इस परिवर्तन की घड़ी में

May 1949

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(खलील जिब्रान)

कितना विचित्र है जमाना और कितने अनोखे हैं हम!

जमाना बदला और अपने साथ-साथ उसने हमें भी बदला। उसने हमें रास्ता दिखाया और हम भी उसके साथ हो लिये, उसने अपने चेहरे से परदा उठाया ओर हम सब कुछ भूल कर खुशी से फूल उठे।

कल तक हम जमाने से डरते थे और उसकी शिकायत करते थे, लेकिन आज हम उसके मित्र हैं और हम उससे प्रेम करते हैं। इतना ही नहीं हम उसकी गति, चरम सीमा और रहस्यों को समझने लगे हैं।

कल तक हम बचते-बचाते छुपते-छुपाते उन छिपकलियों की तरह रेंगते थे, जो रात की भीषणताओं और दिल के डरों के बीच काँपती हैं। लेकिन आज हम उन पहाड़ी रास्तों में दनदनाते हुए फिरते हैं, जो तेज आँधियों के घात के स्थल और बिजली के स्थान हैं।

कल तक हम खून से गुँधी हुई रोटी खाते और आँसू मिला पानी पीते थे, पर आज हम प्रायः अप्सराओं के हाथ से स्वादिष्ट भोजन खाते और बहार की सुगंधित शराब पीते हैं।

कल तक हम भाग्य के हाथ का खिलौना थे वह शक्ति और सत्ता के नशे में चूर हमें जिस तरह चाहता था नचाता था, पर आज जब उसका नशा उतर चुका है हम उसके साथ खेलते हैं और वह हमारे साथ खेलता है। हम उससे छेड़-छाड़ करते हैं और वह हंसता है। हम उसको रास्ता बताते हैं और वह हमारे पीछे-पीछे चलता है।

कल तक हम मूर्तियों के सामने धूप बत्ती जलाते थे और प्रचंड देवताओं के सामने भेंट चढ़ाते थे लेकिन आज हम अपनी आत्मा के सिवा किसी के सामने धूप नहीं जलाते और अपने आपे के सिवा किसी पर भेंट नहीं चढ़ाते, क्योंकि सबसे बड़े और महान देवता ने हमारे हृदय को अपनी ज्योति से प्रकाशित कर दिया है।

कल तक हम बादशाहों से डरते थे और हमारी गर्दनें उनके सामने झुक जाती थीं लेकिन आज हम सत्य के सिवा किसी के सामने सिर नहीं झुकाते, सौंदर्य के सिवा किसी की आज्ञा नहीं मानते और प्रेम के सिवा किसी चीज के इच्छुक नहीं होते।

कल तक हमारी निगाहें पादरी के चेहरे पर न पड़ सकती थीं और हम ज्योतिषियों को देखते भय खाते थे पर आज जब कि जमाना बदल चुका है, हम सूर्य के सिवा किसी पर निगाह नहीं जमाते, समुद्र के गीत के सिवा और कोई दूसरी आवाज नहीं सुनते।

कल तक हम अपनी आत्मा के महल ढाते थे, जिससे उनकी नींव पर अपने पूर्वजों की कब्रें बनायें, लेकिन आज हमारी आत्मा एक पवित्र वेदी है, जिस के समीप न अतीत की परछाइयाँ आ सकती हैं और न उस मौत की सड़ी-गली अंगुलियाँ ही छू सकती हैं।

कल तक हम विस्मृति के कोनों में छुपे हुए एक मूक विचार थे, लेकिन अब हम एक ऊँची आवाज हैं जो लोक की गहराइयों में हलचल पैदा कर देती है।

पहले हम राख में दबी हुई छोटी सी चिनगारी थे, लेकिन अब हम भड़कती हुई आग हैं, जिसने तलहटियों को चारों तरफ से घेर रखा है।

हमने कितनी रातें खोई हुई मुहब्बत और नष्ट किए हुए अन्न के लिए रोते हुए जागकर काटी हैं। जमीन हमारा बिस्तर थी और बर्फ हमारा लिहाफ। हमने कितने दिन बैठे-बैठे भेड़ों के उस गल्ले की तरह गुजारे हैं जिनका चरवाहा न हो इस हालत में अपनी चिन्ताओं को दाँतों से तोड़ने और अपने विचारों को दाढ़ों से चबाते थे, लेकिन फिर हम भूखे के भूखे और प्यासे के प्यासे ही रहते थे। हम कितनी बार दोनों वक्त मिलते खड़े हुए हैं और इस अवस्था में बीती हुई जवानी का मातम करते थे।

हम अनजान चीज की इच्छा में जान देते थे और अज्ञात कारणों के आधार पर भयभीत होते थे। इस शून्य और अन्धेरे लोक को टकटकी बाँध कर देखते थे और खामोशी और अभाव की चीख-पुकार पर कान लगाते थे।

लेकिन वह जमाना इस तरह गुजर गया, जैसे भेड़िया कब्रिस्तान से गुजर जाता है और जब कि वातावरण भी साफ है और हम भी स्वस्थ हैं, हम अपनी प्रकाशमान रातें शानदार मसहरियों में गुजारते हैं। हम ख्याल से जागते हैं, चिंता के साथ बातें करते हैं और आशाओं से गले मिलते हैं हमारे इर्द-गिर्द आग की चिनगारियाँ भड़कती हैं और हम इन्हें अपनी मजबूत अंगुलियों से पकड़ लेते हैं हम इनसे असंदिग्ध भाषा में बातचीत करते हैं। देवताओं के झुँड के झुँड हमारे पास से गुजरते हैं। और हम इन्हें अपने दिल के शौक से लुभाते और अपनी आत्मा के गीतों से मतवाला बनाते हैं।

हम कल यह थे और आज यह हैं। और यही अपनी सन्तान के लिए देवताओं की इच्छा है। लेकिन ऐ शैतान की संतानों! यह बताओ, अब तुम्हारा इरादा क्या है? जब से तुम जमीन के छिद्रों से निकले हो क्या एक कदम भी तुम ने आगे की तरफ बढ़ाया है जब से शैतानों ने तुम्हारी आंखें खोली हैं, क्या कभी ऊंचाई की तरफ तुमने निगाह उठा कर भी देखा है? जब से साँपों की फुँकार ने तुम्हारे होंठ चूमे हैं, क्या सत्य के लिए तुमने एक बात भी अपनी जबान से निकाली है? जब से मौत ने तुम्हारे कानों में रुई ठूँसी है क्या एक क्षण के लिए भी तुमने यौवन के गीत पर कान लगाये हैं?

सात हजार वर्ष पहले मैंने तुम्हें देखा तो उस वक्त भी तुम कीड़े-मकोड़ों की तरह गुफाओं के कोनों में रेंग रहे थे और अब इतने लम्बे काल के बाद सात मिनट हुए जब मैंने अपनी खिड़की के एक शीशे में से तुम पर निगाह डाली तो अब भी तुम नापाक गलियों में मारे-मारे फिर रहे हो। गुमनामी शैतान तुम्हारा नेतृत्व कर रहे हैं, गुलामी की बेड़ियाँ तुम्हारे पैरों में पड़ी हैं और मौत तुम्हारे सिरों पर मंडरा रही है।

तुम आज भी वही हो, तो कल थे और कल और उसके बाद भी वैसे ही रहोगे, जैसा मैंने शुरू में तुम्हें देखा था।

लेकिन हम कल यह थे और आज भी यह हैं, और यही अपनी संतान के बारे में देवताओं का कानून है।

मगर, ऐ शैतान की संतान! तुम्हारे बारे में शैतान का कानून क्या है?


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