है। इन्हें यदि कुछ सिखाया गया है तो उपभोग करना। बिना निर्माण किये उपयोग के लिए स्थान ही कहाँ हो सकता है। लेकिन उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं होता, परसी हुई पातर पर खाने की कल्पना के कारण अब उन्हें परसी हुई पत्तल नहीं मिलती तो वे बौखला उठती हैं और अपनी जिम्मेदारियों से बचती हुई अपने लिए दुःखों की अजेय सुदृढ़ दीवार खड़ी कर लेती हैं।

प्रायः शिक्षित स्त्रियाँ विवाह बन्धन से बचना चाहती हैं। विवाह को वे पुरुष के अधीन होना मानती हैं जब कि किसी के अधीन होकर रहना उन्हें सिखाया ही नहीं जाता। लेकिन भारतीय वातावरण में बिना विवाह किये रहना संभव नहीं है इसलिए जबरदस्ती विवाह के फन्दे में फंस जाने के कारण जीवन भर उनमें छटपटाहट भरी रहती हैं। आनन्द के स्रोत विवाहित जीवन को वे दुख से भर डालती हैं और जिस घर को स्वर्ग बनाकर जहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहिए वहाँ कल्पना जगत में विचरण करने के कारण उस घर को नरक बना देती हैं साथ ही जीवन भर तड़पते-तड़पते अपनी जीवन लीला समाप्त कर डालती है।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम शिक्षा के विरोधी हैं। दाम्पत्य जीवन के सुख के लिए स्त्री शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु यह शिक्षा किताबी शिक्षा नहीं होनी चाहिए। यह शिक्षा व्यावहारिक होनी चाहिए। ऐसी व्यावहारिक जिसमें दाम्पत्य जीवन का महत्व समझा जा सके और अपनी जिम्मेदारी को समझ कर उसे निबाहने की तथा पूरा करने की कला प्राप्त हो सके।

स्त्री को समझने के लिए सबसे मुख्य बात है सहिष्णुता, सहनशीलता। जिन्दगी में, संसार में क्या, अकेले परिवार में ही अनेक रुचियों तथा स्वभाव वाले व्यक्तियों से संपर्क होता है, सभी तरह की स्थितियों में होकर स्त्री को गुजरना पड़ता है। आनन्द का समय भी आता है और शोक तथा दुख का भी। इस प्रकार की दुनिया में भावुकता वाली कोरी किताबी शिक्षा पार नहीं पाड़ सकती। वहाँ तो समस्त कल्पनाओं और हवाई महलों को छोड़कर सचाई, प्रेम और आत्मविश्वास के साथ परिवार के सभी लोगों को सन्तुष्ट करने और सुख देने में लगना पड़ता है। जो ईमानदारी के साथ उस सबको अपना समझ कर उसके निर्माण में अपने को लगा देती हैं, बड़ी स्त्री वास्तविक सुख का उपयोग कर सकती है तथा स्वयं शान्ति पा सकती है। इस शान्ति और सुख का सृजन उसकी अपनी शिक्षा-दीक्षा पर निर्भर है और जो सुख तथा शाँति का सर्जन कर सकती है वही गृहस्थ जीवन की देवी है।

सहिष्णुता तथा सहनशीलता की शिक्षा देने की जिम्मेदारी कन्या के माता-पिता पर सबसे पहले आती है। और उसके बाद दूसरा नम्बर उसके पति का होता है। विवाहित जीवन में सबसे बड़ी चीज जिसे सीखना होता है वह है संतोष। क्षमा ओर संतोष के द्वारा अपनी रक्षा करती हुई वह गृह स्वामिनी समस्त विपदाओं को पार कर जाती है। उदार हृदय होना तो गृहस्थी जीवन में स्त्री के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि स्त्री अपने हृदय को संकुचित करके अनेक विपत्तियों को मोल लेती है। नारी के अन्तर की संकुचित मनोवृत्ति को दूर करके उसे उदार बनाने का काम पति का है। यह काम पति का अपना उदार चरित्र बनाकर पूरा करना पड़ता है। सिर्फ उपदेश से इसकी पूर्ति नहीं होती।

नारी अकेली रमणी नहीं है। न अकेली पुत्री। पिता के घर को छोड़ देने के बाद उसे अनेक प्रकार के सम्बन्धों को धारण करना पड़ता है। जितने सम्बन्ध उतनी ही उसकी जिम्मेदारियाँ। वह किसी की पत्नी है, किसी की भाभी, किसी की माँ तो किसी की पतोहू। हर एक व्यक्ति उससे भिन्न-2 प्रकार की अपेक्षायें रखता है। विनय, प्रेम, सरलता, बुद्धिमत्ता से वह सबकी इच्छायें पूरी कर सकती है। सास-ससुर को मान देकर तथा उनकी सेवा करके उन्हें सन्तुष्ट कर सकती है। उनकी पुत्रियाँ जो कि विवाह कर दूसरे घरों में चली जाती हैं, माँ उनकी याद कर व्याकुल हो उठती है, इसलिए बहू का काम होता है कि वह अपने व्यवहार से उनका स्थान ग्रहण कर ले और सास को कभी ऐसा मौका न दे जिससे वे अपनी पुत्री के लिए व्याकुल हो उठे। ननदें भी उसे अपनी बहिन मानने लगें। पति को भी आश्वस्त कर सकने की क्षमता उसे चाहिए और उनकी आवश्यकताएं समझ कर तथा उसकी व्यवस्था करके उनके काम को सम्हाल सके ऐसी शक्ति भी होनी चाहिए। एक साथ एक समय में अपनी अनेक जिम्मेदारियों को पूरी करने के लिए कितनी विशाल शिक्षा, व्यवहार पटुता सहिष्णुता एवं आत्म संयम की आवश्यकता है। स्त्री जीवन की सार्थकता के लिए उसे इन सब को ही अपनाना और सीखना आवश्यक है।

गृहस्थ जीवन वास्तव में एक कठोर कर्मक्षेत्र है। जो अधीर हो जाते हैं वे अपना विवेक खो देते हैं ओर इस जीवन को कष्टपूर्ण कर लेते हैं पर जो धैर्य धारण किये रहते हैं वे अपने विवेक को बनाये रखकर अपनी जीवन नौका को सुख पूर्वक पार लगा जाते हैं। इसलिए स्त्री धैर्य धारण को यथा संभव बनाये रहे तभी उसका वास्तविक कल्याण संभव हो सकता है।

स्त्री की चरम साधना माँ बनने पर ही पूरी होती है। अपनी कुक्षि से सन्तान का प्रभाव तो संसार को सन्तान स्वरूप मानने के लिए तथा उसकी सेवा में खपा देने के लिए केवल एक व्यावहारिक स्कूल का काम देता है। निःस्वार्थ सेवा की व्यावहारिक शिक्षा भी उसे उसी समय मिलती है। माँ की पुकार सुनकर जिस प्रकार नारी का हृदय उमड़ उठता है और फिर लाख रोकने पर भी स्थिर नहीं रहता। उसी प्रकार नारी का शिक्षित हृदय जिस समय समस्त विश्व की अपनी सन्तान मानकर उसके लिए उमड़ पड़े उसी समय समझना चाहिए कि उसकी शिक्षा पूरी हुई। दूसरे शब्द में स्त्री जीवन की सार्थकता भी तभी पूरी हुई समझना चाहिए।

नारी के रक्त माँस से तथा हृदय से ही समस्त संसार की सृष्टि हुई है। समाज के निर्माण में उसने तिलतिल करके अपने आपको बलिदान किया है। नारी जीवित जागृत यज्ञवेदी है। उसने अभी तक दिया ही दिया है, लेकिन शिक्षा हीन दान और शिक्षा संस्कार युक्त दान में अन्तर है। नारी का धर्म हैं दान देना। अपने इस धर्म को संस्कारवान बनाकर उसे देना है जिससे उसे भी शान्ति मिले और समाज को भी। नारी शिक्षा के अभाव में जहाँ नारी अशान्ति के गड्ढे में पड़ी हुई है वहाँ समाज भी सुखी नहीं है, उलटे वह निरन्तर पतन की ओर ही गिरता चला जा रहा है।

नारी शिक्षा की जिम्मेदारी जितनी उसके माँ-बाप पर है उतनी ही नहीं उससे अधिक ही समझिए पति के ऊपर है। जो जितनी शिक्षा की जिम्मेदारी को पूरा करता है वह उतना ही उसे आश्वस्त एवं सुखी बनाता है।


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